क्या मजहब के नाम पर होने वाली हिंसा रुक सकती है

Edited By Punjab Kesari,Updated: 11 Aug, 2017 12:55 AM

can violence stop in the name of religion

क्या विश्व में मजहब के नाम पर होने वाली हिंसा को रोकना संभव है? अभी हाल ही में म्यांमार के यांगून में विश्व शांति...

क्या विश्व में मजहब के नाम पर होने वाली हिंसा को रोकना संभव है? अभी हाल ही में म्यांमार के यांगून में विश्व शांति, सद्भाव, सुरक्षा, संघर्ष से बचाव और पर्यावरणीय चेतना हेतु 2 दिवसीय ‘संवाद-2’ का आयोजन हुआ। इस कार्यक्रम के लिए जो संकल्पना नोट जारी हुआ, उसके 8वें ङ्क्षबदु में स्विस कैथोलिक पादरी, दर्शनशास्त्र और लेखक हांस कूंग की एक महत्वपूर्ण उक्ति का उल्लेख किया गया। वह कहते हैं: 

‘‘मजहबों के बीच शांति के बिना राष्ट्रों के बीच शांति संभव नहीं है और मजहबों के बीच शांति तब तक संभव नहीं है, जब तक संवाद के माध्यम से अलग-अलग मजहब के मूल सिद्धांतों की जांच न कर ली जाए।’’ क्या मजहबों के बीच बढ़ते रक्तरंजित संघर्ष के संदर्भ में यह सुझाव क्रांतिकारी नहीं है? हांस कूंग, चर्च के पारम्परिक सिद्धांत पोप-अचूकता, ईसा मसीह की दिव्यता और वर्जिन मैरी संबंधी शिक्षाओं के विरोधी रहे हैं। वर्ष 1962 में उन्हें 23वें पोप ने वैटिकन परिषद में ‘पेरिटस’ (धार्मिक परामर्शदाता) के रूप में नामित किया था। किंतु कूंग के उदारवादी विचारों और चर्च की परम्पराओं पर प्रश्न उठाने के कारण उन्हें वर्ष 1979 में वेटिकन ने 1 वर्ष के लिए प्रतिबंधित कर दिया।

यदि कोई भी अपराध या फिर सामाजिक कुरीति मजहब या किसी विशेष विचारधारा से प्रेरणा लेने का दावा करे तो यह स्वाभाविक है कि उसकी पवित्र पुस्तकों, उसके जन्मदाता व पथ-प्रदर्शकों के जीवन का विस्तृत अध्ययन किया जाए और उस पर ईमानदारी से संवाद हो। हिंदू समुदाय लंबे समय से अस्पृश्यता की समस्या से जूझ रहा है। समाज के भीतर से ही न केवल इस बुराई की निंदा की गई, बल्कि उसके उन्मूलन के लिए कई ठोस कदम भी उठाए गए। क्या विकृतियां केवल हिंदू समाज तक ही सीमित हैं? क्या इस्लाम और ईसाई मजहब इससे बिल्कुल दोषमुक्त हैं? 

यांगून में ‘संवाद-2’ सम्मेलन का शुभारम्भ भारत और जापान के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व शिंजो अबे के वीडियो संदेशों के साथ हुआ था। भारत सहित 30 विभिन्न देशों के 100 से अधिक राजनीतिज्ञों, राजनयिकों, प्रतिष्ठित विचारकों, प्रख्यात विद्वानों और आध्यात्मिक गुरुओं ने अपने विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम के अंत में एक सामूहिक घोषणापत्र भी जारी किया गया, जिसके 10वें बिंदु में कहा गया: ‘‘सभी आध्यात्मिक पथ और सभी मजहबों की परम्पराएं समान रूप से स्वीकार्य हैं।’’ इसका निहितार्थ क्या है? क्या विश्व में सभी मजहब संबंधी विवाद, संघर्ष, हत्याएं व युद्ध इस भावना और विश्वास से प्रेरित नहीं होते हैं कि केवल मेरा मजहब सच्चा है और अन्य मिथ्या? इसी विचार से प्रभावित होकर जो लोग स्वयं को सच्चा अनुयायी मानते हैं, वे दूसरे मजहब के मतावलंबियों की या तो हत्या करते हैं या उनसे लालच, भय, धोखे और फरेब के माध्यम से मतांतरण का काम करवाते हैं। 

यदि सभी मजहबों के अनुयायी इस घोषणा को मान लें कि सभी मजहबों की परम्पराएं समान रूप से स्वीकार्य हैं, तो स्वाभाविक रूप से न तो मजहब के नाम पर हत्या होगी और न ही जबरन किसी का मतांतरण। इस पृष्ठभूमि में मजहब प्रेरित हिंसा पर भी लगाम लगेगी। वास्तव में, अपने मजहब को श्रेष्ठ सिद्ध करने की प्रवृत्ति, अन्य मतों के प्रति घृणा का भाव और जबरन मतांतरण ने विश्व में मजहबी संघर्ष का बीजारोपण किया है। 

