भाजपा का बलपूर्वक लागू किया गया ‘संघवाद’

Edited By ,Updated: 04 Aug, 2019 12:28 AM

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मैंने 28 फरवरी 1997 को अपने बजट भाषण में ‘सहकारी संघीय राजनीति’ वाक्यांश का इस्तेमाल किया था। मैं यह दावा नहीं करता कि इस वाक्यांश का इस्तेमाल करने वाला मैं पहला व्यक्ति था लेकिन मैं खुश हंू कि ‘सहकारी संघवाद’ शब्दों का इस्तेमाल बार-बार बजट भाषणों...

मैंने 28 फरवरी 1997 को अपने बजट भाषण में ‘सहकारी संघीय राजनीति’ वाक्यांश का इस्तेमाल किया था। मैं यह दावा नहीं करता कि इस वाक्यांश का इस्तेमाल करने वाला मैं पहला व्यक्ति था लेकिन मैं खुश हूं कि ‘सहकारी संघवाद’ शब्दों का इस्तेमाल बार-बार बजट भाषणों तथा अन्य अवसरों पर किया गया है। 

राज्य सार्वभौम हैं
‘सहकारी संघवाद’ का क्या अर्थ है? यह वाक्यांश इस बात की पहचान तथा पुष्टि करता है कि भारत एक संघीय राष्ट्र है। यहां एक केन्द्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारें हैं। प्रत्येक सरकार के लिए कानून बनाने हेतु क्षेत्र आरक्षित है। केन्द्र सरकार (संसद के माध्यम से) राज्य सरकारों के लिए आरक्षित क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं कर सकती और राज्य सरकार (विधानसभा के माध्यम से) केन्द्र सरकार के लिए आरक्षित क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं कर सकती। कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जिनमें दोनों सरकारें कानून बना सकती हैं। विधायी क्षेत्रों का विभाजन संघवाद का मूल तत्व है। संवैधानिक योजना का सम्मान करना सहकारी संघवाद है। 

तथापि, भारत के संविधान में असाधारण धाराएं हैं जो संसद को किसी भी अप्रगणित विषय पर कानून बनाने का अधिकार देती हैं (धारा 248); या किसी ऐसे विषय पर एक सीमित समय के लिए, जो राज्य की सूची में हो और ‘राष्ट्रहित में आवश्यक हो’ (धारा 249) तथा किसी भी ऐसे विषय पर ‘जब आपातकाल लगाया गया हो’ (धारा 250)। धारा 258 (2) एक दिलचस्प प्रावधान है। संसद द्वारा बनाया गया एक कानून राज्य सरकार अथवा इसके अधिकारियों को शक्तियां दे सकता है या उन पर पाबंदियां लगा सकता है लेकिन केन्द्र को राज्य को उतना धन देना होगा जितने पर सहमति बनी हो। यह धारा राज्य की सार्वभौमिकता, अधिकारों तथा शक्तियों की एक मजबूत पुष्टि है। 

विधेयकों को आगे बढ़ाना 
खुद भाजपा सरकार एक अलग तरह की सरकार है, यह न तो राज्यों के अधिकारों का सम्मान करती है और न ही संवैधानिक  सीमाओं और विवरणों का पालन करती है। भाजपा सरकार की संघवाद के लिए निष्ठा का आकलन उस तरीके से किया जा सकता है जिससे राज्यसभा में विधेयक पारित किए जाते हैं। लोकसभा जनप्रतिनिधि सदन है जबकि राज्यसभा राज्यों की परिषद। राज्यसभा के सदस्यों का प्रमुख कत्र्तव्य राज्यों के हितों की रक्षा तथा उन्हें आगे बढ़ाना है। 2 अगस्त तक लोकसभा ने इस सत्र में 28 विधेयक पारित किए थे जबकि राज्यसभा ने 26 विधेयक पारित कर दिए थे। उनमें से कोई भी, मैं फिर दोहराऊंगा कि एक भी विधेयक विपक्षी दलों के साथ चर्चा की प्रक्रिया से नहीं गुजरा। 

न ही एक भी विधेयक विस्तारपूर्वक जांच के लिए संसदीय स्थायी समिति अथवा सिलैक्ट कमेटी को भेजा गया। किसी भी विधेयक पर राज्य सरकारों से सलाह नहीं की गई, जिनमें वे विधेयक भी शामिल हैं जो संविधान की समवर्ती सूची (सूची 3) में शामिल किए गए हैं और राज्यों के अधिकारों को प्रभावित करते हैं। न ही विपक्ष द्वारा प्रस्तावित एक भी संशोधन को सरकार द्वारा स्वीकार किया गया।

