कावेरी नदी जल विवाद राजनीति छोड़ो, पहले लोगों के बारे सोचो

Edited By ,Updated: 09 Sep, 2016 01:47 AM

cauvery water disputes leave politics think first about the people

कावेरी नदी जल विवाद एक बार फिर से ‘मारिया थेेरेसा डालर’ की तरह फूट पड़ा है। ऐसा तब होता है जब दोनों ऊपरी तथा निचले तटवर्ती राज्यों कर्नाटक तथा ..

(कल्याणी शंकर): कावेरी नदी जल विवाद एक बार फिर से ‘मारिया थेेरेसा डालर’ की तरह फूट पड़ा है। ऐसा तब होता है जब दोनों ऊपरी तथा निचले तटवर्ती राज्यों कर्नाटक तथा तमिलनाडु में मांग को पूरा करने के लिए पानी की कमी हो जाती है। गत दो दशकों या इससे अधिक समय से सुप्रीम कोर्ट तथा कावेरी नदी प्राधिकरण को कई मौकों पर इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा है। ऐसा 1991 में, 2002 में तथा फिर 2012 में हुआ। ऐसा अब फिर हुआ है। 

 
नवीनतम उकसाहट सुप्रीम कोर्ट के उस आदेेश के बाद आई है, जिसमें तमिलनाडु के किसानों द्वारा इस वर्ष ग्रीष्मकालीन कुरुवाई फसलें बीजने के लिए उनकी मांग को पूरा करने हेतु अगले 10 दिनों में 15000 क्यूसिक पानी छोडऩे का कर्नाटक को निर्देश दिया गया है। कावेरी ट्रिब्यूनल की 2007 की व्यवस्था के अनुसार कर्नाटक को तमिलनाडु के लिए 192 टी.एम.सी. फुट पानी छोडऩा होगा। मगर यह अच्छेवर्ष में था और समस्याएं तब शुुरू हुईं जब वर्षा नहीं हुुई। 
 
जल बंटवारा हमेशा ही किसी भी जगह पर ऊपरी तथा निचले तटवर्ती राज्यों के लिए सिरदर्द बना रहता है। देश की लगभग सभी प्रमुख नदियां अन्तर्राज्यीय नदियां हैं और उनका पानी दो अथवा अधिक राज्य बांटते हैं। उदाहरण के लिए, सतलुज व यमुना के पानी को लेकर पंजाब तथा हरियाणा आमने-सामने हैं। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश तथा कर्नाटक कृष्णा को लेकर लड़ रहे हैं, जबकि तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल तथा पुड्डुचेरी कावेरी को लेकर। तेलंगाना तथा आंध्र प्रदेश में भी कृष्णा तथा गोदावरी नदियों के जल बंटवारे को लेकर विवाद है। 
 
सूखे के वर्षों के दौरान कर्नाटक तथा तमिलनाडु के बीच उन्माद बढ़ जाता है। जल एक भावनात्मक मुद्दा होने के नाते राजनीति के अलावा भाषायी उत्साह तथा स्वार्थ को भी बढ़ाता है। जब भी यहां पानी की कमी होती है, तो इसका परिणाम सड़क अवरुद्ध करने, त्यागपत्रों, सर्वदलीय बैठकों, केन्द्र को प्रभावित करने के लिए दिल्ली के दौरे तथा राजनीतिक अवसरवाद के रूप में निकलता है। 
 
कावेरी जल के लिए संघर्ष का इतिहास ब्रिटिश बस्तीवादी दिनों तक जाता है। कावेरी नदी, जिसका उद्गम पश्चिमी घाटों से होता है, लगभग 800 कि.मी. लंबी है। इसका 320 कि.मी. हिस्सा कर्नाटक में है, 416 कि.मी. तमिलनाडु में तथा 64 कि.मी. इनकी सांझी सीमा बनाता है। 
 
यह विवाद उस समय सुलझा दिया गया था जब मैसूर प्रिंसली स्टेट तथा मद्रास रैजीडैंसी 1924 में एक समझौते पर पहुंचे, जो  50 वर्षों के लिए प्रभावी था। जब यह समाप्त हुआ तो नई समस्याएं उठ खड़ी हुुईं और 1990 में कावेरी ट्रिब्यूनल का गठन किया गया। दोनों पक्षों को सुनने के बाद ट्रिब्यूनल ने 2007 में अंतिम फैसला सुनाते हुए तमिलनाडु को 419 टी.एम.सी. फुट तथा कर्नाटक को 270 टी.एम.सी. फुट पानी देने को कहा। केरल को 30 टी.एम.सी. फुट तथा पुड्डुचेरी को 7 टी.एम.सी. फुट पानी दिया गया। दोनों सरकारों ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। 
 
संघर्षों के बढऩे का एक कारण जनसंख्या का बढऩा है। कृषि के लिए पानी की जरूरत के साथ ही इसकी मांग भी बढ़ गई है, जहां 1991 में लगभग 50 लाख लोग पेयजल जरूरतों के लिए कावेरी पर निर्भर थे, वहीं उनकी संख्या आज बढ़कर 3 करोड़ से भी अधिक हो गई है। 
 
