Edited By ,Updated: 29 May, 2019 03:26 AM
गत सप्ताह पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी को सभी स्तरों पर संगठन का पुनर्गठन करने का अधिकार दिए जाने के बावजूद कांग्रेस अस्तित्व बनाए रखने के संकट से गुजर रही है। निश्चित तौर पर पार्टी को एक बड़ी सर्जरी की जरूरत है। इन लोकसभा चुनावों में पराजय की 100...
गत सप्ताह पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी को सभी स्तरों पर संगठन का पुनर्गठन करने का अधिकार दिए जाने के बावजूद कांग्रेस अस्तित्व बनाए रखने के संकट से गुजर रही है। निश्चित तौर पर पार्टी को एक बड़ी सर्जरी की जरूरत है। इन लोकसभा चुनावों में पराजय की 100 प्रतिशत जिम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी ने इस्तीफा देने की पेशकश की लेकिन पार्टी की शीर्ष इकाई कांग्रेस कार्य समिति ने राहुल से पद पर बने रहने को कहा है।
कोई संदेह नहीं कि कांग्रेस ने 2014 की अपनी 44 सीटों में जरा-सा सुधार करते हुए इस बार 52 सीटें जीती हैं और पार्टी अध्यक्ष होने के नाते सारी बात उन्हीं पर आकर रुकती है। यह मीडिया है, जो राहुल गांधी को पद से हटाए देखना चाहता है मगर प्रश्र यह है कि क्या राहुल को हटाना ही एकमात्र समस्या है, जिसका सामना अब कांग्रेस कर रही है? समस्या कहीं और है। नेतृत्व के संकट सहित कांग्रेस कई समस्याओं का सामना कर रही है। अंतिम बार ऐसा तब हुआ था जब 1998 में सीताराम केसरी के नेतृत्व में पार्टी को क्षरण का सामना करना पड़ा था। सोनिया गांधी ने दखलअंदाजी करते हुए क्षरण को रोका। अब एक फलते-फूलते संगठन, भविष्य के लिए उचित दृष्टिकोण के अभाव तथा भाजपा के एक विश्वसनीय विकल्प के तौर पर खुद को प्रस्तुत करने में असफल रहना और मतदाताओं के साथ सम्पर्क न होना वास्तविक समस्याएं हैं। मोदी को चुनौती देने के लिए कांग्रेस विपक्ष का नेतृत्व भी नहीं कर सकी।
सही काम के लिए सही लोग नहीं
सम्भवत: राहुल की असफलता यह है कि उन्होंने सही कार्य के लिए सही लोग नहीं चुने क्योंकि उन्होंने अपने आसपास गैर-राजनीतिक लोग इकट्ठे कर लिए, जिनको कोई चुनावी समझ अथवा अनुभव नहीं था। वह एक अस्त-व्यस्त नेता दिखाई दिए क्योंकि वह कांग्रेस की वर्तमान विचारधारा अथवा इसके संदेश को लोगों तक नहीं पहुंचा सके। न्याय योजना की घोषणा बहुत देरी से की गई, इसलिए इसे जनता तक सही तरह से पहुंचाया नहीं जा सका। उनके पास भाजपा के शानदार चुनाव प्रचार का मुकाबला करने के लिए कोई चुनावी रणनीति नहीं थी। राफेल तथा ‘चौकीदार चोर है’ के नारे ही काफी नहीं थे। इससे भी बढ़ कर, केवल दो ही स्टार प्रचारक थे-राहुल तथा प्रियंका क्योंकि वरिष्ठ नेताओं का प्रचार में इस्तेमाल नहीं किया गया। यहां तक कि प्रियंका को भी राजनीति में बहुत देरी से लाया गया। पार्टी ने दूसरे पायदान के नेता भी तैयार नहीं किए। कोई पार्टी कैसे चुनाव जीत सकती है जब उसके पास बूथ स्तर के कार्यकत्र्ता अथवा जमीनी सैनिक न हों, जो पार्टी का संदेश लोगों तक पहुंचा सकें।
