Edited By ,Updated: 17 Jul, 2024 05:26 AM
उत्तर प्रदेश में किए मंथन के बाद भाजपा की चिंता साफ दिखने लगी है। वहां के उप मुख्यमंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य का बयान, जिसमें संगठन को सत्ता से बड़ा बताना, कई तरह के संदेश देता है। यह सही है कि भाजपा को 2024 के आम चुनावों में ऐसे नतीजों की उम्मीद...
उत्तर प्रदेश में किए मंथन के बाद भाजपा की चिंता साफ दिखने लगी है। वहां के उप मुख्यमंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य का बयान, जिसमें संगठन को सत्ता से बड़ा बताना, कई तरह के संदेश देता है। यह सही है कि भाजपा को 2024 के आम चुनावों में ऐसे नतीजों की उम्मीद हरगिज नहीं थी। लगता नहीं कि अति उत्साह या रणनीतिक विफलता ही थी जो 400 पार का नारा दे दिया और इसे विपक्ष ने लपक कर संविधान से जोड़ दिया और भाजपा उम्मीदों से पीछे रह गई। शायद बयान देते वक्त प्रधानमंत्री ने भी इसके ऐसे दूरगामी परिणामों बारे नहीं सोचा होगा।
नतीजों को झुठलाया नहीं जा सकता। रही-सही कसर अभी विभिन्न प्रान्तों से आए विधानसभा के उप-चुनावों ने पूरी कर दी। 13 सीटों में से महज 2 पर ही भाजपा की जीत बताती है कि परिणामों के पीछे भले ही यह कहा जाए कि जहां जिसकी सरकार रही वही जीता लेकिन उत्तराखण्ड और बिहार के नतीजे बताते हैं कि ऐसा नहीं है। अब उत्तर प्रदेश में 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होने हैं और 2027 में विधानसभा चुनाव भी होने हैं। साथ ही जिस तरह सोमवार को महाराष्ट्र में राजनीतिक गहमा-गहमी रही और छगन भुजबल ने शरद पवार से दरवाजे पर लंबे इंतजार के बाद मुलाकात की, उसके सियासी मायने बहुत गहरे हैं। क्या लगता है कि इस बार एन.डी.ए. गठबंधन में मोदी सरकार 2014 और 2019 सरीखी मजबूत है?
निश्चित रूप से विधानसभा उप-चुनावों के नतीजों से राज्य सरकारों को कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता लेकिन नतीजों के पीछे के कारणों, संकेतों और चर्चाओं की अनदेखी भी तो महंगी पड़ सकती है। अभी हुए विधानसभा उप चुनावों के नतीजों को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है। इसके पीछे जहां युवाओं में बेरोजगारी की पीड़ा, बार-बार प्रश्न पत्र लीक की घटनाएं, दल-बदल के बाद चुनाव में वही चेहरे और उनकी हार के मायने भी समझने होंगे। भाजपा को सोचना होगा कि जिस पार्टी को अनुशासन का उदाहरण माना जाता था, वहीं से विरोध और चेतावनी के स्वर निकलना कतई साधारण नहीं कहा जा सकता। इस सबके पीछे कहीं न कहीं भाजपा के वे कैडर बेस कार्यकत्र्ता हैं, जो अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत से ही पार्टी से जुड़े हैं। वे आज बाहरी लोगों को कतार लगाकर प्रवेश मिलने से कहीं न कहीं उपेक्षित हो रहे हैं। संगठन समॢपत लोगों से चलता है। यदि वही ऐसे लोगों के चलते खुद को पीछे पाएंगे, जो कल तक पार्टी को कोसते थे, तो इसके पीछे के मनोभाव और प्रभाव को कैसे नकारा जा सकता है?
