भाजपा की चुनावी जीत के बावजूद गुजरात में कांग्रेस की राजनीतिक जीत

Edited By Punjab Kesari,Updated: 24 Dec, 2017 03:15 AM

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गत सप्ताह मैंने लिखा था कि गुजरात में भाजपा ‘अभी भी शान से जीत सकती है।’  फिर भी जो नतीजे आए हैं उनमें भाजपा ‘शान’ से नहीं जीती बल्कि लंगड़ाती हुई लक्ष्य रेखा पार कर पाई है, जबकि नई ऊर्जा से भरा हुआ फर्राटेबाज बिल्कुल उसके कुछ ही पीछे था। भाजपा और...

गत सप्ताह मैंने लिखा था कि गुजरात में भाजपा ‘अभी भी शान से जीत सकती है।’ फिर भी जो नतीजे आए हैं उनमें भाजपा ‘शान’ से नहीं जीती बल्कि लंगड़ाती हुई लक्ष्य रेखा पार कर पाई है, जबकि नई ऊर्जा से भरा हुआ फर्राटेबाज बिल्कुल उसके कुछ ही पीछे था। 

भाजपा और कांग्रेस दोनों ही विजयी रहे हैं-भाजपा ने चुनावी जीत हासिल की है जबकि कांग्रेस की राजनीतिक जीत हुई है। भाजपा नेतृत्व का निराश होना वाजिब है क्योंकि जिन 115 सीटों पर इसका कब्जा था उनमें  से 16 इसके हाथ से निकल गई हैं और यह 150 सीटों के अपने घोषित लक्ष्य के कहीं आसपास भी नहीं पहुंच पाई। कांग्रेस नेतृत्व का निराश होना इसलिए वाजिब है कि वह सत्ता हासिल करने के बिल्कुल करीब पहुंच कर भी बहुमत हासिल नहीं कर पाया। उसे 92 सीटें चाहिए थीं लेकिन वह 80 का आंकड़ा ही छू पाई। 

सत्तारूढ़ बनाम चुनौतीबाज 
गुजरात चुनाव में भाजपा ने बहुत कुछ खोया है। मैं केवल कुछ ही बातों को सूचीबद्ध करूंगा। 
1. नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा अब अपराजेय नहीं रह गई। दिल्ली और बिहार के चुनाव भी खाली शोशे नहीं थे। जोरदार विमर्श और सोच-समझ कर गढ़ी हुई रणनीति भाजपा को हरा सकती है। 
2. किन्हीं दो चुनावों में बेशक दो या तीन वर्ष का अंतराल क्यों न हो, मतदान प्रतिशत में भारी उतार-चढ़ाव आ सकते हैं। 
3. गुजरात में निर्णायक कारक जाति नहीं बल्कि राजनीतिक लामबंदी थी। इस प्रकार की लामबंदी अन्य कारकों के गिर्द भी हो सकती है जैसे कि 
बेरोजगारी या किसानों की बेचैनी अथवा धार्मिक स्थल पर बढ़ती असमानता। सामाजिक आंदोलनों की 
पहुंच राजनीतिक पार्टियों की पहुंच से कहीं बड़ी हो सकती है और हो सकता है कि यह किसी चुनाव के नतीजों को निर्धारित करे। 

4. राहुल गांधी की भूमिका तय हो गई है। उन्होंने कांग्रेस के कार्यकत्र्ताओं में नए जोश का संचार किया है लेकिन उनकी संख्या में वृद्धि होना अनिवार्य है। इसके साथ उन्हें संगठनात्मक इकाइयों में एकजुट करना भी जरूरी है। 92 और 80 सीटों के अंतर की व्याख्या शायद यही की जा सकती है कि कांग्रेस की संगठनात्मक इकाइयां गायब थीं। 

5. नरेन्द्र मोदी को आर्थिक विकास, रोजगार, कृषि आय को दोगुना करने एवं सबका साथ सबका विकास जैसे अपने वायदों को पूरा करना ही होगा। उनकी सरकार के प्रथम तीन वर्षों दौरान (नई गणना प्रणाली अपनाने के बावजूद) औसत आर्थिक वृद्धि दर 7.5 प्रतिशत ही रही है। यह दोहरे अंकों वाली वृद्धि दर हासिल करने के उनके वायदे से बहुत नीचे का आंकड़ा है। रोजगार कहीं दिखाई नहीं दे रहे। जहां तक वास्तविक कृषि आय को दोगुना करने का सवाल है वह भी बहुत दूर का सपना दिखाई देता है। जहां तक ‘सबका साथ’ के दावे का संबंध है, भाजपा-आर.एस.एस. के कार्यकत्र्ताओं और यहां तक कि कुछ नेताओं द्वारा बुलाई गई घृणा और फूट ने इन दावों को झुठला दिया है। 

