सी.बी.आई. में अभी बहुत ‘सुधार’ होना बाकी

Edited By ,Updated: 14 Jan, 2019 03:18 AM

cbi still much to be improved

सर्वोच्च न्यायालय ने सी.बी.आई. के निदेशक आलोक वर्मा को बड़ी राहत देते हुए 77 दिन बाद पुन: अपने पद पर बिठा दिया। यह भी स्पष्ट कर दिया कि ‘विनीत नारायण फैसले’ के तहत सी.बी.आई. निदेशक का 2 वर्ष का निर्धारित कार्यकाल ‘हाई पावर्ड कमेटी’, जिसमें...

सर्वोच्च न्यायालय ने सी.बी.आई. के निदेशक आलोक वर्मा को बड़ी राहत देते हुए 77 दिन बाद पुन: अपने पद पर बिठा दिया। यह भी स्पष्ट कर दिया कि ‘विनीत नारायण फैसले’ के तहत सी.बी.आई. निदेशक का 2 वर्ष का निर्धारित कार्यकाल ‘हाई पावर्ड कमेटी’, जिसमें प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश होते हैं, की अनुमति के बिना न तो कम किया जा सकता है, न उसके अधिकार छीने जा सकते हैं और न ही उसका तबादला किया जा सकता है। इस तरह मोदी सरकार के विरुद्ध आलोक वर्मा की यह नैतिक विजय थी। पर अपनी आदत से मजबूर आलोक वर्मा ने इस विजय को अपने ही संदेहास्पद आचरण से पराजय में बदल दिया।

सी.बी.आई. मुख्यालय में पदभार ग्रहण करते ही उन्हें अपने अधिकारियों से मिलना-जुलना, चल रही जांचों की प्रगति पूछना और नववर्ष की शुभकामनाएं देने जैसा काम करना चाहिए था। पर उन्होंने किया क्या? उन्होंने उन सभी अधिकारियों के तबादले रद्द कर दिए, जिन्हें 23 अक्तूबर और उसके बाद सरकार ने सी.बी.आई. से हटाया था। जबकि वर्मा को अदालत का स्पष्ट आदेश था कि वह कोई भी नीतिगत फैसला नहीं लेंगे, जब तक कि ‘हाई पावर्ड कमेटी’ उनके खिलाफ लगे भ्रष्टाचार आरोपों की जांच नहीं कर लेती। इस तरह वर्मा ने सर्वोच्च अदालत की अवमानना की। 

राफेल का मामला
अब आता है मामला राफेल का। आलोक वर्मा के बारे में यह हल्ला मच रहा है कि वह राफेल मामले में प्रधानमंत्री को चार्जशीट करने जा रहे थे। इसलिए उन्हें आनन-फानन में हटाया गया। जब तक इस मामले के तथ्य सामने न आएं, तब तक इस पर कुछ भी कहना संभव नहीं है। पर एक बात तो साफ है कि अगर किसी व्यक्ति द्वारा इस तरह का भ्रष्ट आचरण किया जाता है, जो कानून की नजर में अपराध है, तो उसके प्रमाण कभी नष्ट नहीं होते और न ही वह केस हमेशा के लिए दफन किया जा सकता है। इसलिए अगर वास्तव में प्रधानमंत्री मोदी के विरुद्ध राफेल मामले में सी.बी.आई. के पास कोई प्रमाण हैं, तो वे आज नहीं तो कल सामने आ ही जाएंगे।

अस्थाना के खिलाफ मोर्चा
सवाल है कि आलोक वर्मा की अगर ऐसी ही कत्र्तव्यनिष्ठा थी तो उन्होंने राकेश अस्थाना के खिलाफ मोर्चा क्यों खोला? उन्हें चाहिए था कि वह प्रधानमंत्री को ही अपना निशाना बनाते। तब देश इस बात को मानता कि वह निष्पक्षता से राष्ट्रहित में अपना कत्र्तव्य निभा रहे हैं। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। उधर सी.बी.आई. के सह निदेशक राकेश अस्थाना ने एक वर्ष पहले ही भारत के कैबिनेट सचिव को आलोक वर्मा के कुछ भ्रष्ट और अनैतिक आचरणों की सूची दी थी जिसकी जानकारी मिलने के बाद आलोक वर्मा ने राकेश अस्थाना की तरफ अपनी तोप दागनी शुरू कर दी। कुल मिलाकर सारा मामला सुलझने के बजाय और ज्यादा उलझ गया। नतीजतन उन्हें समय से 3 महीने पहले घर बैठना पड़ गया। जहां तक राकेश अस्थाना के विरुद्ध आरोपों की बात है, तो उनकी जांच पूरी ईमानदारी और निष्पक्षता से होनी चाहिए। तभी देश का विश्वास सी.बी.आई. पर टिका रह पाएगा। आज तो सी.बी.आई. की छवि अपने न्यूनतम स्तर पर है। 

ब्लैकमेल का हथियार
चलते-चलते मैं अपनी बात फिर दोहराना चाहता हूं कि सी.बी.आई. के लगातार तीन निदेशकों का भ्रष्ट पाया जाना, यह सिद्ध करता है कि ‘विनीत नारायण फैसले’ से जो चयन प्रक्रिया सर्वोच्च अदालत ने तय की थी, वह सफल नहीं रही। इसलिए इस पर सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ को पुनर्विचार करना चाहिए। दूसरी बात सी.बी.आई. को लगातार केन्द्र सरकार अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को ब्लैकमेल करने का हथियार बनाती रही है। इसलिए अदालत को इस पर विचार करना चाहिए कि कोई भी  केन्द्र सरकार विपक्षी दलों के नेताओं के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामलों में जो भी जांच करना चाहे, वह अपने शासन के प्रथम 4 वर्षों में पूरी कर ले। चुनावी वर्ष में तेजी से कार्रवाई करने के पीछे, जो राजनीतिक द्वेष की भावना होती है, उससे लोकतंत्र कुंठित होता है। इसलिए सी.बी.आई. में अभी बहुत सुधार होना बाकी है।-विनीत नारायण

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