‘बाय-बाय पप्पू और हैलो राहुल गांधी’

Edited By Pardeep,Updated: 16 Dec, 2018 04:00 AM

bye bye pappu and hello rahul gandhi

पर्टी बहुत रोमांचित था जिसने बुधवार की सुबह जल्दी मुझे फोन कर दिया। ‘‘अब आप उसे पप्पू नहीं कह सकते।’’ उसने धौंकनी की तरह सांस लेते हुए अपनी बात जारी रखी, ‘‘इन चुनावों के साथ उसने अपने राजनीतिक पांव जमा लिए हैं और उन पर खड़ा हो गया है।’’ मैंने शायद...

पर्टी बहुत रोमांचित था जिसने बुधवार की सुबह जल्दी मुझे फोन कर दिया। ‘‘अब आप उसे पप्पू नहीं कह सकते।’’ उसने धौंकनी की तरह सांस लेते हुए अपनी बात जारी रखी, ‘‘इन चुनावों के साथ उसने अपने राजनीतिक पांव जमा लिए हैं और उन पर खड़ा हो गया है।’’ मैंने शायद ही कभी पर्टी को किसी राजनीतिक मुद्दे बारे इतनी जोरदार आवाज उठाते देखा था। सामान्तय: उसकी ऐसे मामलों में रुचि नहीं होती।यद्यपि पर्टी की बात ने मुझे सोचने के लिए मजबूर कर दिया। क्या वह सही था? तीन हिन्दी भाषी राज्यों में चुनाव परिणामों के बाद क्या राहुल गांधी की छवि में बदलाव आया है? क्या इन सफलताओं के साथ उन्होंने अपनी राजनीतिक विश्वसनीयता बना ली है? मेरा छोटा-सा उत्तर ‘हां’ होगा लेकिन मैं इसे विस्तार से बताना चाहूंगा। 

श्रेय राहुल गांधी को
हालांकि मिजोरम में कांग्रेस की करारी हार हुई तथा तेलंगाना में उसे शॄमदा होना पड़ा, फिर भी छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान में पार्टी के पुनर्जीवित होने का अधिकतर श्रेय राहुल गांधी को जाता है। निश्चित तौर पर उन्हें इसे मध्य प्रदेश में कमलनाथ व ज्योतिरादित्य सिंधिया या राजस्थान में अशोक गहलोत व सचिन पायलट अथवा छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल व टी.एस. सिंहदेव के साथ बांटना पड़ेगा, लेकिन आप उनकी केंद्रीय भूमिका के महत्व से इंकार नहीं कर सकते। यदि कांग्रेस हार जाती तो उसका दोष उन पर मढ़ा जाता। अब श्रेय भी उनको ही जाना चाहिए। राहुल गांधी के प्रचार अभियान में तीन बातें सामने आती हैं। पहली है उनकी निष्ठा। अक्तूबर से लेकर उन्होंने पांच चुनावी राज्यों में 82 रैलियों को संबोधित किया। इसकी तुलना में नरेंद्र मोदी ने केवल 31 रैलियां कीं। उन्होंने मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में रोड शो तथा मिजोरम में जनसभाएं भी कीं। इससे उनकी अपरिपक्व अथवा अंशकालिक राजनीतिज्ञ की पहले वाली छवि, जो केवल नजर आती थी, बेहतरी के लिए दफन हो गई। 

हमलों का तीखापन
राहुल गांधी के प्रचार अभियान का दूसरा बिंदू प्रधानमंत्री तथा भाजपा नीत केंद्र सरकार पर उनके हमले का तीखापन था। चौकीदार को चोर कहना महज एक वाकपटुता थी और यदि किसी को यह अच्छा नहीं भी लगा तो आप इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि यह काम कर गया। मगर जिस चीज ने तारों को गहराई से छेड़ा वह थी राहुल गांधी का नोटबंदी तथा जी.एस.टी., बेरोजगारी, ग्रामीण क्षेत्रों में निराशा और यहां तक कि संभावित तौर पर राफेल पर जोर देना। इन विषयों को तैयार तथा प्रतिक्रियाशील श्रोता मिल गए। यह राहुल गांधी के प्रचार अभियान का तीसरा तत्व था जो यह सुझाता है कि वह समझते थे कि भाजपा विरोधी होने से परिणाम मिलेंगे न कि कांग्रेस के पक्ष में प्रचार करने से। किसानों के कृषि ऋण माफ करने तथा छत्तीसगढ़ में एम.एस.पी. में उल्लेखनीय वृद्धि करने के उनके वायदे ने नि:संदेह लाखों किसानों को कांग्रेस के पक्ष में मतदान करने के लिए प्रेरित किया। वह वे प्रस्ताव दे रहे थे जिनकी लोग आशा करते थे। यह कहना उचित होगा कि उन्होंने सकारात्मक तौर पर वोटों को आकर्षित किया। इसकी बजाय कि क्या चाहते हैं, लोगों ने अपनी जरूरत के लिए उन्हें वोट दिया। 

राम मंदिर का मुद्दा काम नहीं आया
हालांकि राहुल गांधी के नर्म हिन्दुत्व के साथ मंदिरों में जाने बारे हम क्या कह सकते हैं? क्या इससे उन चिंताओं का समाधान हो गया कि कांग्रेस मुस्लिम समर्थक तथा हिन्दू विरोधी है? क्या उन्होंने बहुत से लोगों की उस हिचकिचाहट को समाप्त कर दिया जो वे कांग्रेस को वोट देने में महसूस करते थे? यदि कोई इस बारे में सुनिश्चित तौर पर नहीं भी कह सकता, इन दौरों ने निश्चित तौर पर कांग्रेस की संभावनाओं को कोई नुक्सान नहीं पहुंचाया। न ही ऐसा दिखाई दिया कि उन्होंने अल्पसंख्यक मतदाताओं को दूर कर दिया इसलिए नर्म हिन्दुत्व जारी रहेगा। फिर भी एक अन्य चीज सच है। भाजपा तथा संघ परिवार का राम मंदिर का तुरंत निर्माण करवाने पर जोर स्पष्ट तौर पर राजनीतिक लाभ नहीं दे सका। इसने हिन्दी पट्टी वाले मतदाताओं को भाजपा को वोट देने के लिए प्रेरित नहीं किया। सच यह है कि अधिकतर हिन्दू राम मंदिर का स्वागत करेंगे लेकिन छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान में उन्होंने इसे अपने दिमाग में रख कर मतदान नहीं किया। उन्हें अन्य सांसारिक मुद्दों ने प्रेरित किया। हां, पर्टी बिल्कुल सही है। यह कहने का समय है कि ‘बाय-बाय पप्पू और हैलो राहुल गांधी’।-करण थापर

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