‘सैल फोन टावरों’ से कैंसर जैसी भयावह बीमारियों का खतरा

Edited By ,Updated: 25 Apr, 2016 01:39 AM

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मोबाइल फोन आज हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया है। सिर पर टोकरी रखकर सब्जी बेचने वाले से लेकर मुकेश अम्बानी तक मोबाइल फोन का हर वक्त इस्तेमाल करते हैं।

(विनीत नारायण): मोबाइल फोन आज हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया है। सिर पर टोकरी रखकर सब्जी बेचने वाले से लेकर मुकेश अम्बानी तक मोबाइल फोन का हर वक्त इस्तेमाल करते हैं। पर हम सब इस बात से बेखबर हैं कि मोबाइल फोन तक सूक्ष्म तरंगें भेजने वाले सैलफोन टावर्स किस तरह से हमारी सेहत और जिंदगी से खिलवाड़ कर रहे हैं। 

 
आज कोई भी शहर या गांव नहीं बचा, जहां आपको ये सैलफोन टावर्स खड़े दिखाई न दें। जिनके घरों की छत पर ये टावर लगे हैं, उनसे पड़ोसी ईष्र्या करते हैं कि उन्हें घर बैठे किराए की आमदनी हो रही है। वे यह नहीं जानते कि ऐसे मकान में रहने वालों ने खुद को और अपनी आने वाली पीढिय़ों को आग के हवाले कर दिया है। 
 
ब्रिटिश मैडीकल जर्नल में प्रकाशित एक वैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार  ये सैलफोन टावर्स हमारे दिमागों को बैंगन के भुर्ते की तरह भून रहे हैं। इसका असर आज पूरे  समाज में दिखाई दे रहा है। अब लोगों को नींद कम आती है। ज्यादातर लोग चिड़चिड़े होते जा रहे हैं। बात-बात पर घर, दफ्तर, मोहल्ले और सड़क पर हम हर वक्त लोगों को आपस में छोटी-छोटी बात पर चीखते और चिल्लाते हुए देखते हैं। अब हमारा ध्यान आसानी से किसी एक बात पर केन्द्रित नहीं रह पाता। हमारे दिमाग की उड़ान प्रकाश की गति से भी तेज हो गई है। हम लोगों की भूख घटती जा रही है। पाचनतंत्र कमजोर पड़ता जा रहा है। कुल मिलाकर हमारे जीवन से सुख-चैन छिन गया है। हर इंसान, हर वक्त उद्वेलित रहता है जबकि 20 वर्ष पहले ऐसा न था। 
 
जिन्हें 1996 से पहले का दौर याद है, वेे इस बात की ताकीद करेंगे कि पिछले 20 सालों में हमारा समाज बहुत बेचैन हो गया है। ङ्क्षहसा, बलात्कार, अपराध, आत्महत्याएं और मनोवैज्ञानिक रोगों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है। अभी तो यह टे्रलर है, पूरी फिल्म तो अभी बाकी है। सैलफोन के असली दुष्परिणाम तो अगले 10 सालों में देखने को मिलेंगे जब हर ओर तबाही का मंजर होगा। लोग अस्पतालों की कतारों में खड़े होंगे। लाइलाज बीमारियों को लेकर धक्के खा रहे होंगे पर भविष्य की किसे ङ्क्षचता है। हम तो उस कालीदास की तरह हैं कि जिस डाली पर बैठे हैं, उसे ही काटने में जुटे हैं। 
 
इस विषय में शोध करने वाले एक वैज्ञानिक प्रोफैसर नवारो का कहना है कि अगर हम किसी सैलफोन टावर के 500 मीटर के दायरे में रहते हैं, तो हमारे दिमाग व शरीर पर सारे दुष्परिणाम असर करने लगते हैं। अगर हम 2 सैलफोन टावर्स के बीच में रहते हैं, तब तो हमारी पूरी बर्बादी को कोई रोक नहीं सकता। तकलीफ की बात यह है कि हमारी सरकारों ने ई.एम.एफ. प्रदूषण के जो मानक निर्धारित किए हैं वे बहुत लचर हैं। चिकित्सकों का कहना है कि इन मानकों के बाद लगाए गए सैलफोन टावर्स से जो इलैक्ट्रोमैग्नैटिक हाईपर सैन्सिटीविटी पैदा होती है, उसके प्रभावों पर हमारी सरकार की नजर नहीं है। 10 में से 8 लोग इसके कारण सामान्य व्यवहार खोते जा रहे हैं और उनमेंं कैंसर के लक्षण स्पष्ट दिखने लगे हैं। इसके बावजूद भी सरकार कुछ कर नहीं रही। 
 
