एक ‘नया केरल’ बनाना बहुत बड़ा कार्य परन्तु...

Edited By Pardeep,Updated: 15 Sep, 2018 04:30 AM

creating a  new kerala  is a huge task but

अगस्त, 2018 में केरल में कुदरत के गुस्से के मद्देनजर हुए व्यापक विनाश की गूंज अभी भी सुनाई दे रही है। कुदरत इतनी प्रचंड तथा ‘परमात्मा के अपने देश’ के लोगों के प्रति इतनी दयाहीन कैसे हो सकती है? यही पीड़ादायक प्रश्र 2013 में देव भूमि गंगोत्री,...

अगस्त, 2018 में केरल में कुदरत के गुस्से के मद्देनजर हुए व्यापक विनाश की गूंज अभी भी सुनाई दे रही है। कुदरत इतनी प्रचंड तथा ‘परमात्मा के अपने देश’ के लोगों के प्रति इतनी दयाहीन कैसे हो सकती है? यही पीड़ादायक प्रश्र 2013 में देव भूमि गंगोत्री, जोशीमठ, बद्रीनाथ, केदारनाथ तथा पिंडारी ग्लेशियर तथा हिमाचल प्रदेश में हिमालय के पर्यटन स्थलों में हुई मानवीय क्षति के समय भी उठाया जा सकता था। 

इस विशाल प्राकृतिक आपदा के बीच चर्चा के लिए उतना ही महत्वपूर्ण मुद्दा केन्द्र, राज्य तथा संचालन स्तरों पर नेतृत्व की गुणवत्ता का है। मैं इसे कोई रंग नहीं देना चाहता जैसे कि सफेद, हरा, लाल अथवा भगवा आदि। एक पत्रकार होने के नाते मैं अपने नेताओं को उनकी प्रत्येक स्थिति की पेचीदगियों को लेकर समझ तथा पीड़ित लोगों के दर्द के प्रति उनकी प्रतिक्रिया की कसौटी पर देखता हूं। यहीं पर मेरी निराशा शुरू होती है। निश्चित तौर पर प्रत्येक व्यक्ति के गुणों में विभिन्नता हो सकती है। यहां मैं उनके गुणों तथा अवगुणों का जिक्र नहीं कर रहा। मेरी चिंता यह है कि कुदरत का यह प्रकोप क्यों और कहां हम नीतियों, योजनाओं, विकास तथा प्रशासन में कुदरत के साथ खेलते हुए गलती कर बैठे? 

मेरा बड़ा प्रश्र यह है कि हमारे जैसी एक संघीय लोकतांत्रिक प्रणाली में क्यों हमारे केन्द्रीय नेताओं को माई-बाप तथा अन्नदाता जैसा व्यवहार करना चाहिए, जैसा कि पुराने समय में महाराजा करते थे? किसी आपदा के आकलन का काम एक संयुक्त संसदीय समिति के साथ विशेषज्ञों के एक पैनल के पास होना चाहिए जबकि फौरी राहत तथा ग्रांट्स केन्द्रीय अथारिटी द्वारा शीघ्रतापूर्वक दी जा सकती हैं। यही लोकतांत्रिक प्रशासन का काम है। चाहे जो भी हो, ‘परमात्मा के अपने देश में’, चारधाम तथा अन्य बाढ़ प्रभावित राज्यों में इस दुखदायी स्थिति में एकमात्र उम्मीद की किरण माऊंटेन डिवीजन, पैराट्रूपर्स के हिम्मती प्रयास, नौसेना तथा वायुसेना की बचाव कार्रवाइयां, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के कर्मचारियों तथा स्वयंसेवियों, मछुआरों तथा 600 नावों के बेड़े के केरल में ग्रामीणों को बचाने के प्रयास थे। 

