कांग्रेस के पास केवल दो विकल्प  : ‘पुनर्जीवित हो या तबाह हो जाए’

Edited By ,Updated: 21 Jul, 2020 03:24 AM

congress has only two options revive or destroy

कांग्रेस पार्टी अपने ही भीतर से एक अभूतपूर्व सत्ता के लिए रस्साकशी को झेल रही है। सबसे पुरानी पार्टी को ये सब बातें महंगी पड़ रही हैं। कांग्रेस लगभग फट चुकी है। इसने मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्य को कुछ ही सप्ताह पूर्व खो दिया तथा अब अन्य बड़े राज्य...

कांग्रेस पार्टी अपने ही भीतर से एक अभूतपूर्व सत्ता के लिए रस्साकशी को झेल रही है। सबसे पुरानी पार्टी को ये सब बातें महंगी पड़ रही हैं। कांग्रेस लगभग फट चुकी है। इसने मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्य को कुछ ही सप्ताह पूर्व खो दिया तथा अब अन्य बड़े राज्य राजस्थान को भी खोने की प्रक्रिया में है। हालांकि अशोक गहलोत की सरकार वर्तमान संकट से संभल गई है। फिर भी खतरे वाली तलवार सदन में टूटे-फूटे बहुमत के ऊपर लटक रही है। 

राजस्थान में वर्तमान राजनीतिक संकट केवल लक्ष्णात्मक है। यदि कोई एक बड़े पर्दे पर देखे तो कांग्रेस पार्टी सत्ता की खींचातानी जोकि वरिष्ठ नेताओं तथा युवा तुर्कों के बीच है, के कारण तबाह हो रही है। आदेश को मानने के विपरीत कांग्रेस हाईकमान ने पहले से ही कमजोर पड़ चुकी पार्टी को और डूबने दिया। लगातार दो लोकसभा चुनावों को हारने के बाद कांग्रेस ने इसको उभारने का कोई प्रयास नहीं किया। इसमें कोई शंका वाली बात नहीं कि पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया और बाद में सचिन पायलट जैसे युवा नेता कहीं और हरी-भरी चारागाह को देख रहे हैं। 

हालांकि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी 2017 में अपने बेटे राहुल गांधी का पार्टी अध्यक्ष के तौर पर अभिषेक करने में सफल हुई थीं, मगर उन्होंने एकसमतल बदलाव के प्रति ध्यान नहीं दिया। यह एक बड़ी चूक थी जोकि अब सत्ता के लिए खींचातानी के धरातल पर खड़ी है। राहुल गांधी ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह दिग्गज नेताओं के साथ आरामदायक नहीं हैं तथा पुराने दिग्गज राहुल के नए विचारों का विरोध कर रहे हैं। वह चाहते हैं कि पार्टी में यथास्थिति बनी रहे। विडम्बना देखिए कि कांग्रेस के मध्य प्रदेश तथा राजस्थान जैसे दो बड़े राज्यों को हासिल करने के बाद वह उन्हें अपनी पकड़ में रख पाने में सफल नहीं हुए। पिछले दो वर्षों के दौरान कांग्रेस नेतृत्व ने अंदरही अंदर चल रहे संकट को नहीं भांपा। राजस्थान में सचिन तथा मध्य प्रदेश में सिंधिया को उच्च पद देनेसे नकार दिया गया। उनके स्थान पर अशोक गहलोततथा कमलनाथ जैसे पुराने दिग्गजों पर भरोसा जताया। हाईकमान ने सत्ता के लिए संघर्ष पर अपना ध्यान नहीं दिया। 

जहां तक चुनावी सफलता का प्रश्र है कांग्रेस पिछले कई दशकों से यू.पी. (1989 से लेकर), पश्चिम बंगाल (1970 से लेकर), तमिलनाडु (1977 से लेकर), गुजरात (1985 से लेकर) तथा उड़ीसा (2000 से लेकर) में सत्ता को भोग नहीं पाई है। यहां तक कि पूर्वोत्तर में कांग्रेस ने अपना वर्चस्व खो दिया। इस गिरावट के बावजूद कांग्रेस ने 2019 में 11 करोड़ मत हासिल किए। भाजपा को बाहर रखने के लिए कांग्रेस को एकजुट होने की जरूरत है तथा उसे नए अच्छे सहयोगियों की तलाश करनी चाहिए। जमीनी स्तर पर उसे अपनी पकड़ मजबूत बनानी होगी और एक नया अध्याय लिखना होगा। 

