कोई तो कहे डर के आगे जीत है

Edited By ,Updated: 29 Apr, 2021 04:35 AM

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इन दिनों देखती हूं कि तमाम माध्यमों में डर तरह-तरह के रैपर्स में लपेटकर बेचा जा रहा है। सोशल मीडिया से लेकर ग्रोसरी वाले तक आयुर्वेद विशेषज्ञ बन बैठे हैं। यूं अपने उत्पाद को डर दिखाकर बेचना हमेशा से मुनाफे का सबसे आसान उपाय रहा

इन दिनों देखती हूं कि तमाम माध्यमों में डर तरह-तरह के रैपर्स में लपेटकर बेचा जा रहा है। सोशल मीडिया से लेकर ग्रोसरी वाले तक आयुर्वेद विशेषज्ञ बन बैठे हैं। यूं अपने उत्पाद को डर दिखाकर बेचना हमेशा से मुनाफे का सबसे आसान उपाय रहा है। और जब महामारी हो तो कहने ही क्या। इसीलिए किसी भी चीज को इम्युनिटी बढ़ाने वाला बताकर बेच दो। डर का कारोबार जोरों पर है। 

चैनल्स में तो हालत यह है कि जलती चिताओं को, लाइन में रखे शवों को बार-बार दिखाया जाता है। इन दृश्यों को जो लोग देखते हैं, उनमें घबराहट बढ़ती है।पहले पत्रकारिता के छात्रों को सिखाया जाता था कि ऐसी बातें न लिखें, न  दिखाएं , जिससे लोग घबराएं, परेशान हों। डरें। क्योंकि इससे मुसीबत और अधिक बढ़ती है।

अफरा-तफरी फैलती हैतमाम मनोवैज्ञानिक और विशेषज्ञ कह रहे हैं कि आदमी कोरोना से बच भी जाए, मगर जिस तरह से पैनिक चारों ओर है, उससे दूसरी बीमारियों से खत्म हो सकता है। हालत तो यह है कि बुखार या खांसी आने पर आदमी समझता है कि उसे कोरोना हो गया है। फिर वह सोचता है कि अस्पताल जाए। क्या अस्पताल जाने लायक इतने पैसे जेब में हैं कि अस्पतालों में वसूली जाने वाली मनमानी फीस दे सके। एम्बुलैंस को दो किलोमीटर का दस हजार दे पाए। आक्सीजन सिलैंडर्स और दवाओं को दस से सौ गुने दामों पर  कालाबाजार से खरीद सके। 

मान लो कि अस्पताल पहुंच भी जाए, तो वहां दाखिला आसान नहीं। दाखिला हो भी जाए तो दवा और ऑक्सीजन नहीं। आस-पास कोई परिजन भी नहीं। इन तमाम कारणों से लोग डर रहे हैं। घबरा रहे हैं। अवसाद के शिकार हो रहे हैं। आत्महत्याओं की खबरें आ रही हैं। ऐसी बेबसी क्या पहले कभी देखी है।दादी, नानी और मां के सुनाए पिछली सदी के प्लेग के किस्से जरूर याद हैं। मशहूर लेखक रांगेय राघव के लिखे बंगाल के अकाल के संस्मरण याद आ रहे हैं। इन दिनों हर जगह लाशों के अम्बार दिखाई दे रहे हैं। चौबीस-चौबीस घंटे में दाह संस्कार की नौबत आ रही है।

ऐसे में फेसबुक पर एक आदमी ने लिखा कि परसों मेरी आंटी की मृत्यु हुई थी तो बनारस के हरिश्चंद्र घाट के पंडित ने पच्चीस हजार लिए। आज मां के दाह संस्कार के लिए तीस हजार लिए। परसों की याद दिलाने पर कहा कि वह परसों का रेट था। मेरठ में दाह संस्कार के लिए जब पंडित पच्चीस हजार मांग रहा था और प्रशासन ने दखल दिया, तो पंडितों ने बायकाट कर दिया। ये ही लोग हैं न जो बात-बात पर कहते हैं कि सब माया है। खाली हाथ आए हो, खाली हाथ जाना है। कुछ साथ नहीं जाएगा। लेकिन मौका मिलते ही सबसे पहले इस बात को भूलते हैं। हर आपदा कैसे लूटने का अवसर बनती है। लेकिन इस दौर में जो लूट रहे हैं, उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि बीमारी से उनकी कोई रिश्तेदारी नहीं है। 

इतनी नकारात्मकता में लगता है कि कोई तो धीरज देने वाला हो। कहीं से तो यह आसरा मिले कि कोई बात नहीं सब ठीक हो जाएगा। कोई तो कहे कि अंधेरे के बाद उजाला आता है। हर रात की सुबह होती है। इस मुश्किल वक्त में पॉजिटिव खबरें भी बहुत हैं। मगर नैगेटिविटी चूंकि बिकती है, इसलिए उन पर कोई ध्यान नहीं देता। वरना लोग अपनी-अपनी तरह से इस आपदा का न केवल मुकाबला कर रहे हैं, बल्कि दूसरों की मदद भी कर रहे हैं। बहुत-सी संस्थाएं कोरोना पीड़ित परिवारों को खाना पहुंचा रही हैं। कई मंदिरों में कोविड सैंटर बनाए गए हैं। गुरुद्वारे न केवल भोजन पहुंचा रहे हैं, बल्कि ऑक्सीजन लंगर तक चला रहे हैं। लोगों को मुफ्त में आक्सीजन सिलैंडर मुहैया कराए जा रहे हैं। एक आटो चालक फ्री में लोगों को अस्पताल पहुंचा रहा है।

हिन्दू-मुसलमान जहां मौका मिल रहा है, वहां एक-दूसरे की मदद कर रहे हैं। अपनी निजी मुश्किलों को भूलकर बहुत से लोग पीड़ितों के मददगार बन रहे हैं। लोग खाने से लेकर, अस्पताल में एडमिशन, ऑक्सीजन यहां तक कि दाह संस्कार के लिए भी पुलिस को पुकार रहे हैं।  लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि वातावरण में जो भय और आतंक का माहौल है, उसे कैसे कम किया जाए। बल्कि जो लोग घरों में हैं, कोरोना के अलावा भी तरह-तरह के रोगों से ग्रस्त हैं, परिवार में हैं या अकेले हैं, उनके लिए ऐसे कार्यक्रम दिखाए जाएं, डर पर जीत की कथाएं सुनाई जाएं, जिससे कि उनमें आशा का संचार हो सके। वे जीने की उम्मीद पा सकें।-क्षमा शर्मा
 

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