क्या हम विरोध प्रदर्शन की संस्कृति को स्वीकार कर सकते हैं

Edited By ,Updated: 29 Sep, 2021 03:29 AM

can we accept the culture of protest

इस राजनीतिक मौसम में जहां सरकार पंजाब में ‘मेरा दलित मुख्यमंत्री’ बनाम उत्तर प्रदेश में ‘मेरी ब्राह्मण ओ.बी.सी. कैबिनेट’ के प्रतीकात्मक खेल में व्यस्त है तो किसान क्यों पीछे रहें। आप जितना भी बुरा-भला कहना चाहते हैं कह सकते हैं, किन्तु आज भारत विरोध...

इस राजनीतिक मौसम में जहां सरकार पंजाब में ‘मेरा दलित मुख्यमंत्री’ बनाम उत्तर प्रदेश में ‘मेरी ब्राह्मण ओ.बी.सी. कैबिनेट’ के प्रतीकात्मक खेल में व्यस्त है तो किसान क्यों पीछे रहें। आप जितना भी बुरा-भला कहना चाहते हैं कह सकते हैं, किन्तु आज भारत विरोध प्रदर्शन के तू-तू मैं-मैं पर फल-फूल रहा है। 

प्रतिरोध की आवाज ऐसी, जो कहती है बहुत हो चुका है और जिसने ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ कहावत को चरितार्थ कर दिया है। यह सब कुछ अपना विरोध व्यक्त करने के लिए किया जाता है और विरोध का सुर जितना ऊंचा हो उतना बेहतर। इसकी सफलता का मापन इस बात से किया जाता है कि किस तरह से सामान्य जनजीवन अस्त-व्यस्त हो और लोगों को असुविधा हो। पिछले 10 वर्षों में हम देख रहे हैं कि यह आवाज जोर-शोर से उठाई जा रही है। वर्ष 2007 में अन्ना हजारे के आंदोलन से लेकर 2012 में निर्भया और 2019 में नागरिकता संशोधन अधिनियम से लेकर सोमवार को संयुक्त किसान मोर्चा के भारत बंद तक यही कहानी देखने को मिल रही है। 

सोमवार को संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा बुलाया गया भारत बंद राष्ट्रपति कोविंद द्वारा 3 विवादास्पद कृषि कानूनों को अपनी स्वीकृति देने के एक वर्ष पूरा होने के अवसर पर बुलाया गया। प्रदर्शनकारियों द्वारा राजमार्ग को बाधित करने से हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त देश भर में जनजीवन प्रभावित हुआ। 

इस विरोध प्रदर्शन में राजनीतिक दल भी शामिल हुए। कांग्रेस के अलावा वामपंथी दलों, ‘आप’, सपा, बसपा, वाई.एस.आर.-कांग्रेस, तेदेपा और स्वराज इंडिया ने इस बंद का समर्थन किया। शायद वे अपना नंबर बढ़ाना चाहते हैं। इससे एक विचारणीय प्रश्न उठता है कि प्रातिनिधिक लोकतंत्र के कार्यकरण में विरोध प्रदर्शन या बंद की क्या भूमिका है? क्या हड़ताल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक है या यह लोकतंत्र में मूल अधिकारों का दमन है? प्रदर्शनकारी इस मार्ग को क्यों अपनाते हैं? क्या उनका उद्देश्य वैध है? क्या यह विरोध प्रदर्शन की नई राजनीतिक अभिव्यक्ति है? क्या यह अपने कार्यकत्र्ताओं को साथ रखने का साधन है? या ये सब कुछ राजनीतिक कारणों से किया जा रहा है? न्यायालय द्वारा ऐसे विरोध प्रदर्शनों पर प्रतिबंध लगाने के बारे में अनेक निर्णय देने के बावजूद ऐसा करने की अनुमति क्यों दी जा रही है? 