उसे ङ्क्षचता इस बात की है कि अगर इन सैलफोन टावर्स को आबादी से दूर लगाया जाएगा तो देश की संचार व्यवस्था ठप्प पड़ जाएगी। ऐसा शायद हम लोग भी नहीं चाहेंगे क्योंकि हमें सैलफोन्स की इतनी लत लग गई है कि हम भोजन और भजन के बिना रह सकते हैं, पर सैलफोन के बिना नहीं। 
 
आज अमरीकी समाज में जो बेचैनी, निराशा, आत्महत्या की प्रवृत्ति और ङ्क्षहसा की बढ़ौतरी हुई है, उसके पीछे एकमात्र कारण सैलफोन टावर्स के बीच चलने वाली इलैक्ट्रोमैग्नैटिक तरंगें हैं जो हरेक अमरीकी के दिमाग और शरीर को जकड़ चुकी हैं।  इसीलिए आज अमरीका में कैंसर जैसी भयावह बीमारी तेजी से फैल रही है। जिस सैलफोन ने अमरीकी समाज में संवाद को सुगम बनाया था, वहीं सैलफोन अब अमरीकी समाज के पतन का कारण बन रहा है। भारत इस स्थिति से बहुत दूर नहीं है। भारत में सैलफोन्स और सैलफोन टावर्स की रिकार्ड गति से वृद्धि हो रही है। अब भारत का शायद ही कोई भू-भाग हो जो सैलफोन टावर्स के प्रभाव क्षेत्र से अछूता हो। 
 
20 वर्ष पहले तक हम भारतवासी व्यापार भी करते थे, संवाद भी करते थे, समाचारों का आदान-प्रदान भी करते थे और अपना मनोरंजन भी करते थे पर बिना सैलफोन्स के, तब जीवन सादा, सुखी और शांत था। यह सही है कि आज सैकेंडों में अपना संवाद, आवाज या फोटो दुनिया के किसी भी हिस्से में भेज सकते हैं। पर क्या इससे हमारे स्वास्थ्य और आनंद में वृद्घि हुई है या हम पहले से ज्यादा बेचैन और बीमार हुए हैं? शहरों को छोड़ो, अब तो हिमालय की चोटियों पर भी यह शांति नहीं रही। 
 
आपने टी.वी. पर 4 जी का विज्ञापन देखा होगा, किस तरह हंसते, खिलखिलाते पहाड़ के सुरम्य, प्राकृतिक जीवन में सैलफोन टावर्स ने विष घोल दिया है। जरूरत इस बात की है कि हम सब एक मिनट ठहरें और सोचें कि क्या सैलफोन के बिना हम जी सकते हैं? 
 
अगर हमें लगे कि अब ऐसा करना संभव नहीं है तो हम कम से कम इतना जरूर करें कि अपने जीवन में सैलफोन के इस्तेमाल को जितना संभव हो सके, कम से कम करते चले जाएं और हां, अपने घर के आस-पास लगे सैलफोन टावर्स के दुष्परिणामों के प्रति समाज और प्रशासन को जागरूक बनाएं और कोशिश करके इन टावर्स को आबादी क्षेत्र से दूर पहुंचाएं। गूगल सर्च में जाकर हम सैलफोन टावर्स के दुष्परिणामों पर और भी ज्यादा जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। अक्लमंदी इस बात में है कि हम सब मरणासन्न होने से पहले अपने वातावरण को सुधारने की कोशिश करें। यह न सोचें कि अकेला चना क्या भाड़ फोड़ेगा। 
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