वैज्ञानिक सोच बढ़ाने में ‘विज्ञान-फिल्मों’ का योगदान

Edited By ,Updated: 16 Nov, 2019 01:32 AM

contribution of  science films  in enhancing scientific thinking

यह कहना कि विज्ञान हमारी सोच को बदल सकने की ताकत रखता है, कल्पना और वास्तविकता का भेद समझा सकता है और जीवन जीने को आसान बना सकता है, न केवल सौ प्रतिशत सही है बल्कि अंधविश्वास से मुक्ति दिला सकने में भी सक्षम है। इसीलिए कहा जाता है कि विज्ञान कभी...

यह कहना कि विज्ञान हमारी सोच को बदल सकने की ताकत रखता है, कल्पना और वास्तविकता का भेद समझा सकता है और जीवन जीने को आसान बना सकता है, न केवल सौ प्रतिशत सही है बल्कि अंधविश्वास से मुक्ति दिला सकने में भी सक्षम है। 

इसीलिए कहा जाता है कि विज्ञान कभी असफल नहीं होता, वह किसी प्रयोग के उम्मीद के मुताबिक परिणाम न देने से अनुसंधान और आविष्कार को नई तथा अनजान दिशाओं को खोजने की प्रेरणा देता है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा हाल ही में चांद पर उतरने की कोशिश में आई कमी का विश्लेषण करने और यह समझने कि ‘क्या गलत हुआ’ के बाद अगले साल एक बार फिर चांद पर उतरने की घोषणा करना इसका एक उदाहरण है। 

विज्ञान कभी हार नहीं मानता और उसके बाद जब नए प्रयासों तथा निरंतर खोजबीन करते रहने से कोई नई उपलब्धि मिलती है तो वह चमत्कार की तरह लगता है, विज्ञान एक वट वृक्ष की भांति अपनी शाखाओं और प्रशाखाओं का निरंतर विस्तार करता रहता है, उसमें नित्य नई कोंपलें फूटती रहती हैं और एक बार यह जानने का चस्का लग गया कि ‘आखिर ऐसा होता कैसे है’ तो फिर प्रत्येक चीज को विज्ञान की कसौटी पर कसने की लत लग जाती है जिसे हम वैज्ञानिक सोच का नाम देते हैं। 

विज्ञान की अभिव्यक्ति 
विज्ञान को जन-जन तक पहुंचाने और देशवासियों की सोच को एक वैज्ञानिक की तरह बनाने में फिल्म एक ऐसा माध्यम है जो मुश्किल से मुश्किल समस्या को सुलझाने का तरीका बताने और अनेक जटिल प्रशनों के उत्तर और उनकी व्याख्या साधारण भाषा में करने के लिए सबसे अधिक कारगर है। विज्ञान फिल्मों के लिए विशेष रूप से बनाए गए मंच अर्थात फिल्म समारोह विभिन्न क्षेत्रों में विकसित टैक्नोलॉजी को जनता तक पहुंचाने का जरिया है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए इंडिया इंटरनैशनल साइंस फैस्टीवल की शुरूआत सन् 2015 में हुई ताकि यह दिखाया और बताया जा सके कि हमारा देश विज्ञान की मदद से किस तेजी से आगे बढ़ रहा है। 

इस समारोह का पांचवां संस्करण 5 से 8 नवम्बर तक कोलकाता में भारत सरकार के संस्थान विज्ञान प्रसार द्वारा नोडल एजैंसी के रूप में भव्यता के साथ आयोजित किया गया जिसमें सत्यजीत रे फिल्म एवं टैलीविजन संस्थान का महत्वपूर्ण योगदान था। भारतीय फिल्म निर्माताओं की दो सौ से अधिक प्राप्त फिल्मों में से छप्पन फिल्में नॉमीनेट हुईं, जिनका प्रदर्शन संस्थान के विभिन्न सभागारों में हुआ। इनके अतिरिक्त ‘परमाणु’ और ‘मिशन मंगल’ जैसी फीचर फिल्में भी दिखाई गईं और उनके निर्देशकों ने दर्शकों से संवाद के दौरान विज्ञान और उससे जुड़े विषयों पर फिल्म निर्माताओं के सामने आने वाली कठिनाइयों के साथ-साथ निर्माण के दौरान आने वाली चुनौतियों का जिक्र भी किया। 