मगर पार्टी तो गांधियों के साथ ही चिपक-चिपक कर बैठी
शीर्ष पर कांग्रेस पार्टी में शून्य स्थान है। कांग्रेस कार्यकत्र्ता अंतरिम अध्यक्ष के पदनाम को लेकर भी उलझन में रहते हैं। पिछले वर्ष राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद सोनिया गांधी ने अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर पद संभाला था। यहां पर कुछ ऐसे सोचने वाले लोग भी हैं, जिनका मानना है कि पार्टी में गैर-गांधी अध्यक्ष होना चाहिए मगर पार्टी तो गांधियों के साथ ही चिपक-चिपक कर बैठी है। इस संदर्भ में वर्तमान सत्ता संघर्ष को देखना चाहिए। पुराने दिग्गज महत्वाकांक्षी युवा तुर्कों को लेकर तेवर दिखाते हैं। जबकि सचिन और ज्योतिरादित्य जैसे युवा नेता बेताब नजर आ रहे हैं। हालांकि दो निकट दोस्त सिंधिया तथा पायलट के विद्रोह के बाद ‘टीम राहुल’ भी टूट रही है। मिङ्क्षलद देवड़ा तथा जितिन प्रसाद के निष्कासन को भी नकारा नहीं जा  सकता। यहां पर भाजपा की रणनीति दूसरे दलों के बड़े नेताओं को आयात करने की है ताकि अपने प्रतिद्वंद्वियों को कमजोर किया जा सके। भाजपा पदों के नाम पर उन्हें लुभा रही है। 

न तो कोई दिशा है और न ही रणनीति
यहां पर जरूरत इस बात की है कि कांग्रेस पार्टी को जमीनी स्तर पर सुदृढ़ किया जाए। कुछ गांवों में कांग्रेस पार्टी अभी भी जिंदा है तथा पार्टी में ऐसी बहुत ज्यादा प्रतिभा है, जो इसे पुनर्जीवित कर सकती है। मगर यहां पर न तो कोई दिशा है और न ही रणनीति। जो लोग कांग्रेस में प्रवेश करते हैं वे पार्टी में पदों को पाने के लिए उत्सुक रहते हैं। फिर चाहे वह पुरुष हो या महिलाएं। सदस्यता खिसक रही है और नए सदस्यों को आकॢषत करने के लिए कोई मुहिम नहीं चलाई जा रही। पार्टी के पास पूर्व में एक प्रतिबद्धता थी, मगर आज सत्ता है, जो सदस्यों को लुभाती है। कांग्रेस इस दुविधा को झेल रही है। यह पहली बार नहीं है कि कांग्रेस पार्टी सत्ता संघर्ष को झेल रही है। इसने पहले भी इस घटना को झेला है। दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 60 के दशक के अंतिम दिनों के दौरान अपने खिलाफ चलने वाले शक्तिशाली सिंडीकेट से सत्ता छीनी थी। प्रत्येक पार्टी अध्यक्ष या प्रधानमंत्री अपने वफादारों को चाहता है तथा यह पीढ़ीगत पारी मुश्किलें पैदा कर रही है। 

आज वही सोनिया गांधी असहाय है
दुर्भाग्यवश अब कांग्रेस सत्ता में नहीं। सोनिया गांधी ने 1998 में पार्टी की कमान संभाली, जब कटाव था, सोनिया ने इस पर अंकुश लगाया तथा पार्टी को सत्ता में लेकर आई। ऐसा वह एक बार नहीं, दो बार करने में सफल हुई। आज वही सोनिया असहाय है। इस सबका हल तलाशने के लिए युवा नेताओं से बातचीत की जाए और पुराने दिग्गजों को यह स्पष्ट कर दिया जाए कि अब उनका समय बाहर जाने का है। इस मुद्दे का हल निकालने के लिए पुराने तथा युवा नेताओं के बीच समन्वय बनाना लाजिमी है। कांग्रेस के पास केवल दो विकल्प हैं-या तो वह पुनर्जीवित हो या तबाह हो जाए। यह पार्टी पर है कि वह किसको चुने। पुरानी शानो-शौकत में रहना सवालों के जवाब नहीं। अब समय कुछ कर दिखाने का है।-कल्याणी शंकर
 

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