भारत के विविधतावाद के सामने चुनौतियां

Edited By Pardeep,Updated: 30 May, 2018 04:16 AM

challenges before indias diversity

केन्द्र में सरकार बदलने के लिए प्रार्थना करने की दिल्ली के आर्कबिशप अनिल जोसेफ थामस कुओटो की अपनी ईसाई बिरादरी से की गई अपील कितनी भी उचित हो, वह राजनीति के साथ धर्म को मिलाने की भयंकर गलती के दोषी हैं। यह दलील देते हुए कि भारत एक अशांत राजनीतिक...

केन्द्र में सरकार बदलने के लिए प्रार्थना करने की दिल्ली के आर्कबिशप अनिल जोसेफ थामस कुओटो की अपनी ईसाई बिरादरी से की गई अपील कितनी भी उचित हो, वह राजनीति के साथ धर्म को मिलाने की भयंकर गलती के दोषी हैं। यह दलील देते हुए कि भारत एक अशांत राजनीतिक भविष्य का सामना कर रहा है जिससे देश की लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के लिए खतरा है, पादरी वाले एक पत्र में, उन्होंने अपने साथी पादरियों से 2019 के चुनावों में परिवर्तन के लिए प्रार्थना और उपवास के लिए कहा है। 

आज, जब भारत एक राष्ट्र के रूप में फासीवादी और तंग-नजर के संगठनों के हमलोंं का सामना कर रहा है, धर्मगुरुओं के लिए लाजिमी है कि वे इसके खिलाफ  बोलें। कुछ लोग शायद इसे भारत के स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं मानें। अगर अलग-अलग संप्रदायों के धर्मगुरु राजनीतिक क्षेत्र में कूद पडें़ तो वे राजनीति से दूर नहीं रह जाएंगे, जो उन्हें रहना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में मुख्य आलोचना यही होती है कि वह हिंदू अभिमान का बिल्ला अपनी बांह पर लगाए रहते हैं। उन्होंने लोगों को उस हद तक बांट दिया है, जितना कभी नहीं बांटा गया था। 

यह इस हद तक किया गया है कि बहुत से ईसाई नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी पर अल्पसंख्यक धार्मिक तथा अन्य समूहों को नजरअंदाज कर हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए काम कर रहे गुटों की चालाकी से मदद करने का आरोप लगाया है। उन्होंने आरोप लगाया कि मोदी सरकार के आने के बाद ईसाइयों पर हमले बढ़ गए हैं। भारत में ईसाइयों पर अत्याचार का ब्यौरा रखने तथा उन्हें मदद करने वाले चर्चों के एक फोरम के मुताबिक, 2016 के 348 हमलों के मुकाबले 2017 में ईसाइयों के खिलाफ 736 हमलों के मामले दर्ज किए गए। ‘‘हम लोग एक अशांत राजनीतिक माहौल देख रहे हैं जो संविधान में दिए गए लोकतांत्रिक सिद्धांतों और देश के सैकुलर ताने-बाने के लिए खतरा पैदा कर रहा है। हम देश और इसके नेताओं के लिए प्रार्थना का पवित्र कार्य करते रहे हैं, लेकिन खासकर उस समय ज्यादा, जब आम लोकसभा चुनाव नजदीक आ जाएं।’’ 

पादरी की चिट्ठी में राष्ट्र की सुरक्षा के लिए रची गई एक विशेष प्रार्थना दी गई है। पादरियों की बस्ती, धार्मिक आवासों तथा कैथोलिक संस्थाओं से हर शुक्रवार को धार्मिक उत्सव मनाने तथा उसमें यह प्रार्थना गाए जाने के लिए कहा गया है। दिल्ली आर्कबिशप के कदम का भारत के कैथोलिक और ईसाई नेताओं की ओर से स्वागत हुआ है। शायद, दूसरे अल्पसंख्यक इस मौके का इस्तेमाल अपनी शिकायतों को व्यक्त करने के लिए कर सकते हैं। खासकर, मुस्लिम नेता भारत के संविधान की साख को चुनौती दे सकते हैं। लोकसभा के सदस्य, असदुद्दीन ओवैसी पहले ही देश के बंटवारे से पहले के समय के मुस्लिम लीग के नेताओं की तरह बोलते हैं। उन्हें शायद ऐसा लगता है कि उनकी संकीर्ण राजनीति उन्हें देश भर में महत्व दिलाएगी और हिंदुओं तथा मुसलमानों के बीच फिर से टकराव पैदा करेगी। 