पर्यावरण, प्रदूषण, रासायनिक जोखिम, वन्य जीव संरक्षण, रोग निदान, योग, स्वास्थ्य, वैकल्पिक ईंधन, ऊर्जा, सर्प दंश, स्टार्टअप, जल संरक्षण, सिंचाई संसाधन, पीने का पानी, नेवीगेशन, मोरिंगा की खेती, साफ-सफाई, सूक्ष्म कीट, अंतरिक्ष, बदलता मौसम, कीटनाशक, आदिवासी जीवन, मधुमेह से बचाव, दिव्य नयन, कैंसर निदान, दिमागी बुखार, प्लास्टिक उपयोग जैसे विषयों पर फिल्में एक आम दर्शक के मन में जिज्ञासा पैदा करने में सहायता करती हैं कि किस प्रकार विज्ञान और प्रौद्योगिकी हमारी जीवनशैली को बेहतर बना सकती है। योग क्रियाओं से बेहतर जीवन जीने की कला समझाती फिल्म ‘सत्यम’ और बंद कमरे में कार्बन मोनो आक्साइड से मृत्यु तथा मौसम में होने वाले गंभीर बदलाव से आने वाले खतरे की चेतावनी जैसी फिल्में सार्वजनिक रूप से, विशेषकर विद्यालयों में दिखाई जानी चाहिएं। 

यह जानना अपने आप में ही भयावह है कि हमारे देश में पचास हजार से ज्यादा मौतें हर साल सांप के काटने से हो जाती हैं और हमारे पास इन्हें रोकने के लिए पर्याप्त साधन नहीं हैं, अभी भी पीड़ित का उपचार सपेरा और झाड़-फूंक से इलाज करने वाला ढोंगी ही करता है। मोरिंगा की खेती पर बनी फिल्म से एहसास हुआ कि बढिय़ा सेहत और लम्बी उम्र पाने का यह बेहतरीन उपाय है। 

कैंसर और फैलेरिया जैसी घातक बीमारियों का निदान संभव है। जिन प्रदेशों में पराली जलाने से प्रदूषण की गंभीर समस्या पैदा होती है उनके लिए इससे बचने की टैक्नोलॉजी उपलब्ध है। फलों और सब्जियों में से कीटनाशक दूर करने के उपाय हैं, नेत्र ज्योति से वंचित लोगों के लिए दिव्य नयन जैसे यंत्र हैं। जल संरक्षण और शुद्ध पेयजल से लेकर खेती में इस्तेमाल होने वाले हानिकारक रसायनों के विकल्प तैयार हैं। खाद्य पदार्थों के उत्पादन के समय प्रयोग में लाए गए नुक्सान देने वाले तत्व, बचाव से लेकर जमीन की उपजाऊ शक्ति बनाए रखने के उपाय हमारे वैज्ञानिकों ने सुलभ करा दिए हैं। यहां तक कि शहर हो या देहात, गंदे नालों की सफाई और उनमें पैदा होने वाली जानलेवा गैस को बेअसर करने वाली टैक्नोलॉजी उपलब्ध है। पशुपालन में आधुनिक तकनीकों से न केवल अधिक दूध उत्पादन हो सकता है बल्कि उनसे प्राप्त होने वाले गोबर से खाद और ईंधन भी मिलता है। 

जरूरत किस बात की 
हमारे देश में ही विज्ञान से संबंधित विषयों पर हर साल सैंकड़ों फिल्में बनती हैं और विदेशों से आने वाली फिल्मों की संख्या हजारों में है लेकिन विडम्बनापूर्ण स्थिति यह है कि इनका प्रसारण केवल फिल्म समारोहों अथवा उनके उद्घाटन तक ही सिमट कर रह जाता है। इससे बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण अवस्था यह है कि हमारे वैज्ञानिकों के अथक परिश्रम से तैयार की गई टैक्नोलॉजी उसी तरह अलमारियों में बंद होकर व्यर्थ हो जाती है जिस प्रकार किसी फिल्म निर्माता द्वारा उस पर बनाई गई फिल्म एक बार प्रदशर््िात होने या देखने के बाद भुला दी जाती है। 

क्या सरकार और प्रशासन को कोई ऐसी नीति नहीं बनानी चाहिए जिससे जीवन को बेहतर बना सकने की क्षमता रखने वाली विकसित और प्रामाणिक टैक्नोलॉजी पर अमल किए जाने की कानूनी अनिवार्यता हो। अंतरिक्ष, आणविक, अस्त्र-शस्त्र जैसे विषयों को लेकर वैज्ञानिक प्रगति की बात करना और उनसे संबंधित नीति बनाने के बारे में अक्सर सुनने को मिलता है लेकिन ऐसा देखने और सुनने में कभी-कभार ही आता है कि सामान्य जन की सहूलियत के लिए किसी टैक्नोलॉजी पर अमल करने की नीति बनाई गई हो। 

विज्ञान की मदद से प्रदूषण, मौसम परिवर्तन, पर्यावरण संरक्षण से लेकर जनसंख्या में बढ़ौतरी तक को रोकने में सफलता मिल सकती है। यदि विकासशील या पिछड़े देश की पंक्ति से निकलकर विकसित देशों में शामिल होना है तो वैज्ञानिक सोच और विज्ञान सम्मत उपायों पर अमल करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं है।-पूरन चंद सरीन

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