Edited By ,Updated: 28 Feb, 2020 03:37 AM
दिल्ली पिछले 4 दिनों में अभूतपूर्व दंगों की गवाह रही है। अभी तक 38 लोगों की जान जा चुकी है। दिल्ली पुलिस के खिलाफ पक्षपात करने के आरोप लग रहे हैं जिसने पिछले कुछ महीनों से उल्लेखनीय अयोग्यता दिखाई है। यह अकल्पनीय है कि 80,000 मजबूत बल, 8000 करोड़...
दिल्ली पिछले 4 दिनों में अभूतपूर्व दंगों की गवाह रही है। अभी तक 38 लोगों की जान जा चुकी है। दिल्ली पुलिस के खिलाफ पक्षपात करने के आरोप लग रहे हैं जिसने पिछले कुछ महीनों से उल्लेखनीय अयोग्यता दिखाई है। यह अकल्पनीय है कि 80,000 मजबूत बल, 8000 करोड़ रुपए से अधिक के वार्षिक बजट के साथ दिल्ली पुलिस अच्छी तरह से प्रशिक्षित और सुसज्जित है। मगर वह दिल्ली के दंगों को नियंत्रित करने में असमर्थ रही है जो मात्र राष्ट्रीय राजधानी के एक हिस्से तक ही सीमित हैं और वह भी उस समय में जब भारत अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की मेजबानी कर रहा था।
दंगों ने भारत पर वैश्विक फोकस को स्थानांतरित कर दिया
इन दंगों ने भारत पर वैश्विक फोकस को स्थानांतरित कर दिया जो हाल के दिनों में एन.पी.आर., एन.आर.सी.तथा सी.ए.ए. पर भारत सरकार के कार्यों और घोषणाओं पर किया गया है। पूर्वोत्तर दिल्ली के कुछ हिस्सों में अब शूट-एट साइट के आदेश के साथ हम मान सकते हैं कि शांति बहाल हो जाएगी। अब यह सुनिश्चित करने के लिए मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर भरोसा किया जाएगा कि नागरिक प्रशासन जमीनी स्तर पर अंतर-सरकारी शांति समितियों का गठन कर रहा है।
केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह के संसद के अंदर तथा दिल्ली चुनाव प्रचार के दौरान अखिल भारतीय एन.आर.सी. शुरू करने और ‘दीमक’ को खत्म करने वाले भाषणों ने लोगों में डर का माहौल पैदा कर दिया। प्रधानमंत्री के आश्वासन कि सरकार की इच्छा एन.आर.सी. को लागू करने की नहीं, ने भी लोगों में यकीन पैदा नहीं किया। इसके बाद दिल्ली में चुनावी मुहिम ने एक कड़वी और साम्प्रदायिक भावना को भड़काया। केन्द्रीय मंत्रिमंडल में एक मंत्री, दिल्ली के एक सांसद और एक भावी विधायक उम्मीदवार ने एक ऐसी भाषा बोली जिसका उपयोग कभी भी सबसे कठिन चुनावों में भी नहीं किया गया। ऐसे लोगों के खिलाफ कोई भी कार्रवाई नहीं की गई। इसने कपिल मिश्रा (संभावित विधायक उम्मीदवार) को पूर्वोत्तर दिल्ली में एक भीड़ का नेतृत्व करने के लिए लाइसैंस दे दिया जिसने इस गंभीर स्थिति को और विकराल कर दिया। मानो निर्णायक रूप से अपनी अक्षमता साबित करने के लिए दिल्ली पुलिस ने अभी भी कपिल मिश्रा के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की।
शाहीन बाग में अधिकांश प्रतिभागी मुस्लिम हैं
सौभाग्यवश अधिकांश एन.पी. आर., एन.आर.सी. तथा सी.ए.ए. विरोध प्रदर्शन (मुट्ठी भर को छोड़ कर) शांतिपूर्ण रहे हैं और जबकि शाहीन बाग में अधिकांश प्रतिभागी मुस्लिम हैं। अन्य धार्मिक समुदायों की भी उत्साही भागीदारी हुई है। सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि मुस्लिम महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हाथ में संविधान की एक प्रति के साथ वे प्रस्तावना पढ़ते हैं, राष्ट्रगान और वंदे मातरम् भी गाते हैं। एक मुस्लिम सांसद तो लोकसभा से बाहर चला गया जब राष्ट्रीय गीत गाया जा रहा था। विडम्बना देखिए कि प्रदर्शनकारी महिलाएं भारतीय होने के लिए लड़ती हैं। यह उनका राष्ट्रवाद और देशभक्ति है जिसे चुनौती दी जा रही है।
एन.पी.आर., एन.आर.सी., सी.ए.ए. का संयोजन और जिस गति से इन्हें पेश किया गया था, ने न केवल मुसलमानों बल्कि भारत के सभी अल्पसंख्यकों के विश्वास को हिला दिया है। ईसाई लम्बे समय से अंत तक रहे हैं। ग्राहम स्टैंस और उनके बेटों की हत्या एक बार की घटना नहीं थी। चर्चों पर बर्बरता किए जाने और ईसाई पादरियों और ननों के उत्पीडऩ की बार-बार घटनाएं हुईं। सिख समुदाय भी विवशता के साथ देखता है (1984 उनके दिमाग से अभी भी दूर नहीं गया) और सी.ए.ए. के प्रदर्शनकारियों के साथ उनकी सहानुभूति है। शाहीन बाग में बड़ी सिख उपस्थिति से स्पष्ट है कि वे कंधे से कंधे से मिला कर खड़े हैं। उन्होंने वहां पर लंगर तक लगाए।
