अच्छे प्रदर्शन के बावजूद ‘मुगालते’ में न रहे कांग्रेस

Edited By ,Updated: 31 Oct, 2019 03:11 AM

congress not in  mughalate  despite good performance

महाराष्ट्र और हरियाणा में सफाए की उम्मीद कर रही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए इन दो राज्यों में अभी-अभी सम्पन्न हुए विधानसभा चुनावों ने एक ऐसे संगठन में आशा को पुनर्जीवित किया है, जो इस साल के शुरू में आम चुनाव के बाद से एक प्रकार से कोमा की...

महाराष्ट्र और हरियाणा में सफाए की उम्मीद कर रही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए इन दो राज्यों में अभी-अभी सम्पन्न हुए विधानसभा चुनावों ने एक ऐसे संगठन में आशा को पुनर्जीवित किया है, जो इस साल के शुरू में आम चुनाव के बाद से एक प्रकार से कोमा की स्थिति में थी। 

महाराष्ट्र में पार्टी ने शरद पवार नीत राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के साथ मिलकर भारतीय जनता पार्टी-शिवसेना की जीत को सीमित कर दिया जिससे उनके लिए सरकार के गठन की प्रक्रिया कठिन हो गई। उधर, हरियाणा में अन्य विपक्षी दलों के साथ उसने भाजपा को सरकार बनाने के लिए चुनाव के बाद सांझेदारों की तलाश करने के लिए मजबूर कर दिया। 

वास्तविकता बनाम ध्रुवीकरण
हालांकि इन परिणामों को एक ऐसे संकेत के रूप में नहीं देखा जा सकता कि कांग्रेस वापसी की राह पर है। यहां तक कि 2018 के अंत में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हुए विधानसभा चुनावों में जीत के बाद लोकसभा चुनाव के दौरान पार्टी को इन राज्यों में धूल फांकनी पड़ी थी। लेकिन वे यह प्रदॢशत करते हैं कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी अजेय नहीं है और यह कि स्थानीय मुद्दे मायने रखते हैं। वे दिखाते हैं कि ध्रुवीकरण की राजनीति खेलने वाले हमेशा बढ़ती बेरोजगारी, बढ़ते ग्रामीण संकट और मंदी का सामना कर रही अर्थव्यवस्था के मुद्दों को नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं। 

इसलिए कांग्रेस को राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बने रहने के लिए उसके संगठन को युद्ध के लिए तैयार होना चाहिए ताकि जब भी कोई अवसर उत्पन्न हो तो वह अपने विरोधियों की कमियों का लाभ उठा सके। कांग्रेस के एक पूर्व पदाधिकारी ने कहा कि ये नतीजे यह दिखाते हैं कि पार्टी को राजनीतिक रूप से नहीं बल्कि संगठनात्मक रूप से हार का सामना करना पड़ा था। बेशक विजेता बनने के लिए कांग्रेस को और अधिक प्रयास करने की आवश्यकता है। इसके लिए उसके पास एक विश्वसनीय काऊंटर नैरेटिव और एक ऐसा नेता होना चाहिए जो आशा के अपने संदेश को बेच सके। लेकिन राज्यों के इन चुनावों से भाजपा के कवच में दरार का पता चलता है। 

जब से कांग्रेस पार्टी को लोकसभा चुनाव में लगातार दूसरी हार मिली है तब से पार्टी नेतृत्व ने एक तरह से हथियार डाल दिए हैं, जिससे पहले से क्षतिग्रस्त संगठन कमजोर हुआ है। राहुल गांधी ने 25 मई को पार्टी अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद तीन महीने तक पार्टी बिना अध्यक्ष के रही जब तक कि 10 अगस्त को उनकी मां सोनिया गांधी ने पार्टी के अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर नेतृत्व नहीं संभाल लिया। उस समय कुछ ही हफ्तों में महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनाव होने वाले थे। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने इतना खराब प्रदर्शन क्यों किया, इस पर आत्मनिरीक्षण करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। वास्तव में, इन दो राज्यों में चुनावों के लिए भी मतदान के 10 दिन पहले एक उच्च स्तरीय समन्वय समिति की स्थापना की गई थी। 

