कश्मीर में अमित शाह के सामने ‘चुनौतियां’

Edited By ,Updated: 06 Jul, 2019 03:43 AM

challenges  in front of amit shah in kashmir

केन्द्रीय गृह मंत्री तथा भाजपा अध्यक्ष के तौर पर अपनी वाहवाही के बावजूद क्या अमित शाह एक ही पल में जम्मू-कश्मीर में इतिहास की प्रक्रिया को पलट सकते हैं? यह सब इतना आसान नहीं है। कश्मीर में जो चीज मायने रखती है वह है कश्मीरियों को उनके ‘मिशन कश्मीर’...

केन्द्रीय गृह मंत्री तथा भाजपा अध्यक्ष के तौर पर अपनी वाहवाही के बावजूद क्या अमित शाह एक ही पल में जम्मू-कश्मीर में इतिहास की प्रक्रिया को पलट सकते हैं? यह सब इतना आसान नहीं है। कश्मीर में जो चीज मायने रखती है वह है कश्मीरियों को उनके ‘मिशन कश्मीर’ में साथ लेकर चलने की चुनौती। मगर अमित शाह के साथ समस्या यह है कि वह जल्दी में हैं और जमीनी हकीकतों तथा घाटी में लोगों के अलग-अलग तरह के समूहों को सही तरह से न समझते हुए आम तौर पर एक ही तरह की मानसिकता अपनाए हुए हैं। 

पी.डी.पी.-भाजपा गठबंधन इसलिए टूट गया क्योंकि भाजपा नेताओं को आधी-अधूरी अवधारणाओं के साथ कश्मीर को समझने का कार्य सौंपा गया था न कि कड़ी हकीकतों तथा प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष लोगों की चालों को जो घाटी में अशांति फैलाते हैं। दरअसल दशकों से राज्य तथा केन्द्र के नेताओं, (शेख अब्दुल्ला तथा जवाहर लाल नेहरू सहित) में अविभाजित जम्मू-कश्मीर को लेकर एकीकृत दूरदृष्टि का अभाव था, जिसकी ऐतिहासिक जड़ें भारत के वैदिक काल तक जाती हैं।

अन्य मतों के सम्मान का इतिहास
पीछे देखते हुए मैं यह अवश्य कहूंगा कि घाटी में अधिकतर मुसलमानों का अन्य मतों का सम्मान करने का इतिहास रहा है। ऋषियों के साथ सूफीवाद की समृद्ध परम्परा ने जमीनी स्तर पर एक स्वस्थ तथा बहुस्तरीय धार्मिक एकरूपता उपलब्ध करवाई, यद्यपि लम्बे समय से कुछ मुसलमान नेता इस रुझान के खिलाफ सक्रिय रूप से काम करते रहे हैं। घाटी में द्वेष की जो भावना हम देख रहे हैं अब वह वंचन के अर्थशास्त्र तथा ‘स्वायत्तता’ व ‘स्वतंत्रता’ से इंकार के साथ मिश्रित हो गई है। 

कोई हैरानी की बात नहीं कि घाटी में अलगाववादी तथा कट्टरवादी अतीत में धर्मांतरण करने वालों को मुख्यधारा से दूर करने का जी-तोड़ प्रयास कर रहे हैं। यह प्रक्रिया बहुत दशकों से चल रही है। कट्टरपंथ के विकास की पृष्ठभूमि में हमें कश्मीरी पंडितों के भाग्य पर नजर डालने की जरूरत है। तो क्या, यदि पंडित अपने कश्मीरी पूर्वजों के लिए अपनी महान उपलब्धियों की गर्व से बात करते हैं? यह धर्मांतरितों के लिए एक अभिशाप है जो कट्टर इस्लामिक दर्शन तथा पैन-इस्लामिक संस्कृति की ओर अधिक से अधिक जुड़ते जा रहे हैं। इस्लामिक छद्म युद्ध के पाकिस्तानी कारक के कारण चीजें बद से बदतर हो गई हैं। 

