Edited By Pardeep,Updated: 08 Aug, 2018 03:52 AM
अलवर हत्याकांड की वीभत्स जानकारियां उजागर हुई हैं। अगर पुलिस ने समय पर कदम उठाया होता तो पीड़ित रकबर खान की जान बचाई जा सकती थी। वास्तव में पुलिस बल चाय पीने के लिए रुका और उसने पीड़ित को अस्पताल पहुंचाने में साढ़े 3 घंटे बर्बाद कर दिए। वह ज्यादा खून...
अलवर हत्याकांड की वीभत्स जानकारियां उजागर हुई हैं। अगर पुलिस ने समय पर कदम उठाया होता तो पीड़ित रकबर खान की जान बचाई जा सकती थी। वास्तव में पुलिस बल चाय पीने के लिए रुका और उसने पीड़ित को अस्पताल पहुंचाने में साढ़े 3 घंटे बर्बाद कर दिए। वह ज्यादा खून बहने से मर गया। अगर सारे तथ्यों को जोड़ेंगे तो यही निष्कर्ष निकलेगा कि पुलिस ने जानबूझ कर देर की।
पीड़ित का धर्म, उसका मुसलमान होना ही उसकी बर्बादी का कारण बना। इसकी ज्यादा जानकारी तो जांच से ही मिलेगी लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि पुलिस की ज्यादा दिलचस्पी उसकी जान बचाने में नहीं, बल्कि दो गायों को बरामद करने में थी। गायों को 10 किलोमीटर दूर गौशाला ले जाया गया और खान को हमले की जगह से 6 किलोमीटर दूर सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र पहुंचाने के पहले एक घंटा इसमें बर्बाद किया गया।
अल्पसंख्यकों के बीच खौफ पैदा करने वाली खून की प्यासी इन भीड़ों के बारे में जो आंकड़े सामने आए हैं, वे बताते हैं कि 2010 के बाद से गाय से संबंधित हिंसा के 86 प्रतिशत मामलों में पीड़ित की मौत हो गई और 97 प्रतिशत घटनाएं 2014 के बाद हुई हैं। हत्या या हमला समेत जब भी ऐसी घटनाएं हुई हैं, तथाकथित गौरक्षा के इन मामलों में सदैव मुसलमान या दलितों को ही चोट सहनी पड़ी है। समाज को विविधतावादी बनाने के हमारे प्रयासों पर यह एक दुखद टिप्पणी है। महात्मा गांधी अपनी प्रार्थनाओं में ङ्क्षहदू-मुस्लिम एकता पर जोर देते थे। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी इस पर जोर दिया और एकता की दलील को मजबूत करने के लिए कदम उठाए जिसमें संस्थानों में दाखिले या नौकरी के लिए आवेदन करने के फार्म से धर्म का कालम हटा देना शामिल था।
धर्म के आधार पर खींची गई रेखा हमें बार-बार तंग करती है। अपनी 17 करोड़ की आबादी के बावजूद सरकार के प्रशासनिक मामलों में मुसलमानों का कोई महत्व नहीं है। वे अलग जगह रहते हैं और इनके झुग्गियों में तबदील हो जाने के बाद भी वे वहां साथ रहने में सुरक्षित महसूस करते हैं। जब दिल्ली में दंगे हुए थे, मैं एक कार्यकत्र्ता के रूप में समुदाय की मदद कर रहा था। एक कार्यरत जज ने झुग्गी में ही रहना पसंद किया और उन्होंने मुझसे कहा कि वह वहां सुरक्षित महसूस करते हैं। जाहिर है, पुलिस के प्रशिक्षण में खामी है। सरकार ने लम्बे समय तक मस्जिद, मंदिर तथा गुरुद्वारा को पुलिस लाइन से बाहर रखा लेकिन विभिन्न नेताओं ने लोगों को धार्मिक समूह के रूप में ही देखा और उनकी संकीर्ण प्रवृत्तियों का ही पोषण करते रहे।
हमें खुद से यह सवाल करना चाहिए कि कानून के रक्षक ही क्यों इसे तोडऩे वाले बन रहे हैं। अब मस्जिद, मंदिर और गुरुद्वारा को वहां इजाजत दे दी जाती है जहां वे रहते हैं। वे इनका कानफोड़ू शोर सुनते रहते हैं। समुदायों के लिए अलग-अलग स्कूल हैं। मदरसों में विश्वास गहरा हो गया है क्योंकि मुसलमान अपनी पहचान बचाना चाहते हैं। मैंने ये सारे सवाल राज्यसभा में उठाए जब 90 के दशक में मुझे इसमें मनोनीत किया गया। मेरे सवालों का निशाना कांग्रेस थी क्योंकि आजादी के बाद से इसी ने देश पर शासन किया था। इसकी बजाय कि वह इसके जवाब देते, इस मुद्दे के प्रति अपनी अरुचि दर्ज करने के लिए उस समय कांग्रेस के शीर्ष नेता प्रणव मुखर्जी सदन से बाहर चले गए।