कुछ उदाहरण काफी होंगे। जस्टिस पुत्तास्वामी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की धारा 110 के क्षेत्र की व्याख्या की और वह निर्णय सरकार पर बाध्य है। राज्यसभा धन विधेयक में संशोधन अथवा उसे खारिज नहीं कर सकती, यह केवल सुझाव दे तथा विधेयक लोकसभा को लौटा सकती है, वह चाहे इसके सुझावों को स्वीकार करे अथवा नहीं। राष्ट्रपति धन विधेयक पर रोक नहीं लगा सकता और न ही पुनॢवचार के लिए संसद को लौटा सकता है। इन सीमाओं का लाभ उठाते हुए लेकिन धारा 110 का जोरदार उल्लंघन करते हुए सरकार ने वित्त विधेयक (नम्बर 2) के माध्यम से कम से कम 10 गैर-वित्त कानूनों में संशोधन किया और इस तरह से राज्यसभा की जांच अथवा राष्ट्रपति द्वारा पुनर्विचार के निर्देश से बच गई। 

सूचना का अधिकार कानून, 2005 को विश्व भर में एक लाभदायक कानून के तौर पर प्रशंसा मिल रही है। कानून की धारा 15 राज्य सरकार को राज्य सूचना आयोग गठित करने का अधिकार देती है। राज्य सरकार को ही राज्य सूचना आयुक्तों का चयन तथा नियुक्ति करनी होती है। इसका शुरूआती कार्यकाल 5 वर्ष था। अभी तक वेतन, भत्ते तथा सेवा की अन्य शर्तें तथा स्थितियों को निर्धारित करने की शक्ति राज्य सरकार के पास थी (धारा 16)। अब प्रारम्भिक कार्यकाल तथा वेतन-भत्तों, अन्य शर्तों व स्थितियों की शक्ति केन्द्र सरकार ने अपने हाथ में ले ली है। हमने पूछा क्यों? कोई उत्तर नहीं मिला। 

राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग विधेयक राज्यों का परम अपमान है। चिकित्सा शिक्षा उपलब्ध करवाने के नियमितीकरण का राज्य सरकार का प्रत्येक अधिकार उससे ले लिया गया है और प्रत्येक राज्य को 4 वर्षों के दौरान केवल एक बार 2 वर्षों के लिए आयोग का सदस्य बनने के लिए छोड़ दिया गया। यह उतना ही अच्छा है जितना चिकित्सा शिक्षा के विषय को सूची 3 से सूची 1 में स्थानांतरित करना। फिर भी इसे राज्यों की परिषद में बिना राज्यों के विरोध के पारित कर दिया गया।

हर युक्ति का इस्तेमाल
सरकार राज्यसभा में विधेयकों पर मतदान में विजय प्राप्त करने में कैसे सफल रही? मुस्लिम महिला (सुरक्षा तथा विवाह के अधिकार) विधेयक को ही लें, जिसे ट्रिपल तलाक विधेयक के नाम से जाना जाता है। सरकार ने इसे 84 के मुकाबले 99 वोटों से जीत लिया क्योंकि मतदान के समय विपक्ष के 46 सदस्य अनुपस्थित थे। बसपा का कोई सदस्य उपस्थित नहीं था, सपा के 6 सदस्य अनुपस्थित थे, राकांपा के 4 में से 2 सदस्य थे, एक कांग्रेस सदस्य ने उसी दिन इस्तीफा दे दिया (और अगले दिन भाजपा में शामिल हो गया) तथा कांग्रेस के 4 सदस्य अनुपस्थित थे। 

अन्नाद्रमुक, जद(यू), टी.आर.एस. तथा पी.डी.पी., जो विधेयक के खिलाफ बोले थे, मतदान के समय गायब हो गए। बंटवारा, फुसलाना, धमकाना, ‘सौदे तोडऩे’ की धमकी देना आदि, भाजपा ने उन विधेयकों को पारित करवाने के लिए अपने पास मौजूद हर युक्ति का इस्तेमाल किया जिनसे राज्यों का दर्जा कम होकर निगम प्रशासकों जैसा रह जाता है और एकता के भयावह विचार में एक अन्य पहलू जोड़ दिया-सबके लिए एक सरकार।-पी. चिदम्बरम  

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