चीन हमारा न हुआ, न आगे कभी होगा

Edited By ,Updated: 02 Jul, 2020 04:17 AM

china is neither ours nor will it ever be

चीन ने भारत को धोखा दिया, कोई चिंता नहीं। चीन ने विश्वासघात किया, कोई नई बात नहीं। ‘हिंदी चीनी भाई-भाई’ के नारे को चीन ने पैरों तले रौंद दिया, कोई परवाह ही नहीं। गलवान घाटी में चीन ने हमारे 20 सैनिकों को शहीद कर दिया, इस पर देशवासी चिंतित न हों। चीन...

चीन ने भारत को धोखा दिया, कोई चिंता नहीं। चीन ने विश्वासघात किया, कोई नई बात नहीं। ‘हिंदी चीनी भाई-भाई’ के नारे को चीन ने पैरों तले रौंद दिया, कोई परवाह ही नहीं। गलवान घाटी में चीन ने हमारे 20 सैनिकों को शहीद कर दिया, इस पर देशवासी चिंतित न हों। चीन तो ऐसा करता ही रहेगा। 1950 में जब चीन ने तिब्बत जैसे देश का अस्तित्व मिटा दिया उसी दिन से भारत की सीमाएं असुरक्षित हो गईं। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से लेकर नरेन्द्र मोदी तक जितने भी प्रधानमंत्री हुए उन्होंने चीन के प्रति तुष्टीकरण की नीति अपनाई परन्तु चीन हमारा न हुआ, न आगे कभी भारत का होगा। 

भारत ने इसी तुष्टीकरण की नीति अधीन विश्व में चीन के हक में विश्व जनमत तैयार कर उसे संयुक्त राष्ट्र संघ का स्थायी सदस्य बनाया पर उसी संयुक्त राष्ट्र संघ में चीन ने कभी भारत का समर्थन नहीं किया। ‘पंचशील सिद्धांत’ को भारत ने तो माना परन्तु चीन ने उस सिद्धांत को कभी नहीं माना। पंडित नेहरू की तो चीन से अगाध मित्रता थी परन्तु 1962 में चीन के आकस्मिक आक्रमण ने नेहरू जी को वह सदमा दिया कि बेचारे पंडित नेहरू 1964 में इस सदमे की ताव न सहते हुए चल बसे। 

चेन्नई में मोदी साहिब ने चीन के राष्ट्रपति का ऐसा भव्य स्वागत किया कि दुनिया हत्प्रभ रह गई। विरोधियों ने तो चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और नरेन्द्र मोदी के झूले-झूलते चित्र को खूब प्रचारित किया। पर परिणाम चीन द्वारा गलवान घाटी, ग्यास्तो झील और दौलत बेग ओल्डी हवाई पट्टी पर अपना आधिपत्य जितला दिया। भारत के बीसियों सैनिकों को शहीद कर दिया और कुछ को जख्मी कर दिया।

उपरोक्त तमाम चीजों का मैं बुरा नहीं मानता क्योंकि चीन एक कम्युनिस्ट और विस्तारवादी देश है। चीन संवेदनहीन और यांत्रिक देश है। उसे न तो मैकमोहन लाइन की चिंता है न एक्चुअल लाइन ऑफ कंट्रोल की परवाह है। चीन की फौजें जहां पहुंच गईं वहीं उसकी सीमा-रेखा बन गई। मेरी चिंता भारत की ‘विदेश नीति’ की असफलता की चिंता है। चीन की ‘विदेश नीति’ तो देखिए वह नेपाल, पाकिस्तान और प्यारे से देश भूटान को अपने हक और भारत के विरुद्ध प्रयोग कर गया। 

नेपाल जिसके साथ भारत के ‘रोटी-बेटी’ के संबंध हैं। नेपाल की जिस ‘गोरखा रैजीमैंट’ ने हमेशा भारत से वफादारी निभाई है वह नेपाल हमारे विरुद्ध हो गया। भूटान जिस देश का अस्तित्व ही भारत के साथ जुड़ा है वह हमारे पानी को रोकने की धमकी देने लगा है? नेपाल नरेश महाराजाधिराज  स्वर्गीय महाराज वीरेन्द्र सिंह भारत की कसम नहीं खाते थे।उनके उत्तराधिकारी महाराज ज्ञानेन्द्र भारत से अपने व्यापारिक संबंध  बनाए हुए हैं। सदियों पुराने हमारे सांस्कृतिक, राजनीतिक, पारिवारिक, धार्मिक और सामाजिक संबंध हों वह नेपाल संसद में भारत विरुद्ध हमारे क्षेत्र को अपना दिशा-नक्शा पास करवा गया तो सोचना पड़ेगा भारत ‘विदेश नीति’ में कहां मात खा गया? 

