‘भारत में ‘नैगेटिव सबसिडी’ किसानों के साथ बड़ा धोखा’

Edited By ,Updated: 15 Jan, 2021 04:39 AM

big fraud with negative subsidy farmers in india

डेढ़ माह से भीषण ठंड में भी जारी किसान आंदोलन जीने और मरने की लड़ाई में तबदील हो गया है। मुद्दा न तो केवल एम.एस.पी. के कानूनी अधिकार का है, न ही तीनों कानून खत्म करने भर का। देश की आॢथक रीढ़ बनी कृषि जो आज भी 55 करोड़

डेढ़ माह से भीषण ठंड में भी जारी किसान आंदोलन जीने और मरने की लड़ाई में तबदील हो गया है। मुद्दा न तो केवल एम.एस.पी. के कानूनी अधिकार का है, न ही तीनों कानून खत्म करने भर का। देश की आॢथक रीढ़ बनी कृषि जो आज भी 55 करोड़ लोगों की मजदूरी और 62 प्रतिशत लोगों के व्यवसाय का सहारा है,में 70 वर्षों बाद भी केवल 42 प्रतिशत सिंचित जमीन है।

अगर कृषि-शोध पर सरकार का  जी.डी.पी. का मात्र 0.37 प्रतिशत (इससे ज्यादा एक विदेशी कंपनी अपने कृषि-शोध में खर्च करती है) खर्च होता हो और अगर आजादी के पहले दशक में कृषि में जो सरकारी निवेश जी.डी.पी. का 18 प्रतिशत था आज मात्र 7.6 प्रतिशत रह गया हो तो क्या किसान कानूनों, आश्वासनों और ‘अन्नदाता’ का तगमा ले कर तिल-तिल कर मरता रहे? आज जब वोट के लिए यदि  इसे ‘अन्नदाता’  कहा जाता है तो नीति-निर्धारण में यह कटौती क्यों?।

‘अन्नदाता’ बना कर यह कैसा धोखा 
ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डिवैल्पमैंट (ओ.ई.सी.डी.) की ताजा रिपोर्ट चौंकाने वाली है। इसके अनुसार अमरीका, यूरोपियन यूनियन और स्विट्जरलैंड जैसे विकसित देश तो छोडि़ए, चीन, ब्राजील, मैक्सिको और इंडोनेशिया सरीखे विकासशील देश भी अपने किसानों को सकारात्मक सबसिडी देते हैं। वहीं भारत में, जो सबसिडी ‘अन्नदाता को देकर बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं, उनकी हकीकत यह है कि उनसे ज्यादा किसानों से भांति-भांति के टैक्स के रूप में वापस ले ली जाती है। यानि भारत में करीब दस प्रतिशत की ‘नैगेटिव सबसिडी’ है। ओ.ई.सी.डी. अकेली संस्था है जो दुनिया के तमाम देशों में किसानों को दी जानी वाली परोक्ष या प्रत्यक्ष सबसिडी और उसके बदले उनसे वसूले जाने वाले टैक्स के बारे में रिपोर्ट जारी करती है। 

रिपोर्ट के अनुसार यह स्थिति सन 2017-19 के बीच की सरकारी नीतियों का प्रतिफल है। ध्यान रहे कि सन 2016 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बरेली के सार्वजनिक भाषण में किसानों की आय फरवरी सन 2022 तक दूनी करने की सार्वजनिक घोषणा की थी और सन 2019 का आम चुनाव भी इसी नारे पर जीता था। सरकारी दावों के ठीक उलट भारत अकेला देश है जहां उपभोक्ताओं को कृषि उत्पाद अन्तर्राष्ट्रीय मूल्यों से कम पर मिलता है जबकि सभी उपरोक्त देशों में ज्यादा कीमत पर। चीन के किसानों को अपने उत्पाद का मूल्य अंतर्राष्ट्रीय बाजार से लगभग 10 फीसदी ज्यादा मिलता है जबकि भारत के ‘अन्नदाता’ को 13 प्रतिशत कम। कुल मिलाकर जहां भारत में सरकार की कीमतें नीचे रख कर महंगाई रोकने की नीतियों के कारण सन 2019 में ‘अन्नदाता’ को कुल 1.61 लाख करोड़ रुपए का नुक्सान हुआ वहीं उपभोक्ताओं को छ: लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का फायदा। 

