निठल्ले लोगों वाले राष्ट्र का विकास नहीं हो सकता

Edited By ,Updated: 20 Mar, 2017 10:45 PM

can not develop a nation with insignificant people

मैं खाली बैठूंगा, न मैं खाली बैठने दूंगा। कभी न थकने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का....

मैं खाली बैठूंगा, न मैं खाली बैठने दूंगा। कभी न थकने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह नया वाक्य ऐसे देश में जहां पर काम को लोग गंदा शब्द मानते हैं और जो लोगों की मानसिकता से मिट चुका है। उन्होंने पक्षी की आंख पर निशाना साधा है क्योंकि खाली बैठने के लिए कुछ बहाना चाहिए। शायद इसका सरोकार ‘हम परवाह नहीं करते’ की सोच और ‘चलता है’ दृष्टिकोण से है।

हमारी खराब संस्कृति का जीता-जागता प्रमाण हमारे लोकतंत्र का मंदिर संसद है क्योंकि दोनों सदनों में व्यवधान के कारण बर्बाद हुए कार्य-घंटे सब कुछ बता देते हैं। विशेषकर पिछले वर्ष शीतकालीन सत्र के दौरान संसद का पूरा समय व्यवधान के कारण बर्बाद हुआ।

इस सत्र के दौरान लोकसभा के 91 घंटे और 49 मिनट बर्बाद हुए जबकि इसकी बैठक केवल 19 घंटे और 26 मिनट चली। राज्यसभा के 96 घंटे बर्बाद हुए और उसकी बैठक केवल 22 घंटे चली। विपक्ष नारे लगाने, शोर-शराबा करने, सदन के बीच में आकर कार्रवाई में बाधा डालने में व्यस्त रहा जबकि सत्ता पक्ष ने अपने बहुमत का उपयोग विधायी एजैंडे को आगे बढ़ाने के लिए किया और यह नौटंकी हमेशा चलती रही। 

इसका उदाहरण नोटबंदी पर चर्चा है। इस चर्चा के शुरू होने के बाद राज्यसभा में केवल 14 सदस्यों ने भाग लिया। वह भी कार्य स्थगन के बाद चर्चा शुरू की गई थी किंतु सभापति महोदय को बार-बार कोरम की घंटी बजानी पड़ी क्योंकि सदन में गिने-चुने सदस्य उपस्थित थे और अधिकतर सदस्य केन्द्रीय कक्ष में चाय-पानी और गपशप में व्यस्त थे। वे जानते थे कि उन्होंने 2000 रुपए का अपना दैनिक भत्ता अर्जित कर लिया है। आज स्थिति यह हो गई है कि संसद केवल एक प्रतिशत प्रेरणा देती है और 99 प्रतिशत लोग उससे खिन्न हैं। 

लौह कवच वाली नौकरशाही के बारे में क्या कहें। दिल्ली के प्रसिद्ध लोधी गार्डन में सुबह 6.30 बजे भारत सरकार की कार आती है और साहब अपने ड्राइवर को आदेश देते हैं कि वहीं रुके रहना। इसमें कोई गलत नहीं है किंतु ड्राइवर को 6.30 बजे बुलाने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि लोधी गार्डन साहब के बंगले से केवल 1 कि.मी. की दूरी पर है किंतु साहब साहब हैं और वह किसी चीज की परवाह नहीं करते। यह केवल एकमात्र उदाहरण नहीं है। 

सरकारी कार्यालयों में सामान्य कार्यदिवस 8 घंटे का है जिसमें एक घंटे का भोजनावकाश भी शामिल है किंतु कर्मचारी जब कार्यालय में प्रवेश करता है तो चायकाल शुरू हो जाता है और यह दोपहर भोजन तक चलता रहता है तथा दोपहर भोजन के बाद चायकाल फिर शुरू होता है और यह उसके घर जाने के वक्त तक रहता है। कोई फर्क नहीं पड़ता, मोदी रहें या न रहें, उन्हें अन्य कार्यालयों में काम होता है। दैनिक यात्रियों के पास देर से आने और जल्दी जाने का बहाना होता है। फिर भी उन्हें खूब ओवरटाइम मिलता है। फ्रैंच लीव भी खूब मिलती हैं। अपने वैयक्तिक सहायकों और महिला सहायक कर्मियों के साथ 2-2 घंटे का भोजनावकाश चलता है। 

