‘घोटालों के बादल और चुनावी हिंसा’

Edited By ,Updated: 26 Feb, 2021 03:24 AM

clouds of scandals and electoral violence

हालांकि पश्चिम बंगाल में चुनावों की औपचारिक घोषणा होनी अभी बाकी है लेकिन फिर भी राजनीतिक पारा उफान पर है। देखा जाए तो चुनाव किसी भी लोकतंत्र की आत्मा होते हैं लेकिन जब इन्हीं चुनावों के दौरान हिंसक घटनाएं सामने आती हैं, जिनमें लोगों की जान तक दांव

हालांकि पश्चिम बंगाल में चुनावों की औपचारिक घोषणा होनी अभी बाकी है लेकिन फिर भी राजनीतिक पारा उफान पर है। देखा जाए तो चुनाव किसी भी लोकतंत्र की आत्मा होते हैं लेकिन जब इन्हीं चुनावों के दौरान हिंसक घटनाएं सामने आती हैं, जिनमें लोगों की जान तक दांव पर लग जाती हो तो प्रश्न केवल कानून-व्यवस्था पर ही नहीं उठता बल्कि लोकतंत्र भी घायल होता है। 

पश्चिम बंगाल में चुनावों के दौरान ङ्क्षहसा का इतिहास काफी पुराना है। नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े इस बात को तथ्यात्मक तरीके से प्रमाणित भी करते हैं। इनके अनुसार 2016 में बंगाल में राजनीतिक हिंसा की 91 घटनाएं हुईं जिसमें 206 लोग इसके शिकार हुए। इससे पहले 2015 में राजनीतिक हिंसा की 131 घटनाएं दर्ज की गईं जिनके शिकार 184 लोग हुए थे। वहीं गृह मंत्रालय के ताजा आंकड़ों की बात करें तो 2017 में बंगाल में 509 राजनीतिक हिंसा की घटनाएं हुई थीं और 2018 में यह आंकड़ा 1035 तक पहुंच गया था। 

इससे पहले 1997 में वामदल की सरकार के गृहमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने बाकायदा विधानसभा में यह जानकारी दी थी कि वर्ष 1977 से 1996 तक पश्चिम बंगाल में 28,000 लोग राजनीतिक हिंसा में मारे गए थे। नि:संदेह ये आंकड़े पश्चिम बंगाल की राजनीति का कुत्सित चेहरा प्रस्तुत करते हैं। पंचायत चुनाव से लेकर लोकसभा चुनाव के दौरान पश्चिम बंगाल का रक्तरंजित इतिहास उसकी ‘सोनार बांगला’ की छवि, जो कि रबिन्द्रनाथ टैगोर और बंकिमचंद्र चटर्जी जैसी महान विभूतियों की देन है, उसे भी धूमिल कर रहा है। 

बंगाल की राजनीति वर्तमान में शायद अपने इतिहास के सबसे दयनीय दौर से गुजर रही है जहां वामदलों की रक्तरंजित राजनीति को उखाड़ कर एक स्वच्छ राजनीति की शुरूआत के नाम पर जो तृणमूल सत्ता में आई थी आज खुद उस पर सत्ता बचाने के लिए रक्तपिपासु राजनीति करने के आरोप लग रहे हैं। हाल के लोकसभा चुनावों में भाजपा का वोट प्रतिशत बढऩे के साथ ही राज्य में ङ्क्षहसा के ये आंकड़े भी लगातार बढ़ते जा रहे हैं, चाहे वे भाजपा के विभिन्न रोड शो के दौरान ङ्क्षहसा की घटनाएं हों या उनकी परिवर्तन यात्रा को रोकने की कोशिश हो अथवा जे.पी. नड्डा के काफिले पर पथराव हो। 