तथ्य यह है कि पार्टी ने इन चुनावों में सम्मानजनक संख्या में जीत हासिल की, इन चुनावों के दौरान राज्य के दिग्गजों ने मोर्चा संभाला जबकि गांधी परिवार बैक सीट पर रहा। महाराष्ट्र में पार्टी के राज्य प्रमुख बाला साहेब थोराट और कांग्रेस विधायक दल (सी.एल.पी.) के नेता के.सी. पाडवी, जिन्हें केवल जुलाई में नियुक्त किया गया था, का कद छोटा है। इस बीच, मुम्बई क्षेत्रीय कांग्रेस कमेटी (एम.आर.सी.सी.) जुलाई और सितम्बर के बीच भी बिना अध्यक्ष के बनी रही, यहां तक कि राहुल गांधी ने भी पार्टी नेतृत्व पर सार्वजनिक रूप से हमला करने से पूर्व (एम.आर.सी.सी.) प्रमुख संजय निरुपम को रोकने के लिए कोई खास प्रयास नहीं किया।

पुराने दिग्गज रखते हैं मायने 
हरियाणा में गुलाम नबी आजाद और अहमद पटेल ने कांग्रेस के विधायक दल के नेता के रूप में पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा का नाम सोनिया गांधी को सुझाया था लेकिन इसके लिए उन्हें सितम्बर तक इंतजार करना पड़ा। इसके अलावा पार्टी के प्रदेश प्रमुख के तौर पर अशोक तंवर की जगह केन्द्रीय मंत्री कुमारी शैलजा को लगाया गया है। बाद में नाराज तंवर ने पार्टी छोड़ दी। 

हरियाणा के बदलावों से स्पष्ट रूप से फर्क पड़ा। इसने जमीन पर जाटों, दलितों और मुसलमानों का सामाजिक गठबंधन बनाने में मदद की। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की जाट विरोधी राजनीति से नाखुश जाट समुदाय हुड्डा के गढ़ में कांग्रेस उम्मीदवारों के लिए वोट करने हेतु निकला जिस तरह उन्होंने अपने प्रमुख क्षेत्रों में दुष्यंत चौटाला के नेतृत्व वाली जननायक जनता पार्टी के प्रत्याशियों को वोट दिया। शैलजा की अच्छी छवि के कारण दलित वोट भी कांग्रेस को मिले। इस प्रक्रिया में कांग्रेस के विधायकों की संख्या 15 से बढ़कर 31 हो गई। जाहिर है अगर यह टीम लोकसभा चुनाव के बाद बनाई गई होती, तो पार्टी ने शायद राज्य को भाजपा से छीन लिया होता। इस बीच यह भी स्पष्ट हुआ कि सोनिया गांधी सहित राज्यों में काम कर रहे पार्टी के पुराने दिग्गज अब भी मायने रखते हैं। यही कारण है कि हुड्डा को कमान सौंपने के बाद पार्टी के पक्ष में स्थितियां बदलीं। 

कैप्टन ने भी दिखाया था दम
हुड्डा ऐसे एकमात्र नेता नहीं हैं। 2017 में कैप्टन अमरेन्द्र सिंह को पंजाब में पार्टी के मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनने के लिए लडऩा पड़ा था। उन्होंने 10 साल के अंतराल के बाद कांग्रेस के लिए राज्य की सत्ता वापस दिलाई। उन्होंने इस साल लोकसभा चुनाव में पार्टी की ताकत को बनाए रखा, साथ ही साथ हाल ही में हुए विधानसभा उपचुनाव में भी पार्टी को जीत दिलाई। 2018 में राज्य के प्रमुख के रूप में पार्टी के दिग्गज कमलनाथ ने पार्टी को मध्य प्रदेश में जीत दिलाई थी।

कांग्रेस को शरद पवार से सीखने की आवश्यकता है। 79 के होने जा रहे और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से पीड़ित होने के बावजूद तथा सरकार की जांच एजैंसियों द्वारा कथित तौर पर परेशान किए जाने के बावजूद उन्होंने आगे बढ़कर पार्टी का नेतृत्व किया। इस मराठा क्षत्रप ने चुनावों के दौरान सतारा में बारिश के दौरान रैली को सम्बोधित करके यही संदेश दिया: मुड़ कर संघर्ष करो।-स्मिता गुप्ता

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