कांग्रेस सम्भवत: गांधी परिवार को दरकिनार नहीं कर सकती क्योंकि इसके पास कोई ऐसा नेता नहीं है जिस पर पार्टी विश्वास कर सके। पार्टी राहुल गांधी को पद छोडऩे की इजाजत नहीं देगी चाहे वह जितना भी जोर डालें और वैसा ही नाटक करेंगे जब शरद पवार जैसे नेताओं द्वारा विदेशी मूल का मुद्दा उठाने पर 1999 में सोनिया गांधी ने इस्तीफा दे दिया था। जब 1998 में सीताराम केसरी को हटाया गया सोनिया गांधी पद सम्भालने को तैयार थीं और प्रतीक्षा कर रही थीं। आज कांग्रेस में अधिकतर वरिष्ठ नेता अत्यंत वृद्ध हैं जबकि अधिकांश जूनियर नेता हालिया लोकसभा चुनावों में हार गए हैं। अत: पार्टी को कौन आगे ले जाएगा जब इसका मनोबल इतना नीचे है? एक अस्थायी विराम के तौर पर यह राहुल तथा पार्टी के बीच मध्यस्थ तलाशने का प्रयास करेगी और राहुल का कार्य बांटने के लिए एक कार्यवाहक अध्यक्ष के लिए जा सकती है। जब नेतृत्व पर हमला हो रहा हो तो यही फार्मूला अपनाया जाता रहा है।
नए रूप में प्रस्तुत करना होगा
इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि कांग्रेस अपना अस्तित्व बचाना चाहती है तो इसे खुद को एक नए रूप में पेश करना होगा। सम्भवत: वह पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर से सबक ले सकती है। उन्होंने पार्टी के सत्ता में आने से पूर्व अक्तूबर 1994 में एक भाषण में दिए गए नारे ‘न्यू लेबर, न्यू ब्रिटेन’ में शब्द न्यू लेबर उछाला। नई कांग्रेस को अपने अतीत के गौरव को भुनाने की बजाय देश में बदल रही स्थिति और इस बात पर ध्यान देना होगा कि लाखों नए मतदाता तथा आकांक्षावान युवा क्या चाहते हैं?
कांग्रेस ने पहले भी खुद को एक नए रूप में पेश किया है। इंदिरा गांधी ने 1969 में उन्हें रास्ता दिखाया था जब पार्टी विभाजित हुई थी और फिर 1977 में जब उन्होंने कांग्रेस (इंदिरा) का गठन किया था। राजीव गांधी ने ए.आई.सी.सी. के 1985 के सत्र में सत्ता के दलालों से बात की और पार्टी को बदलने का प्रयास किया था। पी.वी. नरसिम्हा राव की कांग्रेस सुधारों के साथ दक्षिणपंथियों की ओर गई जबकि सोनिया गांधी इसे वामपंथी कल्याणकारी नीतियों की ओर वापस ले आईं। राहुल की असफलता यह है कि वह अपना राजनीतिक अथवा आर्थिक दृष्टिकोण जनता को बेचने में विफल रहे।
अभी भी समय है
अभी भी अत्यंत जरूरी कायाकल्प के लिए समय है, जिस बारे पंचमढ़ी अथवा शिमला जैसे विचार-विमर्श वाले सत्र के बाद निर्णय लिया जा सकता है। नई रणनीति में दूसरे पायदान के गतिशील नेताओं तथा राज्य स्तर के मजबूत नेताओं को शामिल करना होना चाहिए। यह अनुभवी तथा युवाओं का एक मिश्रण होना चाहिए। पार्टी तथा लोगों के बीच सम्पर्क बहाल किया जाना चाहिए। यहां तक कि इस चरण पर सब कुछ नहीं गंवाया गया क्योंकि कांग्रेस लगभग आधा दर्जन राज्यों में सत्ता में है और आगामी 5 वर्षों के दौरान होने वाले विधानसभा चुनावों में कुछ और राज्यों को जीतने की आशा करती है। यदि यह चुनावी लाभों के उद्देश्य से खुद को जोरदार तरीके से बदलने का निर्णय लेती है तो इसे अभी शुरूआत करनी चाहिए। कांग्रेस को खुद को आधुनिक समय की जरूरतों के अनुसार बदलने के लिए वर्तमान संकट को एक अवसर के रूप में देखने की जरूरत है। परिवर्तन एकमात्र अनवरत चीज है और पार्टी को यह एहसास होना चाहिए।-कल्याणी शंकर