शायद, राष्ट्र को प्रेरित करने में विफल होने के लिए मेरी सीधी आलोचना को यह कांग्रेस का जवाब था। पाकिस्तान की इस्लामिक व्यवस्था के विपरीत हमने सैकुलरिज्म को अपनी विचारधारा के रूप में ग्रहण किया। दुर्भाग्य से मुस्लिम समुदाय दूर खड़ा है। ऐसा महसूस होता है कि यह बंटवारे के लिए कुछ हद तक जिम्मेदार है। यह पूरी तरह सच नहीं है। मुसलमानों में विश्वास पैदा करने में हिंदू नाकामयाब रहे। कुछ कट्टरपंथी उन विचारों का प्रचार करते रहे जिन्हें उन्होंने अपना रखा था। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी का आजादी के आंदोलन से कोई संबंध नहीं था, इसलिए उसकी विचारधारा वही रही जिसका प्रचार उस समय के बड़े नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने किया। यह हिंदू राष्ट्र बनाने का दर्शन था। जय प्रकाश नारायण ने कट्टर हिंदुओं को भी जनता पार्टी में लाने और उनके कहे पर चलने में सफलता पाई। उन्होंने अपनी टोपी भी छोड़ दी जो उनका प्रतीक थी।
लेकिन आर.एस.एस. से संबंध इसमें बाधा थी। जब जे.पी. ने उस समय के जनसंघ के नेताओं को आर.एस.एस. से संबंध तोडऩे के लिए कहा तो उन्होंने अपनी अलग पार्टी बनाना बेहतर समझा। एल.के. अडवानी ने भाजपा की स्थापना की। कुछ प्रतिबद्ध सदस्य आर.एस.एस. के साथ गए और बाकी जे.पी. के साथ रह गए। अंत में मामला केन्द्रीय नेतृत्व के सामने पहुंचा। वहां जनसंघ हार गया। यही समय था कि अटल बिहारी वाजपेयी नेता के रूप में उभरे क्योंकि वह सबको स्वीकार्य थे। उन्होंने लोगों का विश्वास बनाए रखा क्योंकि वह बस लेकर लाहौर गए जिसमें हर राजनीतिक पार्टी के सदस्य थे।
अपने नागरिक सम्मान में उनका भाषण इतना अपनी ओर खींचने वाला था कि कुछ लोग मेरी सेवा लेने आए कि मैं नवाज शरीफ से भाषण नहीं देने का आग्रह करूं क्योंकि माहौल पूरी तरह वाजपेयी के पक्ष में था। नवाज शरीफ ने कहा कि वह मूर्ख नहीं हैं कि वाजपेयी के भाषण के बाद बोलें। इसकी बजाय उन्होंने कहा कि अगर वाजपेयी पाकिस्तान में चुनाव लड़ें तो वह भारी मतों से जीतेंगे। भाजपा उसके बाद से काफी लम्बा रास्ता तय कर चुकी है। प्रधानमंत्री मोदी दूसरा वाजपेयी बनने के प्रयास में हैं लेकिन सफल नहीं हो रहे हैं। वाजपेयी आदर्श हैं क्योंकि वह कांग्रेस के समर्थकों को भी प्रभावित कर पाते थे। मुझे याद है कि मैं जब हाई कमिश्नर था तो वह लंदन आए थे। उस समय बाबरी मस्जिद चर्चा में थी। वाजपेयी ने कहा, ‘‘राम भक्त अयोध्या गए हैं और जो देश से प्यार करते हैं वे यहां आ गए हैं।’’
हालांकि मोदी ‘सबका साथ, सबका विकास’ पर जोर दे रहे हैं, लगता है आर.एस.एस. प्रमुख मोहन भागवत ने एक समानांतर अभियान शुरू कर रखा है कि ज्यादा से ज्यादा उम्मीदवार उनके हों ताकि जब चुनाव के बाद प्रधानमंत्री चुनने का समय आए तो उस पर आर.एस.एस. की छाप हो। अलवर-हत्याकांड जैसे उदाहरण आर.एस.एस. तथा भाजपा को नीचे उतार देंगे क्योंकि देश का मूड आर.एस.एस. के इरादों से मेल नहीं खाता। राष्ट्र विविधतावादी रहना चाहता है।-कुलदीप नैय्यर