अर्थव्यवस्था और रोजगार 
अंततोगत्वा 2018-19 में अर्थव्यवस्था की स्थिति किस तरह की होगी, वही लोकसभा चुनावों सहित अगले 16 महीनों बाद होने वाले किसी भी तरह के चुनाव में निर्णायक भूमिका अदा करेगी। अर्थव्यवस्था में सबसे निर्णायक तथ्य होगा रोजगार। इसलिए अर्थव्यवस्था और रोजगार सम्भावनाओं के बारे में चर्चा करना ही समझदारी की बात है। सरकारी स्तर पर अर्थव्यवस्था का सबसे ताजा आकलन रिजर्व बैंक आफ इंडिया द्वारा 6 दिसम्बर 2017 को प्रकाशित अपनी अंतिम मुद्रा नीति समीक्षा में किया गया था। 

2017-18 की दूसरी तिमाही में कारखाना क्षेत्र, उत्खन्न एवं बिजली, गैस,जलापूर्ति इत्यादि के विकास में आई तेजी का संज्ञान लेते हुए आर.बी.आई. ने यह इंंगित किया कि इसके विपरीत कृषि और इससे संबंधित गतिविधियों में मंदी आई है जोकि खरीफ की फसल उम्मीद से कम होने के रूप में सामने आई है। सेवा क्षेत्र की गतिविधियों में भी सुस्ती आई है, जिसका मुख्य कारण सरकार द्वारा शुरूआत में ही भारी-भरकम खर्च किए जाने के फलस्वरूप वित्तीय, बीमा, रीयल एस्टेट एवं प्रोफैशनल सेवाओं व सार्वजनिक प्रशासन, रक्षा व अन्य सेवाओं में आई मंदी थी। कुछ सुधार के बावजूद कंस्ट्रक्शन क्षेत्र की वृद्धि दर जी.एस.टी. तथा ‘रेरा’ के अस्थायी प्रभावों के कारण तेजी नहीं पकड़ पाई। व्यापार, होटल व्यवसाय, परिवहन एवं संचार जैसे उपक्षेत्र गुंजायमान बने रहे, बेशक दूसरी तिमाही में प्रथम तिमाही की तुलना में वृद्धि दर कुछ धीमी ही रही। खर्च के मोर्चे पर सकल अचल पूंजी निर्माण लगातार दो तिमाहियों में सुधरा, फिर भी निजी खपत (जोकि समूची मांग वृद्धि का मुख्य सहारा होती है) दूसरी तिमाही में 8 तिमाहियों के सबसे निम्न स्तर को छू गई। 

आइए हम सरकार की एक शेखी पर दृष्टिपात करते हैं। सरकार कहती है कि गत 3 वर्षों के दौरान कई मिलियन कारोबार सृजित हुए हैं। 28 मार्च 2016 को प्रधानमंत्री ने ‘मुद्रा योजना’ का उल्लेख करते हुए कहा था: ‘‘उद्यमियों को 3 करोड़ 10 लाख से भी अधिक संख्या में कर्ज दिए गए हैं... यदि हम यह भी मान लें कि एक उद्यम केवल एक ही व्यक्ति के लिए पायदार रोजगार सृजित करता है तो भी सरकार के इस कदम से 3 करोड़ 10 लाख लोगों के लिए रोजगार के नए मौके पैदा होंगे।’’ ‘मुद्रा’ ऋण सरकारी क्षेत्र के बैंकों और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों द्वारा दिए गए कुल ऋणों का संग्रहण मात्र है और यह सिलसिला तो अनेक वर्षों से चल रहा है। 28 जुलाई 2017 तक इन बैंकों ने 8.56 करोड़ की संख्या में ऋण जारी किए थे जिनकी कुल राशि 3.69 लाख करोड़ रुपए बनती है। इस प्रकार प्रत्येक ऋण का औसत आकार केवल 43 हजार रुपए ही बैठता है। 

यानी कि सरकार हमें यह विश्वास दिलाने की कोशिश कर रही है कि केवल 43 हजार रुपए से एक अतिरिक्त रोजगार पैदा हो जाता है। यदि इस नए ‘श्रमिक’ को 5 हजार रुपए मासिक वेतन (जोकि न्यूनतम वेतन से भी कम है) दिया जाए तो मात्र 8 महीनों में ऋण की राशि गायब हो जाएगी। ऐसे में किस आधार पर कहा जा सकता है कि 43 हजार रुपए का निवेश एक अतिरिक्त रोजगार पैदा करेगा जिससे प्रति माह 5 हजार रुपए की आमदन होगी। यानी कि प्रत्येक ऋण ‘एक पायदार रोजगार’ पैदा करेगा, का दावा पूरा झूठ है।

यह बिल्कुल प्रधानमंत्री की उस हेकड़ी जैसा है कि विदेशों में छिपे हुए कालेधन को देश में वापस लाने से प्रत्येक व्यक्ति के खाते में 15 लाख रुपया आ जाएगा। यदि आप बेरोजगार नौजवान हैं तो इस 15 लाख रुपए अपनी जमा राशि का आनंद उठाएं, मुद्रा योजना के अंतर्गत रोजगार हासिल कर लें, भोजन के स्थान पर आंकड़े खाएं और सदा-सदा के लिए चैन की नींद सोएं। मैं दोनों पार्टियों से उम्मीद करता हूं कि वे इस संबंध में आत्म चिंतन करेंगी।-पी. चिदम्बरम

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