इस हाथ से देकर उस हाथ से ‘अधिक’ लेने का एक उदाहरण है रासायनिक खाद। यह सच है कि भारत में बनी यूरिया की असली कीमत 17,000 रुपए प्रति टन होती है जबकि आयातित यूरिया 23,000 रुपए की पड़ती है। वहीं सरकार की सबसिडी की वजह से वह किसानों को नीम-लेपित यूरिया मात्र 5922.22 रुपए की पड़ती है। यही स्थिति डी.ए.पी. या अन्य मिश्रित खादों की है। मगर हकीकत यह है कि इसमें से सरकार आधे से ज्यादा डीजल पर टैक्स के रूप में वसूल लेती है। कृषि उपकरणों, कीटनाशकों और स्वयं खाद पर टैक्स के रूप में जो वसूली होती है वह अलग। भूलें नहीं कि पश्चिमी देशों या चीन में किसानों को विभिन्न तरीकों से दी जाने वाली सबसिडी या अन्य मदद कई गुना ज्यादा है। 

किसानों की मांग जायज
किसान का उत्पाद महंगा है यानि प्रति हैक्टेयर अन्य देशों में उत्पादन ज्यादा होता है। सरकार का परोक्ष उलाहना है कि किसान निवेश करने की स्थिति में नहीं होता, वैज्ञानिक खेती से परहेज करता है और डायनामिक सोच न होने के कारण केवल एकल फसल (धान-गेहूं) खेती करता है। इन आदतों से खेत की उर्वरा शक्ति खत्म हो जाती है।

मान लें कि सरकार किसानों की एम.एस.पी. की मांग मान ले लेकिन अन्य सभी सबसिडियां बंद कर दे तो क्या यूरिया, जो आज 5922 रुपए प्रति टन है, छूट खत्म होने के बाद किसान 17,000 रुपए के फैक्ट्री मूल्य पर खरीदेगा? लेकिन किसानों की मांग इसलिए जायज है कि पूरी दुनिया में हर सरकार अलग-अलग स्वरूप में किसानों की मदद करती है। दरअसल इसका समाधान एम.एस.पी. पर सरकार को हर अनाज खरीदने के लिए बाध्य करना नहीं है बल्कि एक नई किसान राहत नीति में है, जिसके तहत बोई गई फसल के रकबे के साथ ही होनी वाली उपज के आधार पर एक फार्मूला बनाकर  (जो एम.एस.पी. के नजदीक हो) सीधे कैश ट्रांसफर किया जाए और इसका सरकार को आंशिक अनुभव भी है। 

सरकार अपने अनाज वितरण कार्यक्रमों के लिए ‘जब और जहां जरूरत हो’ के आधार पर किसान-उत्पादक संगठनों से या बाजार से टैंडर निकाल कर अनाज ले सकती है। इससे रख-रखाव पर आने वाला भारी खर्च बचेगा और भ्रष्टाचार भी संभव नहीं होगा। उधर व्यापारी अति-उत्पादन की स्थिति में खुले बाजार में मूल्य भी नीचे नहीं रख पाएंगे क्योंकि उन्हें डर रहेगा कि सरकार निजी मंडियों में भी प्रवेश कर सकेगी।

स्थानीय किसान परिवारों को भी थोक व्यापार में सहज मान्यता मिलेगी तो किसानों को पैसे डूबने का डर भी कम रहेगा और परिवारजनों को रोजगार मिलेगा,  स्थानीय उद्यमिता बढ़़ेगी। ठेका-कृषि में अगर फसल खराब हुई तो बीमा सिस्टम को मजबूत और तेज बना कर एक ओर किसान को आपदाओं से महफूज किया जा सकता है तो दूसरी ओर इस योजना में बहु-फसलीय, निवेशोन्मुख और वैज्ञानिक खेती भी हो सकेगी।-एन.के. सिंह
 

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