Edited By ,Updated: 15 Mar, 2021 03:13 AM
हरिद्वार में कुंभ शुरू हो चुका है। वृंदावन में कुंभ पूर्व वैष्णव बैठक पूरा महीना चली पर आज कुंभ का स्वरूप कितना बदल गया है इस पर मंथन करने की जरूरत है। भगवत गीता में भगवान श्री कृृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि उनकी शरण में 4 तरह के लोग आते हैं, आर्त,...
हरिद्वार में कुंभ शुरू हो चुका है। वृंदावन में कुंभ पूर्व वैष्णव बैठक पूरा महीना चली पर आज कुंभ का स्वरूप कितना बदल गया है इस पर मंथन करने की जरूरत है। भगवत गीता में भगवान श्री कृृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि उनकी शरण में 4 तरह के लोग आते हैं, आर्त, अर्थारतु, जिज्ञासु व ज्ञानी। यह सिद्धांत हर कुंभ में लागू होता है। एक तरफ उन लोगों का समूह उमड़ता है, जो अपने जीवन में कुछ भौतिक उपलब्धि हासिल करना चाहते हैं। कुंभ में आकर उन्हें लगता है कि उनके पुण्य की मात्रा इतनी बढ़ जाएगी कि उनके कष्ट स्वत: दूर हो जाएंगे।
दूसरी भीड़ उन साधन संपन्न सेठ और व्यापारियों की होती है, जो अपने व्यापार की वृद्धि की कामना लेकर कुंभ में विराजे हुए संतों के अखाड़ों में नतमस्तक होते हैं। तीसरी भीड़ उन लोगों की होती है, जो वहां इस उद्देश्य से आते हैं कि उन्हें संतों का सान्निध्य मिले और वे भगवान के विषय में कुछ जानें और अंतिम श्रेणी में वे लोग होते हैं, जिन्हें संसार से कुछ खास लेना-देना नहीं। उनको तो धुन लगी है, केवल भगवत् प्राप्ति की। स्पष्ट है कि चारों श्रेणियों के लोगों को अपनी मनोकामना पूर्ण होती दिखाई देती होगी, तभी तो वे एेसे हर कुंभ या उत्सव में कष्ट उठाकर भी शामिल होते हैं।
पर जो बात आजकल होने वाले कुंभ के आयोजनों में दिखाई देती है उससे तो यह लगता है कि हमारी सनातन परम्परा के सशक्त स्तंभ कुंभ अपने मूल उद्देश्य से भटक गए हैं। पहले कुंभ एक अवसर होता था, जहां सारे देश के संत-महात्मा और विद्वतजन बैठकर उन प्रश्नों के समाधान खोजते थे, जिनमें प्रांतीय स्तर पर हिंदू समाज उद्वेलित रहता था। कुंभ से जो समाधान मिलता था, वह सारा देश अपना लेता था।
अब शायद एेसा कुछ नहीं होता और अगर होता भी है, तो उसका स्वरूप आध्यात्मिक कम और राजनीतिक ज्यादा होता है। यही बात अखाड़ों पर भी लागू होती है। शुद्ध मन से कुंभ आने वाले संत अपनी साधना में जुटे रहते हैं, उनके अखाड़ों में वैभव की छाया भी नहीं रहती। पर दूसरी तरफ इतने विशाल और वैभवशाली अखाड़े बनते हैं कि पांच सितारा होटल के निर्माता भी शरमा जाएं। इस प्रकार की आर्थिक असमानता कुंभ के सामाजिक ताने-बाने को असंतुलित कर देती है, जिसकी टीस कई संतों के मन में देखी जाती है।