‘विदेश नीति’ है क्या ?
‘विदेश नीति’ वह मंत्र है जिससे पड़ोसी देशों को अपने हक से साधा जाता है। मित्र दुश्मन न बनें और शत्रु भयभीत रहे। ‘विदेश नीति’ का पहला मूलमंत्र है कि अन्य देशों का कार्य-व्यवहार अपने लिए हितकर हो। भारत एक विस्तृत देश है। इसमें राजनीति, आर्थिक, भाषाई, क्षेत्रीय, प्रांतीय, धार्मिक और सांस्कृतिक विभिन्नताएं हैं। इसमें साम्यवादी भी हैं और दक्षिणपंथी भी काम करते हैं। आंतरिक तौर पर इन सबमें संतुलन बनाए रखना और दूसरे देशों को अपने हित में करना यही ‘देसी’, ‘विदेश नीति’ है। 

एक समय था हम नए-नए स्वतंत्र देश  के रूप में उभरे थे। तब पंडित नेहरू ने ‘गुट निरपेेक्षता’ को अपनी ‘विदेश नीति’ बनाया।  उस समय विश्व में दो शक्ति केंद्र थे ‘सोवियत ब्लाक’ और ‘एंग्लो अमेरिकन ब्लाक’। दोनों में शीत युद्ध जोरों पर था। इस शीत युद्ध में विचारक और राजनीतिज्ञ तीसरे विश्वयुद्ध की शंका करते थे परन्तु पंडित नेहरू की ‘गुट निरपेक्ष नीति’ को 1971 की ङ्क्षहद पाक जंग में गहरा धक्का लगा। जब अमेरिका ने पाकिस्तान के हक में अपना सातवां युद्ध पोत बंगाल की खाड़ी में उतार दिया। मजबूरन भारत को सोवियत संघ से मैत्री संधि करनी पड़ी। भारत-पाक जंग में नेहरू की गुटनिरपेक्ष विदेश नीति को धक्का लगा। 

अब नरेन्द्र मोदी की ‘विदेश नीति’ अमेरिका पर आधारित है। अमेरिकन राष्ट्रपति ने जैसा मोदी का स्वागत किया उससे सौ गुणा ज्यादा मोदी ने ट्रम्प का स्वागत किया परन्तु जब चीन ने भारत की सीमाओं पर अपनी सेनाओं का जमावड़ा कर दिया तो अमेरिकन राष्ट्रपति बोले, ‘‘मैं मध्यस्थता को तैयार हूं’’ अर्थात  दो की लड़ाई में तीसरे पक्ष को लाभ। मोदी साहिब तो राजनीति के रहबर हैं उन्हें पता होना चाहिए कोई किसी की आग में नहीं पड़ता। 

अपनी ही बांहों का जोर युद्ध में काम आता है। यह सच है कि आज विश्व जनमत कोरोना महामारी के कारण चीन के विरुद्ध है परन्तु यदि चीन और भारत के बीच युद्ध हुआ तो कूटनीति को भांप लें कि कौन-कौन सा देश हमारे पक्ष में खड़ा होता है। यदि नेपाल हमारे पक्ष में नहीं, भूटान तटस्थ रहा पाकिस्तान चीन का हिमायती बन गया, अफगानिस्तान तो नित हमारे सिख भाइयों का अपहरण कर रहा है,  मुस्लिम देश किस पक्ष में होंगे?’’ इस पर हमारी विदेश नीति केन्द्रित होनी चाहिए।-मा. मोहन लाल (पूर्व परिवहन मंत्री, पंजाब)

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