जहां हिमाचल में ‘ऑप्रेशन लोटस’ नाकाम रहा और कांग्रेस पहले की तरह वापस 68 में से 40 सीटों पर दोबारा पहुंच गई, वहीं कमोबेश उत्तराखंड की दो विधानसभा सीटों मंगलौर और बद्रीनाथ में भाजपा को हराना भी इशारा है। मंगलौर सीट पहले बहुजन समाज पार्टी के पास थी, जबकि बद्रीनाथ कांग्रेस के पास। लोकसभा चुनाव 2024 से पहले कांग्रेस विधायक भाजपा में शामिल हुए, जिससे उप चुनाव हुआ। बंगाल में 4 सीटों पर उपचुनाव हुआ, सभी पर टी.एम.सी. जीती, जबकि पहले 3 सीटों पर भाजपा के विधायक थे। इसी तरह बिहार में हुए एकमात्र उप चुनाव में निर्दलीय का डंका बजना भी मायने रखता है। मध्य प्रदेश में कई चरणों में आगे-पीछे के बाद अंतत: भाजपा के जीतने का कारण वहां पर प्रदेश सरकार के तमाम दिग्गजों सहित भाजपा नेताओं की मौजूदगी रही। इससे भाजपा कमलनाथ के किले को दोबारा ध्वस्त करने में कामयाब रही।
क्या मतदाताओं ने धर्म की राजनीति को नकार दिया है? राजनीतिक विश्लेषकों के तमाम तर्कों की अनदेखी नहीं की जा सकती, जो मानते हैं कि लोकसभा में अयोध्या और अब उपचुनाव में बद्रीनाथ सीट पर भाजपा की हार के मायने यही हैं। हालांकि बद्रीनाथ पहले भी कांग्रेस के पास थी लेकिन कांग्रेसी विधायक का पाला बदल कर भाजपा की टिकट पर लडऩा और हारना यही बताता है। अब इस बात की जरूर कहीं न कहीं चर्चा होने लगी है कि जो भी भाजपा के साथ नहीं होगा, वह कभी न कभी राजनीतिक तौर पर हाशिए पर जरूर आएगा। ताजा उदाहरण ओडिशा का तो दूसरा जगन रैड्डी का है। वहीं, पंजाब में शिरोमणि अकाली दल, जो 10 साल राज करने के बाद भाजपा से अलग होकर 1 सांसद पर आ टिका। लेकिन तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव, जो इसी साल होने हैं, वहां भाजपा को भी कठिन चुनौती तय है।
महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में भाजपा की राह आसान नहीं दिखती। हाल में महाराष्ट्र विधान परिषद चुनावों में वहां की महायुति सरकार ने अपने 5 प्रत्याशी येन केन प्रकारेण जरूर जिता लिए लेकिन सब जानते हैं कि कैसा खेल हुआ था। अप्रत्यक्ष चुनाव थे, जिनसे जो गंभीर संदेश गया, वह कहीं न कहीं भाजपा के लिए शुभ नहीं कहा जा सकता। 2014 के बाद भाजपा में पहली बार इतनी अंतर्कलह दिख रही है, वह भी खुल कर। नेता या विधायक अपने बयान देकर भले यू-टर्न ले लें लेकिन जो कह दिया वह तो राजनीतिक वायुमण्डल में तैरता ही रहता है। लोग समझने लगे हैं कि नेताओं को बयान क्यों और कैसे बदलने पड़ते हैं। अभी जवान, किसान, युवा, रोजगार, प्रश्न पत्र लीक के मामले और यहां तक कि देश की अति प्रतिष्ठित सिविल सेवा परीक्षा पर भी उंगली उठाते विरोध के स्वर तेज होने लगे हैं।
हालांकि भाजपा में अपने प्रदर्शन और संगठन दोनों को लेकर मंथन जारी है। लगातार प्रयोगधर्मी पार्टी की सरकार के मुखिया के रूप में प्रधानमंत्री ने कई तरह के प्रयोग जरूर किए लेकिन अपेक्षित परिणामों के लिए उत्सुक मतदाता अब इससे छिटकता दिख रहा है। भाजपा को इस आहट, उसमें छिपे संकेतों को समझने के साथ मजबूत होते विपक्ष और उसके नेताओं पर निजी हमलों से भी बचना होगा क्योंकि जनमानस को कहीं न कहीं यह सब नहीं भा रहा।-ऋतुपर्ण दवे