केन्द्र की प्राथमिकता 
आज की आतंकवाद तथा वार्ता परिस्थितियों की असहज व्यवस्था के बीच जाहिरा तौर पर अमित शाह ने कश्मीर समस्या से निपटने के लिए अपना खुद का एजैंडा बना लिया। हालांकि ऐसा नहीं लगता कि उन्होंने घाटी में शांति के लिए अपनी पटकथा को अंतिम रूप दे दिया है। फिलहाल केन्द्र की प्राथमिकता आतंकवादियों को विभिन्न माध्यमों से समाप्त करके तथा विदेशी स्रोतों से धन के बहाव को रोक कर ‘आतंकवाद की रीढ़ को तोडऩा है।’ इसलिए राज्य को विधानसभा चुनावों के लिए कम से कम कुछ और महीनों तक इंतजार करना पड़ेगा। 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कई अवसरों पर यह स्पष्ट कर चुके हैं कि ‘आतंकवाद तथा वार्ता साथ-साथ नहीं चल सकते।’ कश्मीर पर केन्द्र के एजैंडे में यह शीर्ष पर है। पाकिस्तान के साथ संचार की सभी प्रणालियों को तोडऩा इसी वृहद नीति ढांचे के अंतर्गत देखा जाना चाहिए। जम्मू-कश्मीर के मुख्य सचिव बी.वी.आर. सुब्रामण्यम ने भी अमित शाह के श्रीनगर दौरे के दौरान राज्य में सुरक्षा की समीक्षा करते हुए यह स्पष्ट किया था। मैं आतंक तथा वार्ता के साथ-साथ न चलने की आधिकारिक सोच से बहुत हद तक सहमत हूं। फिर भी मेरा विचार है कि विभिन्न हितों वाले समूहों के साथ वार्ता के लिए सही अवसर हेतु वार्ता के दरवाजे कुछ खुले रखने चाहिएं। 

नि:संदेह अलगाववादियों व कट्टरपंथियों के साथ वार्ता की कोई सम्भावना नहीं है। भारत विरोधी गतिविधियों के लिए उन्हें उनका उपयुक्त स्थान दिखा दिया जाना चाहिए। मगर मीरवायज उमर फारूक जैसे नरमपंथी हुर्रियत नेताओं का क्या हो? वे एक महीने से भी अधिक समय से वार्ता पर जोर दे रहे हैं। उनका कहना है कि यदि केन्द्र कश्मीर पर ‘अर्थपूर्ण वार्ता’ की शुरूआत करता है तो हुर्रियत ‘सकारात्मक प्रतिक्रिया’ देगी। ऐसी ‘अर्थपूर्ण वार्ता’ की प्रकृति क्या होगी, स्पष्ट नहीं है। फिलहाल केन्द्र की दिलचस्पी अलगाववादियों तथा आतंकवादियों के खिलाफ धावा जारी रखने में है। इसलिए वर्तमान गतिरोध कश्मीर में तब तक जारी रहेगा जब तक नई दिल्ली यह महसूस नहीं करती कि घाटी में राजनीति का उसका ‘ब्रांड’ लागू करने के लिए स्थितियां अनुकूल हैं। यह एक लम्बी प्रक्रिया दिखाई देती है। महत्वपूर्ण प्रश्र यह है कि क्या हम बिना लाग-लपेट के एक लोकमित्र कश्मीर नीति का विकास सुनिश्चित कर सकते हैं? यह केन्द्रीय गृह मंत्री पर निर्भर करता है कि वह जम्मू-कश्मीर को एक नए परिप्रेक्ष्य में देखें, न कि चुनिंदा नजरिए से। 

दीर्घकालिक रणनीति
‘द वायर’ ने पहचान छिपाने की शर्त पर एक समीक्षक के हवाले से लिखा है कि भाजपा तथा केन्द्र सरकार ‘घाटी में अपने खुद के दावेदार बनाना चाहती हैं’ और उन्होंने न केवल अलगाववादियों बल्कि उन राजनीतिज्ञों को कमजोर करने के लिए अपनी दीर्घकालिक रणनीति पर पहले ही काम शुरू कर दिया है जो विभिन्न निहित हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। निश्चित तौर पर अमित शाह अत्यंत चतुर हैं। वह अलग व्यवस्थाओं में अलग तरह के लोगों के सामने अलग तरह की भाषा बोल सकते हैं। 

सोमवार (एक जुलाई) को राज्यसभा में उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी का मंत्र ‘जम्हूरियत, कश्मीरियत तथा इंसानियत’ दोहराया और कहा कि मोदी सरकार राज्य के सर्वांगीण विकास के लिए कार्य कर रही है। उन्होंने घाटी के युवाओं से अपील भी की कि वे उन लोगों द्वारा ‘गुमराह न हों जो उन्हें पत्थर फैंकने के लिए कहते हैं।’ यह करने से कहना आसान है। सरकार की शीर्ष प्राथमिकता राज्य के आर्थिक पुनरुत्थान के लिए एक रूपरेखा पर कार्य करने की होनी चाहिए, विशेषकर युवाओं के लिए नौकरियां पैदा करने को ध्यान में रखते हुए। राज्य के सर्वांगीण विकास के लिए एक नए एजैंडे तथा सुधारों की जरूरत होगी।- हरि जयसिंह

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