दूसरे, जहां केन्द्र, राज्य तथा ट्रिब्यूनल कोई समाधान ढूंढने का प्रयास कर रहे हैं, दोनों राज्यों के राजनीतिज्ञ जल मुद्दे का इस्तेमाल अपने राजनीतिक हितों के लिए भावनाएं भड़काने हेतु कर रहे हैं। आत्महत्याओं, प्रदर्शनों तथा कर्नाटक बंद के साथ यह एक ज्वलंत राजनीतिक मुद्दा बन गया। 
 
कांग्रेस तथा भाजपा की कर्नाटक में उल्लेखनीय उपस्थिति है, मगर तमिलनाडु में वे नाममात्र के खिलाड़ी हैं। यही कारण है कि इन दोनों दलों का नेतृत्व कर्नाटक की ओर झुकता है। राज्य स्तर पर जल कर्नाटक में शक्तिशाली वोकालिंगा समुदाय के लिए एक राजनीतिक मुद्दा बन गया है। जहां उन्होंने 1924 के समझौते पर कोई आपत्ति नहीं उठाई थी, वहीं 1974  के बाद मांड्या सहित वोकालिंगा पट्टी में विरोध शुरू हो गया, जिसमें गैर वोकाङ्क्षलगा सरकारों को निशाना बनाया गया।
 
2002 में वाजपेयी शासनकाल के दौरान कर्नाटक के मुख्यमंत्री एस.एम. कृष्णा ने बेंगलूर से लेकर अपने गृह निर्वाचन क्षेत्र मांड्या तक 100 कि.मी. की पदयात्रा की। वर्तमान संकट के दौरान सत्ताधारी कांग्रेस बैकफुट पर है। पार्टी का मूल गेम प्लान तमिलनाडु सरकार की लगाम न कस पाने का दोष भाजपा पर लगाने का था। कुछ वर्गों ने पानी छोडऩे का विरोध किया था, मगर कुछ समझदार लोगों ने मुख्यमंत्री सिद्धरमैया को सुुप्रीम कोर्ट से टकराव न लेने की सलाह दी। इसलिए उन्होंने पानी छोड़ दिया जिससे कावेरी पट्टी में विद्रोह भड़क उठा।
 
तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता तथा द्रमुक प्रमुख करुणानिधि कावेरी को लेकर अपनी राजनीति खेल रहे हैं, क्योंकि वे हमेशा से इसके साथ जुड़े रहे हैं। द्रमुक तथा अन्नाद्रमुक दो शक्तिशाली क्षेत्रीय दल हैं जो अपनी लड़ाई अलग-अलग तथा एक-दूसरे के खिलाफ और यहां तक कि केन्द्र के खिलाफ लड़ते हैं। जयललिता 1993 में 80 घंटों की लंबी हड़ताल पर बैठी थीं और इसे तभी समाप्त किया था, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने उन्हें कुछ समाधान का भरोसा दिलाया। यद्यपि वह कर्नाटक से संबंधित हैं, उन्होंने अपना कर्नाटक विरोधी रवैया जारी रखा है। 
 
दूसरे, ट्रिब्यूनल्स ने बेशक अपना निर्णय दे दिया, मगर उन्होंने कोई ऐसा फार्मूला नहीं सुझाया कि कठिनाई के समय कैसे पानी का बंटवारा किया जाएगा। कावेरी जल विवाद  ट्रिब्यूनल  के 2007 के निर्णय अनुसार तमिलनाडु को इस वर्ष जून-अगस्त के दौरान 94 टी.एम.सी. फुट पानी मिलना चाहिए था, मगर वास्तव में केवल 33 टी.एम.सी.  फुट पानी मिला। 
 
तीसरे, कावेरी नदी जल विवाद ट्रिब्यूनल द्वारा कृष्णा गोदावरी की तर्ज पर सुझाया गया कावेरी जल प्रबंधन बोर्ड बनाने में केन्द्र का असफल रहना भी एक अन्य समस्या है। यद्यपि तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे. जयललिता प्रधानमंत्री को पत्र लिख रही हैं मगर कुछ भी नहीं हुआ। 
 
इस संकट के समाधान के लिए बेहतर जल प्रबंधन की जरूरत है। इसका समाधान वित्त मंत्री अरुण जेतली के सुझाव में निहित है, जिसमें उन्होंने  अन्तर्राज्यीय जल विवादों को सुलझाने के लिए एक स्थायी ट्रिब्यूनल बनाने को कहा है। केन्द्र को तुरन्त कावेरी मैनेजमैंट बोर्ड की स्थापना करनी चाहिए। 
 
दूसरे, तमिलनाडु को अधिक जल भंडारण के लिए निर्माण करना चाहिए, जबकि कमी के दौरान कर्नाटक को अधिकतम जल छोडऩा चाहिए। तीसरे, किसानों को वैकल्पिक फसलों के लिए सलाह देनी चाहिए। सबसे बढ़कर दोनों राज्यों को अपनी राजनीति को अलग रखकर पहले लोगों के बारे में सोचना चाहिए। 
 
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