विरोध प्रदर्शन लोकतंत्र को जीवंत रखने के लिए आवश्यक है और यह वाक् स्वतंत्रता के लिए भी महत्वपूर्ण है। गत दशकों में प्रत्येक विरोध प्रदर्शन से आशा की किरणें दिखाई दीं और उससे लाभ भी मिला किंतु एक बात स्पष्ट है कि लोग अपने अधिकारों की रक्षा और संविधान पर हमले, यहां तक कि सरकार से हमले की रक्षा के लिए सड़कों पर उतरने के लिए तैयार रहते हैं। पहले विरोध प्रदर्शन करने की योजना बनाने में महीनों लग जाते थे। किंतु आज के डिजिटल मीडिया जगत में विरोध प्रदर्शन आयोजित करना आसान है। निर्भया मामले में विरोध प्रदर्शन एस.एम.एस. से शुरू हुआ और हजारे का धरना जनता की शक्ति का प्रदर्शन था तथा यू.पी.ए. सरकार के दौरान भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोग बड़े पैमाने पर सड़कों पर उतर आए थे। 

कुछ लोग विरोध प्रदर्शनों को यह कह कर नजरअंदाज करते हैं कि सब चलता है। वस्तुत: लोकमान्य तिलक के ‘स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है’ से लेकर ‘विरोध प्रदर्शन मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है’ तक भारत ने एक लंबी यात्रा तय की है। जब भारत प्रगति के पथ पर आगे बढ़ रहा है, क्या विरोध प्रदर्शन सही मार्ग है? यह सच है कि संविधान में विरोध प्रदर्शन का अधिकार दिया गया है किंतु संविधान में यह गारंटी नहीं दी गई है कि एक अधिकार दूसरे लोगों के अधिकारों का अतिक्रमण करे। वस्तुत: हमारे प्रदर्शनकारी यह नहीं समझ पाते कि विरोध प्रदर्शन लोकतंत्र की बुनियादी अवधारणा को नकार देते हैं। यह निष्क्रियता पर आवरण डालने, स्वयं का गुणगान करने या बाहुबल का प्रदर्शन करने अथवा सहानुभूति प्राप्त करने या कड़ी मेहनत से बचने का उपाय बन गए हैं। हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि लोकतंत्र न तो भीड़तंत्र है और न ही अव्यवस्था पैदा करने का लाइसैंस है। यह अधिकारों और कत्र्तव्यों, स्वतंत्रता और जिम्मेदारियों के बीच संतुलन बनाने का नाम है। 

किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ साथ उसकी जिम्मेदारियां भी हैं और विरोध प्रदर्शन से स्थिति में सुधार नहीं होता। साथ ही ये शासन में शीर्ष पर बैठे लोगों पर दबाव डालने में प्रभावी नहीं होते। जब तक विरोध प्रदर्शनकारी कोई व्यावहारिक विकल्प नहीं सुझाते तब तक विरोध प्रदर्शन से केवल अव्यवस्था और भीड़ का अन्याय ही देखने को मिलेगा। मानव जीवन और अर्थव्यवस्था तथा व्यवसाय को नुक्सान बढ़ता जाएगा, राज्य पंगु बन जाएगा।  समय आ गया है कि हम अमरीकी कानून से सबक लें, जहां पर किसी भी व्यक्ति को राष्ट्रीय राजमार्ग या उसके निकट भाषण देने का अधिकार नहीं है ताकि राजमार्ग पर भीड़ एकत्र होने से वह बाधित न हो और अन्य लोगों को परेशानियां न हो। 

ब्रिटेन में पब्लिक ऑर्डर एक्ट, 1935 के अंतर्गत किसी भी व्यक्ति द्वारा वर्दी में किसी सार्वजनिक सभा में भाग लेने को अपराध बनाया गया है। प्रिवैंशन आफ क्राइम एक्ट 1953 के अनुसार बिना किसी विधिपूर्ण प्राधिकार के सार्वजनिक स्थानों पर हथियार ले जाना एक अपराध है। देशद्रोहात्मक बैठक एक्ट 1917 में संसद की बैठक के दौरान वेस्टमिंस्टर हॉल के एक कि.मी. के दायरे में 50 से अधिक लोगों की बैठक करने पर प्रतिबंध लगाया गया है। हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि भारत एक सभ्य लोकतंत्र है, इसलिए अधिकारों, कत्र्तव्यों, स्वतंत्रता और जिम्मेदारी के बीच एक नाजुक संतुलन बनाया जाना चाहिए जिसमें नागरिकों के अधिकारों को सर्वोच्च महत्व दिया जाए। हमें इन प्रश्नों पर विचार करना होगा कि क्या हम विरोध प्रदर्शन की संस्कृति को स्वीकार कर सकते हैं, चाहे वे किसी भी उद्देश्य के लिए आयोजित किए गए हों? कभी न कभी हमें खड़े होकर यह अवश्य कहना पड़ेगा कि ‘बंद करो यह बंद’।-पूनम आई. कौशिश
 

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