हमें देश भर के लोगों का भी शताब्दी की सबसे बुरी बाढ़ से प्रभावित केरल के लाखों लोगों के लिए अपनी मर्जी से सहायता के हाथ बढ़ाने के लिए धन्यवाद करना चाहिए। राज्य सरकार के अनुमान के अनुसार 20,000 करोड़ रुपए का नुक्सान हुआ है। आगे किए जाने वाले बड़े कार्य के लिए केन्द्र सरकार की 700 करोड़ रुपए की सहायता पर्याप्त से कहीं कम है। बेचैन करने वाली बात इस अप्रत्याशित मानवीय त्रासदी में खेली जाने वाली राजनीति है। कई तरह की बीमारियों तथा स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों को नियंत्रित करने का एक बहुत बड़ा काम आगे करने वाला है। एन.बी.एम.ए. के अधिकारी 3आर के विचार के साथ आगे बड़े हैं-एक रैस्क्यू, रीकूप तथा रिहैब्लिटेशन। केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने पहले ही एक ‘नए केरल’ के लिए आह्वान किया है मगर एक नया केरल बनाना बहुत बड़ा कार्य है। यह तब तक काम नहीं करेगा जब तक हम अतीत की गलतियों से नहीं सीखते। वर्तमान के लिए मुख्य चुनौती बाढ़ से पहले तथा बाद के सॉलिड वेस्ट का प्रबंधन है। इसके बारे में विशेषज्ञ बेहतर जानते हैं। 

एक विशेषज्ञ के अनुसार, केवल बड़े बांधों के निर्माण से मदद नहीं मिलेगी। जब अत्यधिक वर्षा होती है तो बांधों के गेट खोल दिए जाते हैं जो भयानक बाढ़ का कारण बनते हैं। इसकी बजाय हमें बाढ़ प्रबंधन पर काम करने की जरूरत है, जिसका मूलत: अर्थ जल बहाव के पारम्परिक क्षेत्रों से कब्जे हटाना तथा अतिरिक्त पानी के समुद्र में सुगम बहाव को सुनिश्चित करना है। केन्द्रीय जल आयोग (सी.डब्ल्यू. सी.) के अनुसार बाढ़ें भारत में सभी प्राकृतिक आपदाओं में मरने वाले 84 प्रतिशत मौतों के लिए जिम्मेदार हैं। सी.डब्ल्यू.सी. के पूर्व चेयरपर्सन ए.बी. पांड्या अपने अध्ययन में बताते हैं कि विनाश से पहले तथा बाद के लिए एक प्रभावी तंत्र की जरूरत है क्योंकि ‘प्रकृति पर नियंत्रण नहीं  किया जा सकता, विनाश को घटाया जा सकता है’ और जीवन तथा अर्थव्यवस्था पर इसके प्रभाव को कम किया जा सकता है। 

वल्र्ड वाइल्ड लाइफ के अनुसार ‘हम प्रति वर्ष 1.87 करोड़ एकड़ वन खो रहे हैं जो प्रति मिनट फुटबाल के 27 मैदानों के बराबर है।’ यह याद रखा जाना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने में वन बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ. के अनुसार सभी ग्रीन हाऊस गैसों का 15 प्रतिशत उत्सर्जन वनों की कटाई के परिणामस्वरूप है। यद्यपि महत्वपूर्ण प्रश्र यह है कि कौन वन काटने के माफिया गैंग्स पर काबू पाएगा जो आमतौर पर राजनीतिक-नौकरशाही संरक्षकों के साथ मिलकर काम करते हैं? बाढ़ें, भूस्खलन तथा पर्यावरण का चिंताजनक पतन कई दशकों से जारी है क्योंकि हमारे राजनीतिज्ञों ने खनन, ऊंचे बांध बनाने तथा पावर प्लांट्स के निर्माण की बिना सोचे-समझे इजाजत दी। 

इतनी ही अफसोसजनक बात यह है कि पर्यावरणीय आपदाओं को लेकर विशेषज्ञों द्वारा किए गए बड़ी संख्या में अध्ययन दफ्तरों के कोनों में धूल फांक रहे हैं, जिन पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। कोई हैरानी की बात नहीं कि आपदाएं आती-जाती रहती हैं मगर दुख की बात यह है कि हमारे शासक आमतौर पर मानवीय त्रासदियों को नजरअंदाज कर देते हैं। हमें नए विकास के सिद्धांतों तथा परिप्रेक्ष्य की लगभग अकार्यशील यथास्थिति को चुनौती देनी होगी ताकि केरल तथा पवित्र हिमालय क्षेत्र में आपदाओं की पुनरावृत्ति को टाला जा सके। यह आज के ‘सूचना विज्ञान’ के दौर में कठिन नहीं होना चाहिए, बशर्ते खुद सूचना को सत्ता में बैठे लोगों के निहित स्वार्थों के कारण तोड़ा-मरोड़ा न गया हो। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी, केरल तथा ‘देवभूमि’ दोनों ही बेहतर बर्ताव के हकदार हैं।-हरि जयसिंह

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