कांग्रेस को क्षेत्रीय सांझीदारों की जरूरत

Edited By ,Updated: 31 May, 2019 03:50 AM

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पश्चिम बंगाल तथा ओडिशा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए महत्वपूर्ण उपलब्धि हैं। दोनों ही राज्यों में स्थापित क्षेत्रीय दलों का शासन है। हालिया लोकसभा चुनावों तक भाजपा इन दोनों में से किसी भी राज्य में मुख्य विपक्ष नहीं थी। इस वर्ष वामदलों के बिखराव...

पश्चिम बंगाल तथा ओडिशा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए महत्वपूर्ण उपलब्धि हैं। दोनों ही राज्यों में स्थापित क्षेत्रीय दलों का शासन है। हालिया लोकसभा चुनावों तक भाजपा इन दोनों में से किसी भी राज्य में मुख्य विपक्ष नहीं थी। इस वर्ष वामदलों के बिखराव ने भाजपा को पश्चिम बंगाल में बड़ी फसल काटने में सक्षम बनाया तथा कांग्रेस की मत हिस्सेदारी में गिरावट ने इसके भाग्य में और इजाफा किया। कांग्रेस ने अपनी कम मत हिस्सेदारी के बावजूद दो सीटों पर जीत हासिल की, जबकि अधिक मत हिस्सेदारी के साथ वाम दल किसी छोटी सीट पर भी अपना दबदबा कायम नहीं कर पाए। 

इस सबके बीच मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तृणमूल ने वास्तव में अपनी मत हिस्सेदारी को 39.8 से बढ़ाकर 43.3 प्रतिशत कर लिया। हालांकि पार्टी की सीटों की संख्या 34 से कम होकर 22 रह गई। ओडिशा भी लगभग ऐसी ही तस्वीर पेश करता है। एक मजबूत क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टी ने यहां अपना प्रभुत्व बनाए रखा लेकिन भाजपा ने कांग्रेस के वोटों में बड़ी हिस्सेदारी छीन कर अपनी सीटों की संख्या महज एक से बढ़ाकर 8 कर ली। यहां राज्य तथा राष्ट्रीय चुनावों को लेकर वोटरों के बीच अंतर का सबूत नजर आता है। सत्ताधारी बीजू जनता दल (बीजद) ने राज्य के चुनावों में 44.7 प्रतिशत मत हिस्सेदारी हासिल की, लेकिन लोकसभा के चुनावों में 42.1 प्रतिशत। इसी गिरावट के कारण शायद भाजपा को राज्य तथा लोकसभा चुनावों में अपनी हिस्सेदारी लगभग 6 प्रतिशत बढ़ाने में मदद मिली, हालांकि इसमें बड़ा योगदान कांग्रेस की तरफ से आया। 

2014 तथा वर्तमान लोकसभा चुनावों के बीच ओडिशा में कांग्रेस की मत हिस्सेदारी 25.7 प्रतिशत से कम होकर 16.1 प्रतिशत रह गई जिसने भाजपा की मत हिस्सेदारी को 18.8 प्रतिशत से बढ़ाकर 32.5 प्रतिशत तक पहुंचाने में अपना योगदान डाला। उत्तर प्रदेश 2 क्षेत्रीय दलों की तस्वीर पेश करता है, जो राज्य स्तर पर 2017 तक अधिकतर एक के बाद एक सत्ता में आते रहे लेकिन अपनी मत हिस्सेदारी को मजबूत बनाने में असफल रहे। 