आज विश्व जिस आतंकवाद का दंश झेल रहा है, उसका दार्शनिक आधार ‘काफिर-कुफ्र’ की अवधारणा है- चाहे 7वीं शताब्दी में मोहम्मद बिन कासिम का भारत पर आक्रमण हो, मध्यकाल में औरंगजेब सहित कई मुस्लिम शासकों का तलवार के बल पर मजहब बदलने का अभियान, हिंदुओं के मान-बिंदुओं को जमींदोज करना, 1947 में मोहम्मद अली जिन्नाह का मजहब के आधार पर भारत का रक्तरंजित बंटवारा, एकमात्र यहूदी राष्ट्र इसराईल से मुस्लिम देशों की घृणा, कश्मीर से हिंदुओं को खदेडऩा, ओसामा बिन लादेन का न्यूयार्क पर 9/11 हमला, 2008 में जमात-उद-दावा सरगना हाफिज सईद का मुंबई पर 26/11 हमला और वर्तमान समय में यूरोप सहित विश्व के अलग-अलग कोनों में होने वाले आतंकी हमलों का दौर। क्या यह सत्य नहीं कि इन सभी कुकर्म करने वालों ने ‘इस्लाम’ को अपना प्रेरणास्रोत नहीं बताया है? क्या आतंकी या जेहादी अपनी जान देने से पहले और दूसरे को मारने के समय कुरान में लिखित आयतों को उद्धृत नहीं करते हैं? 

ईसाई मत में भी सदियों से अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने हेतु ‘बुत्तपरस्तों’ के मतांतरण और स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने की रूढ़ परम्पराएं रही हैं। यही नहीं, यूरोपीय ईसाइयों ने फिलस्तीन और उसकी राजधानी यरुशलम में स्थित अपनी पवित्र भूमि, ईसा की समाधि पर कब्जा करने के लिए सन् 1095 और 1291 के बीच 7 बार आक्रमण किया था, जिसे क्रूसेड या क्रूस युद्ध के नाम से जाना जाता है। विश्व के इस भूखंड में आज भी मजहबी संघर्ष निरंतर जारी है। क्रिस्टोफर कोलम्बस ने ईसाई मत के प्रचार-प्रसार अभियान का हिस्सा बनकर ही 1492 में अमरीका की खोज की थी, जहां के मूल निवासियों को कालांतर में रैड इंडियंस का नाम दिया गया। 

क्या यह सत्य नहीं है कि इस खोज के पश्चात श्वेत शासकों की विस्तारवादी नीति और मजहबी दायित्व ने आज इस धरती के मूल ध्वजवाहक और उनकी संस्कृति को खत्म कर दिया है? ‘क्रूसेड’ के नाम पर ही पुर्तगाली, डच और अंग्रेज भारतीय तटों पर उतरे और जबरन लोगों को मसीह के चरणों में शरण लेने के लिए बाध्य किया था। आज भी भारत के पिछड़े और आदिवासी क्षेत्रों में ईसाई मिशनरियां व चर्च मतांतरण के खेल में लिप्त हैं। देश में इन कैथोलिक संस्थाओं का शिकार हिंदू समाज का शोषित वर्ग ही होता है ताकि वे शेष समाज के विरुद्ध खड़े हो सकें। विश्व में एक धारणा यह भी प्रचलित है कि यदि सभी लोग अनीश्वरवादी या नास्तिक हो जाएं, तभी दुनिया में शांति और समरसता संभव है। क्या मजहब-विहीन समाज विश्व में अमन का मार्ग प्रशस्त कर सकता है? 

माक्र्सवादी विचारधारा में ‘ईश्वर’ का कोई स्थान नहीं है, इसलिए कम्युनिस्टों ने सोवियत संघ, उत्तरी कोरिया और चीन आदि देशों में मजहब का सफाया करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। विश्व के जिस भूखंड को अनीश्वरवादी माक्र्स दर्शन ने अपनी चपेट में लिया, वहां न केवल खूनी हिंसा उसकी नीति बनी, साथ ही वैचारिक विरोधियों को मौत के घाट उतार दिया गया और संबंधित क्षेत्र की परम्पराओं, संस्कृति, मानवाधिकारों व मजहबी स्वतंत्रता का भी गला घोंट दिया गया। यदि विश्व का सभ्य समाज मजहबी हिंसा और संघर्ष के मूल कारणों, दर्शन और विचारधारा पर खुलकर चर्चा करने से इसी तरह बचता रहा या उसमें विरोधाभास रहा तो दुनिया हिंसा रूपी दानवी दमनचक्र से कभी उभर नहीं पाएगी। 

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