...क्योंकि सावरकर पर लगा दाग गांधी ही धो सकते थे

Edited By ,Updated: 14 Oct, 2021 04:05 AM

because only gandhi could wash the stain on savarkar

दक्षिणपंथी राजनीति झूठ और अफवाह के घोड़े पर सवार हो सरपट भागती है। इतिहास से उसकी शिकायत, और उससे उपजी पीड़ा उसकी आक्रामकता को खाद देती है। और ये महज इत्तेफाक नहीं है कि साम्यवाद के पतन और उदारवाद के कमजोर

दक्षिणपंथी राजनीति झूठ और अफवाह के घोड़े पर सवार हो सरपट भागती है। इतिहास से उसकी शिकायत, और उससे उपजी पीड़ा उसकी आक्रामकता को खाद देती है। और ये महज इत्तेफाक नहीं है कि साम्यवाद के पतन और उदारवाद के कमजोर होने के बाद दुनिया में दक्षिणपंथ एक बार फिर मजबूत हो रहा हैं। भारत भी इससे अछूता नहीं है। वैसे तो दक्षिणपंथ एक विचार है जो विवेक की जगह भावनाओं को ज्यादा तरजीह देता है। भावनाओं का ज्वार अक्सर इतिहास की नए सिरे से व्याख्या करता है। भारत में भी इतिहास के नवीनीकरण की कोशिश की जा रही है। इस योजना में सावरकर को लेकर एक नया विवाद खड़ा हो गया है। इस विवाद की जड़ में है रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का बयान। 

राजनाथ सिंह ने कहा है कि काले पानी की सजा काटते हुए सावरकर ने गांधी जी के कहने पर दया याचिका अंग्रेज प्रशासन को दी थी। सावरकर ने कुल 14 साल जेल में काटे। उनमें से तकरीबन 11 साल वह सैलुलर जेल में रहे। जहां अमानवीय यातनाएं दी जाती थीं। सावरकर पर एक आरोप लगता है कि उन्होंने काले पानी की अमानवीय यातना से घबरा कर अंग्रेजों को कुल 5 (कुछ इतिहासकार 7 भी कहते हैं) दया याचिकाएं दी थीं और माफी मांग कर बाहर आए थे। उनकी जेल से रिहाई सशर्त हुई थी। उन पर यह भी आरोप है कि छूटने के बाद अंग्रेजी शासन के प्रति विश्वासपात्र बने रहे। ये सारी याचिकाएं सार्वजनिक हैं और कोई भी उनको पढ़ कर अपना निष्कर्ष निकाल सकता है । 

संघ और सावरकर समर्थक तथ्यों को तो नहीं झुठला सकते पर वे उसकी नई व्याख्या करते हैं। उनके मुताबिक़ सावरकर को लगता था कि जेल में जिंदगी काटने से अच्छा है माफी मांग कर बाहर आ जाना और फिर देश सेवा में लगना। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि 1924 में जेल से आज़ाद होने के बाद भी सावरकर अंग्रेजों के विश्वास पात्र बने रहे और जब देश गांधी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई लड़ रहा था तब वह गांधी के आंदोलन के खिलाफ खड़े थे और अंग्रेजों की मदद कर रहे थे। लेकिन अब उन्हीं गांधी का नाम लेकर सावरकर के माफीनामे को सही ठहराने की कोशिश की जा रही है । 

हकीकत यह है कि गांधी ने अंग्रेजों से माफी मांग कर बाहर आने की कोई सलाह सावरकर को कभी नहीं दी। इस बात का कोई प्रमाण कहीं नहीं मिलता। गांधी और सावरकर विचारधारा के 2 ध्रुव हैं जो कभी नहीं मिले। गांधी अहिंसा की बात करते थे और सावरकर हिंसा के समर्थक थे। हिंसा के लिए उकसाने और अंग्रेज अफसर को मारने के लिए लंदन से हथियार भेजने के आरोप में ही उन्हें काले पानी की सजा हुई थी। यह भी सच है कि मदन लाल धींगरा को एक अंग्रेज अफसर की हत्या के लिए उन्होंने ही तैयार किया था। गांधी जहां हिंदू-मुसलमान, सबको साथ लेकर चलने की बात करते थे, वहीं सावरकर दो राष्ट्रवाद की बात करते थे। उनके हिंदुत्व में मुसलमानों और ईसाईयों के लिए कोई जगह नहीं थी। 