दक्षिण के वोट
कर्नाटक में कांग्रेस नेतृत्व तथा इसके सहयोगी जनता दल (सैकुलर) के बीच निरंतर कलह जारी रही और कहने की जरूरत नहीं कि जद (एस) की वंशवादी आकांक्षाओं के कारण भाजपा पहली बार अपनी मत हिस्सेदारी 50 प्रतिशत से अधिक बढ़ाने में सफल रही। आंध्र प्रदेश में भाजपा विवाद से बाहर रही, जहां दो शक्तिशाली क्षेत्रीय दलों ने सर्वाधिक प्रभावशाली वोट समूहों को आपस में बांट रखा था। तमिलनाडु एक बार फिर स्थानीय तथा राष्ट्रीय चुनावों के बीच मतदाता के विकल्प को लेकर भेदभाव की तस्वीर पेश करता है। राज्य में सत्ताधारी पार्टी के साथ गठबंधन में होने के बावजूद भाजपा के हाथ कोई सीट नहीं लगी। इसकी सांझेदार अन्नाद्रमुक लोकसभा चुनावों में 18.5 प्रतिशत मत हिस्सेदारी प्राप्त कर सकी लेकिन विधानसभा चुनावों में 38 प्रतिशत से अधिक। 

भाजपा का विकास
1997 के शुरू में, जब भाजपा की लोकसभा में नाममात्र उपस्थिति थी, न ही इसकी ऐसी स्थिति कि कोई अन्य पार्टी इसे चाहती, पार्टी नेता लाल कृष्ण अडवानी ने मीडिया साक्षात्कारों में इसके सामने खड़ी चुनौतियों का समाधान किया। एक उग्रपंथी ढांचा बनाने का श्रेय उन्हें जाता है जिसने भारत को प्रधानमंत्री के तौर पर दूसरी बार नरेन्द्र मोदी के रूप में तोहफा देने में मदद की। मोदी के विपरीत अडवानी कभी भी मीडिया साक्षात्कार से शर्माए नहीं। एक बार उन्होंने दावा किया था कि भाजपा को अन्य राजनीतिक दलों का अनुचित बहिष्कार झेलना पड़ रहा है, जिन्होंने 1996 में इसके सरकार बनाने के दावों का समर्थन करने से इंकार कर दिया था। परिणामस्वरूप उभरी वैकल्पिक संयुक्त मोर्चा सरकार दीनतापूर्वक कांग्रेस पर निर्भर थी, जिसकी चलने की सम्भावना नहीं थी। अंतत: भाजपा ने खुद को एक ऐसे अपरिहार्य चुम्बक के तौर पर साबित किया जिसके इर्द-गिर्द सारी राजनीति घूमती है। 

1997 के अंत तक संयुक्त मोर्चा सरकार का विघटन हो गया और भाजपा उससे टूट कर अलग हुए घटकों से पर्याप्त रूप में संख्या जुटाने में सफल रही ताकि एक बड़ा गठबंधन बनाकर 1998 का चुनाव लड़ सके। जरा से बदलाव के साथ यह व्यवस्था 1999 के चुनाव में भी रही, जो पहली बार गठबंधन की ऐसी सरकार लाई जिसने अपने कार्यकाल को पूरा किया। 

कांग्रेस के लिए सबक
समस्याएं तब शुरू हुईं जब 2002 में गुजरात दंगों के बाद सहयोगियों ने भाजपा का साथ छोडऩा शुरू किया। अस्तित्व के संकट से जूझ रही कांग्रेस ने समझदारी दिखाते हुए अवसरों को लपका और पुरानी हठधर्मिता को छोड़ते हुए कई गठबंधनों के लिए प्रयास किया। 2004 के चुनावों में कांग्रेस ने भाजपा को पटखनी दे दी तथा अच्छे आर्थिक समय की सवारी करते हुए 2009 में जीत हासिल की। 

2014 तक व्यावसायिक लॉबीज तथा मीडिया के जोरदार समर्थन से भाजपा ने कांग्रेस को निम्नतम स्तर पर लाते हुए शानदार जीत हासिल की। 2014 तथा 2019 के चुनावों में जाते हुए भाजपा महत्वपूर्ण क्षेत्रीय सहयोगियों को अपने साथ बनाए रखने के प्रति सतर्क थी। कांग्रेस के लिए संदेश स्पष्ट है-इसे जरूरत है क्षेत्रीय सांझीदारों की, इसकी जरूरत से कहीं अधिक, ताकि विलुप्तता की ओर जाने से रुका जा सके।-एस. मुरलीधरन

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