हाल में, अलीगढ़ के अपने दौरे में मैंने पाया कि मुस्लिम यूनिवर्सिटी भी इस काल्पनिक दुनिया में रहती है। उन्होंने यह नहीं समझा है कि भारत के अलावा कोई उम्माह (मुसलमानों का दुनिया में फैला समूह) नहीं है। कुछ साल पहले, पारंपरिक समाधानों को फिर से देखने और उन पर सोचने के लिए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवॢसटी में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था। इसका फोकस इस्लामिक एकता के लिए भविष्य में उठाए जाने वाले कदमों का नक्शा बनाना था। दो दिनों के सम्मेलन से एक दिलचस्प सारांश निकला कि उस समय मुुसलमान अपने को किस रूप में देखते हैं और भविष्य में वे अपने को किस रूप में देखा जाना पसंद करेंगे। मिस्र का एक वक्ता चाहता था कि पूरी दुनिया के पंथ एक छतरी के नीचे आएं और दुनिया के सामने एक एकीकृत इस्लाम पेश करें। 

हिंदू अंधगौरव का जवाब मुस्लिम अंधगौरव या यूं कहिए कि ईसाई अंधगौरव नहीं है। प्रार्थना करनी चाहिए कि केन्द्र में बदलाव की आर्कबिशप की कोशिश किसी खास समुदाय से नहीं, हिंदुओं के साथ उनके रिश्ते पर निर्भर रहे जो भारत की आबादी के 80 प्रतिशत हैं। उन्होंने देश को इस पर बहस करने का मौका दिया है कि सैकुलरिज्म, जो आजादी की लड़ाई का चरित्र था, बने रहने के लक्ष्य से भारत कितना पीछे हटा है। आर्कबिशप को ऐसे आदमी के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए जिसने साम्प्रदायिक विभाजन की आग फिर से जला दी है। यह उनका उद्देश्य भी नहीं है। 

यह वैसा ही परिदृश्य है जैसा हाल में हुए अमरीकी चुनाव के पहले पोप की मैक्सिको यात्रा के समय था। अपने दौरे के दौरान, पोप ने पहली बार ऐसी कैथोलिक धर्मसभा की जो दो देशों की सीमाओं के दोनों ओर फैली हुई थी। करीब दो लाख लोग मैक्सिको की सीमा और 50 हजार के आसपास संयुक्त राज्य की सीमा के भीतर से इसे देख रहे थे। इस यात्रा ने पोप के दौरे को सबसे प्रतिष्ठित चित्र दिया। यह खुले रूप से राजनीतिक था, अमरीकी राजनीति पर सीधा असर डालने वाला।

वास्तव में, संयुक्त राज्य अमरीका अपने अगले राष्ट्रपति को चुनने की प्रक्रिया में लगा था। मुझे ध्यान आता है कि प्रदेश में बसने का मुद्दा बहस के ठीक केन्द्र में था। अमरीका-मैक्सिको की सीमा पर प्रदेशवासियों के साथ प्रार्थना के जरिए अमरीकी चुनाव पर असर डालने को लेकर जो संदेह था, उसे पोप ने अपने स्थान पर लौटने के बाद खत्म कर दिया। राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रम्प ने प्रदेशवास पर अपनी नीति के बारे में साफ कहा था कि ‘‘वह अगर चुने गए तो सीमा पर 2500 किलोमीटर लंबी एक दीवार बनाएंगे।’’ वह 1 करोड़ 10 लाख अवैध प्रदेशवास करने वालों को वापस भेजना चाहते थे। पोप की टिप्पणी भी उतनी ही तीखी थी। उन्होंने जवाब दिया, ‘‘ जो आदमी सिर्फ दीवार खड़ी करने के बारे में सोचे, पुल बनाने के बारे में नहीं, वह ईसाई नहीं है।’’ 

लेकिन पोप ने बाद में कहा कि वह यह सलाह नहीं देंगे कि लोग वोट करें या नहीं करें। ‘‘मैं इसमें शामिल नहीं होने जा रहा हूं। मैं सिर्फ इतना ही कहूंगा कि यह आदमी (ट्रम्प) ईसाई नहीं है, अगर इसने इस तरह की बातें कही हैं लेकिन पोप ने यह साफ कर दिया कि वह ट्रम्प तथा उसकी नीतियों के बारे में सोचते थे। उन्होंने साफ तौर पर राष्ट्रपति के चुनावों को प्रभावित करने का प्रयास किया। वास्तव में, पोप ने अपने को ‘‘राजनीतिक पशु’’ बताया था। उन्होंने 2013 में यह भी कहा था कि एक अच्छा कैथोलिक राजनीति में दखल देता है। वह इसे अपने धार्मिक कत्र्तव्य के रूप में देखते हैं। शायद, दिल्ली के आर्कबिशप ने पोप से प्रेरणा ली है लेकिन दुर्भाग्य से, भारत को अपनी सैकुलर शासन व्यवस्था में इसे मजबूत करने की जरूरत नहीं है।-कुलदीप नैय्यर

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