कलियुग का प्रभाव कहकर हम भले ही अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लें, पर हकीकत यह है कि अपने सभी तीज-त्यौहारों का स्वरूप अब व्यावसायिक होता जा रहा है। कुंभ में इसका प्रभाव व्यापक रूप से देखने को मिलता है। यह स्वस्थ लक्षण नहीं है। इस पर सरकार को या धर्माचार्यों को विचार करके पूरे कुंभ का स्वरूप आध्यात्मिक बनाना चाहिए। अन्यथा कुंभ और शहरों में लगने वाली आम नुमाइशों में कोई भेद नहीं रह जाएगा। जैसे नुमाइशों में तरह-तरह के विशाल बिजली के झूले, अनेक तरह के उत्पादों की दुकानें और दूसरे मनोरंजन के साधन उपलब्ध होते हैं वही सब अब कुंभ में भी होने लगा है। इसके कारण कुंभ में आने वाली भीड़ का अधिकतर हिस्सा वहां केवल मौज मस्ती और चाट पकौड़ी के लिए आता है। सरकारें कह सकती हैं कि जनता का मनोरंजन करना कोई अपराध नहीं है।
पर सोचने वाली बात यह है कि आज मनोरंजन के संसाधन इतनी भारी मात्रा में हर जगह उपलब्ध हैं कि जनता के पास काफी विकल्प मौजूद हैं। इसलिए इस मानसिकता से बचना चाहिए। कुंभ में इन सबके प्रवेश से उसका उद्देश्य और आध्यात्मिक स्वरूप दोनों नष्ट हो रहे हैं। इसके साथ ही एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि पहले कुंभ में सरकार के कुछ मंत्रालयों के प्रचार के लिए कुछ पंडाल लगते थे। जैसे स्वास्थ्य मंत्रालय, कृषि मंत्रालय या सूचना विभाग-वहां तक तो ठीक था, पर अब तो हर कुंभ में हर तीसरा होॄडग सरकार की योजनाआें को प्रचारित करने वाला लगाया जाने लगा है। जिसमें सत्तारूढ़ दल के नेताआें के बड़े-बड़े चित्र भी लगे होते हैं।
जरा सोचिए जिन चेहरों को रात दिन टी.वी. पर देखते हैं उन्हें ही अगर कुंभ में आकर भी देखना पड़े तो इसका मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा? वहां तो संतों की वाणी, वैदिक साहित्य, भारत के तीर्थ स्थलों और विभिन्न सम्प्रदायों की सूचना देने वाले होॄडग होने चाहिएं जिससे वहां आने वालों की आध्यात्मिक चेतना बढ़े। राजनीतिक होर्डिंग तो कुंभ को चुनावी माहौल में रंग देते हैं। इसलिए सरकारों और नेताआें को इस लोभ से बचना चाहिए। यह सही है कि हम सब इतने सुविधाभोगी हो गए हैं कि सरलता का जीवन अब हमसे कोसों दूर हो गया है। जबकि तीर्थ जाना या कुंभ में जाना तपश्चर्या का एक भाग होना चाहिए, तभी हमारी आध्यात्मिकता, चेतना और सांस्कृतिक विरासत सुरक्षित रह पाएगी। हमेशा से कुंभ के बारे में अंतिम निर्णय अखाड़ा परिषद् का रहता है। यह बात सही है कि सरकारें हजारों करोड़ रुपया कुंभ के आयोजन में खर्च करती हैं, पर वह तो उनका कत्र्तव्य है।
यही बात व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को भी सोचनी चाहिए कि हर चीज बिकाऊ माल नहीं होती। कम से कम धर्म का क्षेत्र तो व्यापार से अलग रखें। कुंभ ही क्या, आज तो हर तीर्थस्थल पर भवन निर्माताआें से लेकर अनेक उपभोक्ता सामग्री बेचने वालों ने कब्जा कर लिया है। जो अपने विशाल होॄडग लगाकर उस स्थान की गरिमा को ही समाप्त कर देते हैं। इसका विरोध समाज की तरफ से भी होना चाहिए। तीर्थस्थलों व कुंभ-स्थलों पर जो भी विज्ञापन हों, वह धर्म से जुड़े हों। उसके प्रायोजक के रूप में कोई कंपनी अपना नाम भले ही दे दे, पर अपने उत्पादनों के प्रचार का काम बिल्कुल नहीं करना चाहिए। इससे आने वाले श्रद्धालुआें का मन भटकता है और उनके आने का उद्देश्य कमजोर पड़ता है।-विनीत नारायण