गांधी साध्य और साधन, दोनों की पवित्रता की वकालत करते थे, जबकि सावरकर साध्य की पूर्ति के लिए किसी भी साधन का इस्तेमाल करने की। वह हिंसा को भी जायज ठहराते थे। गांधी ने कभी भी अंग्रेजों से माफी नहीं मांगी। उनका मानना था कि अपने विचारों की सत्यता और सच्चाई के वास्ते कोई भी कीमत चुकानी पड़े, चुकानी चाहिए।  गांधी जनवरी 1915 में भारत आए थे। तब तक सावरकर को काले पानी के लिए भेजा जा चुका था। गांधी तब तक कांग्रेस के सबसे बड़े नेता नहीं बने थे। वह किसानों के आंदोलन की अगुवाई कर रहे थे, देश को समझने के लिए गांव देहात की खाक छान रहे थे। इस दौरान उनके सावरकर को दया माफी के लिए सलाह देने का सवाल ही नहीं उठता। हकीकत तो यह है कि सावरकर इस दौरान कांग्रेस पार्टी से नाराज थे कि वह उनकी रिहाई के मुद्दे पर चुप थी। 

सच्चाई यह भी है कि गांधी और सावरकर में ज्यादा मेल-मिलाप नहीं था। एक बार लंदन में 1909 में जब गांधी सावरकर से उनके निवास पर मिलने गए थे तब सावरकर झींगा तल रहे थे और सावरकर ने इस बात पर गांधी पर तंज कसा था- ‘वो कैसे अंग्रेजों से लड़ेंगे जब वो मांसाहार नहीं करते’। दूसरी बार 1927 में रत्नागिरी में गांधी फिर सावरकर से मिले, उनके निवास पर। इस मुलाकात का अंत भी बहुत सुखद नहीं था। गांधी ने जब चलने के लिए विदा ली तो उन्होंने सावरकर से पूछा कि ‘उनको इस बात पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि मुद्दों को सुलझाने के लिए वह कुछ प्रयोग कर रहे हैं।’  

तिस पर सावरकर ने तल्ख टिप्पणी की- ‘‘महात्मा जी, आप यह प्रयोग राष्ट्र की क़ीमत पर करेंगे।’’ मौके पर मौजूद आर.के. गवांडे ने यह कह कर कि ‘‘गांधी प्लस सावरकर माने स्वराज’’, मामले को हल्का करने की कोशिश की। सावरकर को हमेशा यह लगता रहा कि गांधी मुसलमानों का कुछ ज्यादा ही तुष्टीकरण करते हैं, वह इसको सही नहीं मानते थे। बाद में कांग्रेस से उनकी नफरत इस कदर बढ़ी कि उसको हराने और सत्ता से दूर करने के लिए उनकी पार्टी हिंदू महासभा ने जिन्ना की मुस्लिम लीग से भी हाथ मिलाने से गुरेज नहीं किया। 

गांधी ने जरूर 27 मई, 1920 को यंग इंडिया अखबार में एक लेख लिख कर सावरकर बंधुओं की रिहाई की मांग की थी। पूरे लेख में इस बात का कोई जिक्र नहीं है कि वह सावरकर को माफी मांगने के लिए कह रहे हैं या माफी मांगने की सलाह दे रहे हैं। दया याचिका हर कैदी का एक वैधानिक अधिकार है और उसके मांगने में कुछ भी गलत नहीं है। इसी भावना से गांधी ने अंग्रेज सरकार से सावरकर समेत सभी कैदियों के लिए अपील की थी। वह वैधानिक सवाल उठा रहे थे। 

यहां सवाल उठता है कि आखिर सावरकर के संदर्भ में गांधी को लाने की जरूरत लगभग 100 साल के बाद क्यों आन पड़ी? वह भी उन गांधी की जिनकी हत्या की साजिश रचने का आरोप सावरकर पर लग चुका है और जेल जा चुके हैं। वह भी तब जब सरदार वल्लभ भाई पटेल देश के गृहमंत्री थे। इस मामले में श्यामा प्रसाद मुखर्जी को सरदार पटेल ने भरोसा दिया था कि सावरकर के खिलाफ कार्रवाई कानून के हिसाब से होगी, राजनीतिक द्वेष की भावना से नहीं। बाद में टैक्नीकल ग्राऊंड पर सावरकर को गांधी की हत्या के मामले में अदालत ने बरी कर दिया था, लेकिन 2 दशक बार कपूर आयोग ने अपनी रिपोर्ट में उनपर संदेह जताया था। 

दरअसल, सबको मालूम है कि सावरकर पर जो दाग लगा है, उसको गांधी ही धो सकते थे, इसलिए राजनाथ सिंह के बयान को इसी संदर्भ में देखना चाहिए। विडंबना यह है कि जिन गांधी को सावरकरवादी आज भी गाली देते हैं, उनको भी सावरकर के उद्धार के लिए गांधी ही चाहिए। वह भी ऐसे समय में जब सावरकर के ङ्क्षहदुत्व का बोलबाला है। कौन कहता है कि गांधी आज जिंदा नहीं हैं। विचार कोई भी हो, गांधी के देश में गांधी के बगैर काम नहीं चल सकता, चाहे दक्षिणपंथ हो या वामपंथ अथवा उदारपंथ।-आशुतोष

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