क्योंकि कोरोना को भीड़ पसंद है

Edited By ,Updated: 20 Apr, 2021 04:28 AM

because corona likes crowds

पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गौरी को 16 बार हराया और हर बार माफ कर दिया लेकिन 17वीं बार चौहान पकड़े गए। तब उन्हें मौका मिला मोहम्मद गौरी को तीर से खत्म करने का। चंदरबरदाई ने दोहा पढ़ा कि मत चूको चौहान-चौहान चूके नहीं और दुश्मन को मार ही दिया

पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गौरी को 16 बार हराया और हर बार माफ कर दिया लेकिन 17वीं बार चौहान पकड़े गए। तब उन्हें मौका मिला मोहम्मद गौरी को तीर से खत्म करने का। चंदरबरदाई ने दोहा पढ़ा कि मत चूको चौहान-चौहान चूके नहीं और दुश्मन को मार ही दिया। अब इसकी कोरोना नाम के दुश्मन से तुलना करते हैं। पहली लहर की पीक पिछले साल सितम्बर मध्य में आ गई थी। रोज के केस एक लाख के करीब पहुंच गए थे। उसके बाद अक्तूबर, नवम्बर, दिसम्बर में केस कम होते चले गए। जनवरी में भी यही सिलसिला जारी रहा। हर हफ्ते केस कम होते जाते और हम चौहान की तरह मोहम्मद गौरी को माफ करते जाते। 

ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि उस दौरान मोहम्मद गौरी यानी कोरोना अमरीका, यूरोप, ब्राजील आदि देशों में फिर से हमला करने लगा था यानी दूसरी लहर साफ दिख रही थी। भारत के मुहाने पर भी दूसरी लहर का कोरोना आकर बैठ गया था। घात लगाकर बैठा था दुश्मन और मौके का इंतजार कर रहा था। उधर हम मंगलगीत गा रहे थे। कोरोना पर जीत का जश्न मना रहे थे। जानकार आगाह कर रहे थे कि यह मौका इस कदर खुश होने का नहीं है। कोरोना आया तो पहले से दोगुने खतरे के साथ आएगा लेकिन सबको लगा कि मोहम्मद गौरी का खात्मा हो गया है। 

आज हालत यह है कि भारत में कोरोना की दूसरी लहर में अढ़ाई लाख से ज्यादा नए मरीज रोज मिल रहे हैं। डेढ़ हजार से ज्यादा मौतें रोज हो रही हैं। त्रासदी तो यह है कि यह सिलसिला कहां जाकर रुकेगा, इसका अंदाजा तक कोई लगा नहीं पा रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भारत ने हालात काबू में करने का मौका गंवा दिया? क्या केन्द्र और राज्य सरकारों की सामूहिक जवाबदेही लॉकडाऊन में चली गई? क्या नीति-रणनीति क्वारंटाइन हो गई? आइए इन सभी सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करते हैं। 

भारत में इस समय सवा सौ से ज्यादा नए कोरोना के मामले हर मिनट आ रहे हैं। हर दो मिनट में एक मौत हो रही है। क्या अचानक कोरोना दबे पांव पैर-पसारता चला गया और नीति -रणनीति बनाने वालों को भनक तक नहीं लगी या अति आत्मविशवास ले डूबा। आखिर फरवरी में नए केस दस हजार से कम थे। पिछले साल सितम्बर में एक लाख, फरवरी  में आठ हजार और अप्रैल में दो लाख, ये माजरा क्या है। फरवरी में पूरा देश एक-दूसरे को बधाइयां देने लगा था, कोरोना पर जीत का लगभग ऐलान हो गया था। बस यहीं हम एक बड़ी गलती कर बैठे। गलती यही थी कि अमरीका, ब्राजील और यूरोप में कोरोना की दूसरी लहर दस्तक दे रही थी। 