प्रदर्शनकारी पुलिस के डंडे तथा स्थानीय राजनेताओं से नहीं डरते
आज शाहीन बाग अद्वितीय प्रतिरोध का प्रतीक बन गया है। छात्र, महिलाएं, दलित और अल्पसंख्यक एक नए आत्मविश्वास के साथ बोल रहे हैं। उन्हें पुलिस के डंडे तथा स्थानीय राजनेताओं से डर नहीं लगता। न ही उन्हें अल्पसंख्यक और दलित कहे जाने का डर है। जैसा कि पंडित नेहरू ने कहा था कि भारत की आत्मा जो लम्बे समय से दबी थी अब पूरी तरह से बोल रही है। शाहीन बाग में महिलाएं शांति के साथ बैठी हैं। वे देशभक्ति के गीतों के माध्यम से अपनी आत्माओं को बनाए रखने में सफल हुई हैं। वे आगंतुकों का स्वागत करती हैं और यहां पर किसी को भी साम्प्रदायिक या धार्मिक भाषण देने की अनुमति नहीं है। स्टैंडअप कलाकार, गायक, फिल्मी सितारे, लेखक, शिक्षक यहां आते हैं और अपने विचार रखते हैं।
सरकार ने सोचा था कि मुस्लिम महिलाओं के बीच तीन तलाक को दूर करने से उन्हें पुरुष उत्पीडऩ से मुक्त किया जाएगा और इससे उनके वोट बटोरने में मदद मिलेगी। अब ये महिलाएं बहुत आगे जा चुकी हैं। शाहीन बाग में मुस्लिम महिलाओं के लिए सरकार के दावों के खोखलेपन की बात की जाती है। हजारों की गिनती में प्रदर्शनकारियों ने सर्द ऋतु को झेला है। सरकार की ओर से किसी ने भी यहां की यात्रा नहीं की और न ही संवाद बनाने में कोई दिलचस्पी दिखाई। कुछ प्रदर्शनों के दौरान कानून व्यवस्था का मुद्दा भी बना। बड़े पैमाने पर गैर भाग लेने वाली जनता ने सहानुभूति की डिग्री के साथ मूड को समझा है।
वास्तविकता यह है कि विरोध बंद नहीं होगा। भारत में अल्पसंख्यक धीरे-धीरे मानते आ रहे हैं कि उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने का अभियान चल रहा है। यह धारणा सही है या नहीं, यह सवाल नहीं है। ऐसा विचार अपने आप में खतरनाक है और इसे दूर किया जाना चाहिए। सरकारी प्रवक्ताओं ने बार-बार दोहराया है कि सी.ए.ए. किसी की राष्ट्रीयता को नहीं छीनता है लेकिन उन मुसलमानों और यहूदियों का क्या होगा जो एन.पी.आर. के तहत आवश्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ हैं। उन लोगों के साथ क्या होगा जिन्हें एन.पी.आर. के तहत ‘संदिग्ध’ श्रेणी में रखा गया है। क्या मुसलमानों और यहूदियों को हिरासती कैम्पों में रखा जाएगा? यहूदियों जिनकी संख्या बहुत कम है, उन्हें प्रलय के बुरे सपने की ओर लौटाया जाएगा। सवाल यह है कि क्या 200 मिलियन समुदाय या जनसंख्या जो देश के समग्र विकास में योगदान दे रही है, भय में रहती है।
यह समझना मुश्किल है कि सरकार एन.पी.आर. से गुजरने की अव्यावहारिकता को क्यों नहीं समझ रही। कई राज्य सरकारों ने इसे पूरा करने के लिए पहले ही मना कर दिया है। बिहार (जहां भाजपा सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा है)ने एन.पी.आर. को अपने वर्तमान स्वरूप में अपनाने में असमर्थता का संकेत दिया है। फिर सरकार कैसे उम्मीद करती है कि वह गिनती करने वाला डाटा एकत्रित करेगी। हिंसा का डर है और यहां तक कि ऐसा नहीं हुआ तब गलत जानकारी दी जाएगी या फिर जानकारी देने से मना कर दिया जाएगा। अगर इसे पूरा करने का कोई प्रयास किया गया तो यह पूरी जनगणना के आंकड़ों को कमजोर करने का जोखिम पैदा करेगा जिससे देश की योजना प्रक्रिया को नुक्सान पहुंचेगा।
सरकार को एक संवाद प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए
इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि सरकार इन भयावह मुद्दों पर बातचीत शुरू करने के लिए तुरन्त कोई कदम उठाए। विरोध-प्रदर्शन उतने नेतृत्वविहीन नहीं हैं जितने दिखते हैं। ऐसे सामुदायिक नेता हैं जिनसे बात की जा सकती है। सरकार को राजनीतिक दलों, शिक्षकों, पत्रकारों तथा अन्य राय निर्माताओं को शामिल करना चाहिए और तुरन्त एक संवाद प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए। सभी की चिंताओं को दूर किया जाना चाहिए और प्रधानमंत्री के ‘सबका साथ’ जीतने के वायदे को बरकरार रखा जाना चाहिए। यदि यह कहा जाए कि उनके राष्ट्रवाद और देशभक्ति को साबित करने की कीमत खून है तो भारत के अल्पसंख्यकों ने अधिक भुगतान किया है। मोहम्मद अली जिन्नाह अपने ‘दो राष्ट्र’ के सिद्धांत में गलत थे और आज का भारत उन्हें सही साबित नहीं करेगा।-नजीब जंग