यही कारण है कि चुनाव आयुक्त को कहना पड़ा कि बंगाल में जो परिस्थितियां बन रही हैं उससे यहां पर शांतिपूर्ण तरीके से चुनाव कराना चुनाव आयोग के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है। स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि चुनाव आयोग इस बार 2019 के लोकसभा चुनावों की अपेक्षा 25 फीसदी अधिक सुरक्षा कर्मियों की तैनाती करने पर विचार कर रहा है। लेकिन इस चुनावी मौसम में बंगाल के राजनीतिक परिदृश्य पर घोटालों के बादल भी उभरने लगे हैं जो कितना बरसेंगे यह तो वक्त ही बताएगा लेकिन वर्तमान में उनकी गर्जना तो देश भर में सुनाई दे रही है। दरअसल केंद्रीय जांच ब्यूरो ने राज्य में कोयला चोरी और अवैध खनन के मामले में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे और टी.एम.सी. सांसद अभिषेक बनर्जी की पत्नी रुजिरा बनर्जी और उनकी साली को पूछताछ के लिए नोटिस भेजा है। 

इससे कुछ दिन पहले शारदा चिटफंड घोटाला, जिसमें देश के पूर्व वित्तमंत्री चिदम्बरम और खुद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री पर आरोप लगे थे, इस मामले में सी.बी.आई. ने दिसंबर 2020 में सुप्रीम कोर्ट में एक अवमानना याचिका दायर की थी। इसके अनुसार बंगाल के मुख्यमंत्री राहत कोष से तारा टी.वी. को नियमित रूप से 23 महीने तक भुगतान किया गया। कथित तौर पर यह राशि मीडिया कर्मियों के वेतन के भुगतान के लिए दी गई। 

गौरतलब है कि जांच के दौरान तारा टी.वी. के शारदा ग्रुप ऑफ कम्पनीज का हिस्सा होने की बात सामने आई थी। सी.बी.आई. का कहना है कि पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री राहत कोष से तारा टी.वी. कर्मचारी कल्याण संघ को कुल 6.21 करोड़ रुपए का भुगतान किया गया था। वैसे भारत जैसे देश में घोटाले होना कोई नई बात नहीं है।

संयोग कुछ ऐसा बना कि चुनावी मौसम में ही ये सामने आते हैं और फिर पांच साल के लिए लुप्त हो जाते हैं। देश की राजनीति अब उस दौर से गुजर रही है जब देश के आम आदमी को यह महसूस होने लगा है कि ङ्क्षहसा और घोटाले चुनावी हथियार बनकर रह गए हैं और उसके पास इनमें से किसी का भी मुकाबला करने का सामथ्र्य नहीं है क्योंकि जब तक तय समय-सीमा के भीतर निष्पक्ष जांच द्वारा इन घोटालों के बादलों पर से पर्दा नहीं उठता, वे केवल चुनावों के दौरान विपक्षी दल की हिंसा के प्रत्युत्तर में गरजने के लिए सामने आते रहेंगे। 

लेकिन सत्ता की इस उठापटक के बीच राजनीतिक दलों को यह समझ लेना चाहिए कि आज का वोटर इतना नासमझ भी नहीं है जो इन घोटालों और हिंसा के बीच की रेखाओं को न पढ़ सके। खास तौर पर तब, जब इन परिस्थितियों में चुनावों के दौरान बोले जाने वाले ‘आर नोई अन्याय’ (और नहीं अन्याय) या फिर ‘कृष्ण कृष्ण हरे हरे, पद्म (कमल) फूल खिले घरे घरे’, या बांग्ला ‘निजेर मेयकेई चाए’ जैसे शब्द कभी ‘नारों’ की दहलीज पार करके यथार्थ में परिवर्तित नहीं होते। इसलिए ‘लोकतंत्र’ तो सही मायनों में तभी मजबूत होगा जब चुनावी मौसम में घोटाले सिर्फ सामने ही नहीं आएंगे बल्कि उसके असली दोषी सजा भी पाएंगे।-डा. नीलम महेंद्र 
 

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