यहां हमने खुद ही तय कर लिया कि हमारे दरवाजे पर कोरोना की दूसरी लहर दस्तक दे ही नहीं सकती है। आनन-फानन में सब कुछ खोल दिया गया। सिनेमाघर, मॉल, जिम, होटल, रेस्तरां, स्विमिंग पूल, शादी में मेहमानों की संख्या बढ़ाकर दो सौ कर दी गई। बंगाल में चुनावी रैलियों और रोड शो का सिलसिला शुरू हो गया। असम, केरल, तमिलनाडु भी पीछे नहीं रहे जहां बंगाल के साथ विधानसभा चुनाव होने थे। टीका लगाने का काम शुरू तो हुआ लेकिन बेहद सुस्त रफ्तार से। जरूरत थी टीकाकरण के काम में तेजी लाने की। टीकों की मांग और आपूर्ति का सही-सही हिसाब रखने की। यहां हम मौका चूके। पहले दौर में डाक्टरों, नर्सों, वार्ड ब्वाय, एम्बुलैंस ड्राइवर, पुलिस, सेना को टीका लगना था लेकिन बहुत कम संख्या में यह वर्ग टीका लगाने सामने आया। आंकड़ों के अनुसार तीन करोड़ लोगों को टीका लगना था लेकिन रजिस्ट्रेशन ही दो करोड़  36 लाख ने करवाया। इसमें से भी सिर्फ 47 फीसदी ने टीका लगवाया यानी आधे से भी कम। 

अगर तीन करोड़ की संख्या को लेकर चला जाए तो 35 फीसदी ने ही टीका लगवाया, यहां भी दूसरी डोज का टीका तो और भी कम लोगों को ही लगा। तब केन्द्र और राज्य सरकारों को कड़े निर्देश जारी करने चाहिए थे लेकिन मौका चूक गए। नतीजा यह रहा कि जब साठ साल से ऊपर को टीका लगाने का दूसरा चरण शुरू हुआ तो गलतफहमी, भ्रम, डर, आशंका, लापरवाही, अफवाह, नैगेटिव प्रचार आदि हावी हो गए। 

आम आदमी को लगा कि जब खुद डाक्टर ही टीका लगाने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखा रहे तो इसका मतलब यही है कि सब कुछ ठीक है, कोरोना काबू में है और टीका लगाए बिना भी काम चल जाएगा। जानकारों का कहना है उस समय ही प्रधानमंत्री से लेकर उनके मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों, सांसदों, विधायकों को टीका लगाने का काम एक अभियान के रूप में शुरू किया जाना चाहिए था। फिल्मी हस्तियों और क्रिकेट के नामी चॢचत पूर्व खिलाडिय़ों को टीका लगाने और इसका व्यापक प्रचार-प्रसार वैज्ञानिक सोच के साथ किया जाना चाहिए था। यह मौका हमने गंवा दिया। 

जब पूरी दुनिया टीकों की एडवांस बुकिंग कर रही थी तब हमने लापरवाही बरती यही सोच कर कि इतनी भी क्या जल्दी है, ऐसी कौन-सी आफत आने वाली है। अमरीका मॉडर्ना फाइजर टीके का आर्डर पर आर्डर दे रहा था, ब्रिटेन टीकों की खरीद और भंडारण में लगा था, इसराईल दोगुने दाम पर टीके खरीद रहा था। लेकिन हम नीतिगत फैसले लेने में देरी कर बैठे। यहां सबसे बड़ा उदाहरण रूस के स्पूतनिक-वी टीके का दिया जा सकता है। जिस टीके का तीसरे फेज का ट्रायल 22 हजार लोगों पर किया गया, उसकी गुणवत्ता पर लांसैंट जैसी प्रतिष्ठित मैडीकल पत्रिका में लेख छपा, जिस टीके को 29 देश अपने नागरिकों को लगा रहे थे और कहीं से नैगेटिव रिपोर्ट नहीं आई थी उस टीके को मंजूरी देने में बहुत देर लगाई गई। 

भारत ने कहा कि स्पूतनिक-वी के तीसरे फेज का ट्रायल भारत में होगा, उसे नतीजों को जांचा-परखा जाएगा और फिर मंजूरी पर फैसला लिया जाएगा। क्या इससे बचा नहीं जा सकता था यह देखते हुए कि तीसरे फेज के ट्रायल से पहले ही भारत बायोटैक के कोवैक्सीन टीके को हम मंजूरी दे चुके थे। अमरीका की आबादी 32 करोड़ है लेकिन उसने नवम्बर से लेकर इस साल फरवरी के बीच दोगुने करीब साठ करोड़ टीकों का आर्डर दे दिया था लेकिन भारत ने जनवरी में टीकों का पहला आर्डर दिया, वह भी सिर्फ ग्यारह करोड़ का। भारत दुनिया का टीका फैक्टरी कहलाता है लेकिन भारत में ही टीकों का टोटा पडऩे के हालात पैदा हो गए और हम देर से जागे। कुल मिलाकर कोरोना को भीड़ पसंद है। यह मौका भीड़ ने ही कोरोना को दिया है, यही वजह है कि अस्पताल से लेकर श्मशान तक भीड़ ही भीड़ नजर आ रही है।-विजय विद्रोही

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