प्रश्न उठता है कि क्या गरीब देश आराम, आराम तथा और अधिक आराम की इस विलासिता को वहन कर सकता है? किंतु हमारी नौकरशाही में ‘की फर्क पैंदा है’ का दृष्टिकोण बन गया है। साल के 365 दिनों में 5 दिन का कार्य सप्ताह होता है, इसका मतलब है कि साल में 104 दिनों की सप्ताहांत छुट्टियां होती हैं, 30 दिन का अर्जित और 10 दिन का चिकित्सा अवकाश मिलता है। साथ ही 12 दिन की आकस्मिक छुट्टियां, 17 गजटिड छुट्टियां और 2 प्रतिबंधित छुट्टियां मिलती हैं। महिलाओं को 6 महीने का अतिरिक्त मातृत्व अवकाश भी मिलता है। 

अधिकतर पुलिस वाले इस सिद्धान्त पर काम करते हैं कि तुम अपना चेहरा दिखाओ, मैं तुम्हें नियम बताऊंगा और जिसका मतलब है कि उनकी जेब गर्म होती रहे। यातायात पुलिस से लेकर इंस्पैक्टर तक कोई भी उन्हें पूछने वाला नहीं है। ये सभी अपने जड़त्व, अकुशलता और अपारदर्शिकता के लिए कुख्यात हैं। वे किसी भी निर्णय को रोक सकते हैं, गिरफ्तारी टाल सकते हैं, अपराधी को पकडऩे में विफल रह सकते हैं, मामले की जांच धीमी कर सकते हैं और इसलिए आज उन्हें दुनिया का सबसे खतरनाक जानवर कहा जाता है। 

यह व्यवस्था की सामूहिक विफलता है किंतु व्यवस्था को विफल किसने किया। राजनेता या नौकरशाह ने नहीं। सभी एक-दूसरे पर उंगली उठाते हैं किंतु सभी इस बात से सहमत हैं कि हमारी व्यवस्था में कुछ खामियां हैं। हाल के एक सर्वेक्षण में कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए गए हैं। इनमें से प्रमुख है कि भारत में 52 प्रतिशत कार्यरत पेशेवर लोग अपने कार्य में आनंद नहीं लेते हैं और वे कार्य में नई चुनौतियोंं को पसंद नहीं करते हैं। संगठित और असंगठित क्षेत्र में 29 प्रतिशत कर्मचारियों का मानना है कि कार्य के दौरान समय बर्बाद करना अलिखित कार्यालीय संस्कृति बन गई है। इसके अलावा हमारी कार्य के प्रति चाह नहीं है जिसके चलते परिवार, घर, मित्र आदि के दबाव में हम अपना सर्वोत्तम नहीं दे पाते हैं जबकि यही पेशेवर लोग जब विदेशों में जाते हैं तो अपनी उत्कृष्टता सिद्ध करते हैं क्योंकि वहां पर व्यवस्था है और विफलता के साथ जवाबदेही जुड़ी हुई है। उनका प्रभावी उत्पादकता कार्यक्रम है। 

कार्य के प्रति ढिलमुल रवैये के साथ-साथ विशेषकर राज्य, पुलिस और प्राधिकारियों में भ्रष्ट प्रथाएं भी बढ़ी हैं। हांगकांग स्थित पॉलीटिकल एंड इकोनॉमिक रिस्क कंसल्टैंसी ने हमारी सिविल सेवा को सबसे खराब रेटिंग दी है। समय आ गया है कि सब लोग मिलकर इस जड़त्व को समाप्त करें और सिद्धान्तों के आधार पर पेशेवरता को बहाल करें।राष्ट्रीय चरित्र के अभाव और अनुशासनहीनता के चलते सब चलता है वाला दृष्टिकोण विकसित हो रहा है। नमो के समक्ष कठिन चुनौती है कि वह ऐसे लोगों से कार्य करवाएं। सच यह है कि जो राष्ट्र खाली बैठा रहता है उसका विकास नहीं होता है। क्या युवा भारत खाली बैठकर औसत दर्जे का बना रह सकता है?     

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