कानून की दहलीज पर ‘अपराध पीड़ित’ व्यक्तियों की गुहार

Edited By ,Updated: 17 Sep, 2020 04:54 AM

crime victims pleading at the threshold of law

किसी भी अपराध से पीड़ित, लाचार, असमर्थ व्यक्ति के मानसिक पटल पर गहरे शोक व डर की परछाइयां बनी होती हैंक्योंकि उसे लगता है कि अपराध से उसका जो मानसिक, शारीरिक व धन का उत्पीडऩ हुआ है, उसकी भरपाई होना नामुमकिन है। वह समझता है कि कानून

किसी भी अपराध से पीड़ित, लाचार, असमर्थ व्यक्ति के मानसिक पटल पर गहरे शोक व डर की परछाइयां बनी होती हैंक्योंकि उसे लगता है कि अपराध से उसका जो मानसिक, शारीरिक व धन का उत्पीडऩ हुआ है, उसकी भरपाई होना नामुमकिन है। वह समझता है कि कानून की पेचीदगियां उसे न्याय से वंचित कर देंगी तथा उसकी चीत्कार-क्रन्दन करतीं सिसकियां उसे आंसू बहाने को मजबूर कर देंगी। 

न्याय का पहला पड़ाव तो पुलिस का ही होता है, यहां पर फरियादी की चीखो-पुकार का संज्ञान लिया जाता है तथा इस पड़ाव से गुजरना मानो वैतरणी नदी की तरह होता है जिसे पार करना उसके लिए  बहुत बड़ी बात होती है। उसके बाद उसे ऐसे समुद्रों को पार करना होता है जोकि उसे बहुत ही गहरे व डरावने लगते हैं। न्याय की देवी के तराजू का पलड़ा न जाने किस ओर भारी पड़ जाए, उसे यह पता नहीं होता। अंग्रेजों के समय से चलते आ रहे विधि-विधानों में कोई विशेष संशोधन नहीं हुए हैं तथा फरियादियों का दुखभरी दास्तां का वर्णन कुछ इस तरह से है। 

1) पीड़ित व्यक्ति को अपने मुकद्दमे के ट्रॉयल में भाग लेने की अनुमति नहीं होती। शायद यह इसलिए कि उसके भाग लेने से मुकद्दमे के गवाह प्रभावित हो सकते हैं। कितनी विडम्बना है कि वह न्यायालय की इस प्रक्रिया को देखने व सुनने से वंचित किया गया है।
2)  पीड़ित को न्यायालय में अपना बयान देते समय उससे सरकारी पक्ष भी पूछताछ कर सकता है जबकि मुलजिम को केवल सरकारी पक्ष ही जिरह करता है।  ऐसी स्थिति में पीड़ित के मन पर अधिक तनाव बना होता है तथा उसकी विचलित होने वाली स्थिति  से इंकार नहीं किया जा सकता जिससे कई बार वह सही तथ्यों को प्रस्तुत करने में असमर्थ हो जाता है।
3) पीड़ित व्यक्ति को अपना बयान दर्ज करवाने हेतु पहले थानों/चौकियों तथा फिर न्यायालय में बार-बार बुलाया जाता है तथा उसे मुलजिमों की तरह ही इधर-उधर खड़े होना पड़ता है। उसके न तो बैठने की उचित व्यवस्था होती है और न ही किसी प्रकार के नि:शुल्क जलपान की  सुविधा उपलब्ध करवाई जाती है। पुलिस थानों व न्यायालयों में पेशी पर आने-जाने के लिए उसे किराया दिए जाने की व्यवस्था तो है मगर अनपढ़ता के कारण उसे कई बार इन सभी सुविधाओं से वंचित  रहना पड़ता है।

4) पीड़ित व्यक्तियों को विशेषत: महिलाओं को मुलजिमों व उनके गुर्गों की तरफ से मुकद्दमे को रफा-दफा करने की धमकियां मिलती रहती हैं तथा उनके संरक्षण हेतु कोई भी विशेष प्रावधान नहीं बनाया गया है और मजबूरी में उन्हें इन शातिरों के साथ कई बार सहमति बनानी पड़ जाती है।
5) पीड़ित व्यक्ति को अपनी मानसिक, शारीरिक व वित्तीय हानि की भरपाई करने के लिए अपनी बदहाली पर आंसू बहाने के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त नहीं होता। हालांकि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 357 व प्रोबेशन ऑफ ओफैंडर एक्ट की धारा-5 के अंतर्गत पीड़ित व्यक्ति के नुक्सान की भरपाई हेतु मुलजिमों पर न्यायालय को जुर्माना लगाने का अधिकार है मगर यह अधिकार विवेकाधीन ही है तथा ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं है जिसके अंतर्गत यह भरपाई अपरिहार्य हो। 
6) पुलिस को कई बार कई मामलों में पीड़ित व्यक्तियों की वस्तुओं को भी साक्ष्य के रूप में कब्जे में लेना पड़ता है तथा जिसे न्यायालय के आदेशानुसार ही मुक्त करवाया जा सकता है। ऐसा करने के लिए पीड़ित व्यक्ति को वकीलों पर खर्च करना पड़ता है तथा न्यायालयों में पेश होना पड़ता है जबकि यह सारा काम सरकार की तरफ से नि:शुल्क रूप से हो जाना चाहिए था। 

7) न्यायालयों में मुकद्दमे वर्षों तक लम्बित पड़े रहते हैं तथा न्याय का इंतजार करते-करते कई बार तो पीड़ित व्यक्ति की मौत भी हो जाती है तथा उसे व उसके परिवार को देरी से मिला न्याय तो अन्याय के बराबर ही होता है। 
8) इसी तरह कुछ विशेष किस्म के मुकद्दमों जैसा कि बलात्कार इत्यादि को छोड़कर मुलजिम के विरुद्ध साक्ष्य प्रस्तुत करने का भार अभियोजन पक्ष पर ही डाला जाता है तथा पुलिस व अभियोजन पक्ष द्वारा केस को सिद्ध करने के लिए चाहे कितने भी साक्ष्य जुटाए गए हों, फिर भी मुलजिम को संशय का लाभ (बैनीफिट ऑफ डाऊट) देकर छोड़ दिया जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि न्यायिक प्रक्रिया में यह कानूनी सिद्धांत है कि ‘‘चाहे सौ में से निन्यान्वे अपराधी सजा मुक्त हो जाएं मगर किसी एक निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए।’’ जज साहिब तो एक निष्पक्ष रैफरी का ही काम करते हैं जबकि जस्टिस मॉलीमथ ने अपनी रिपोर्ट (2002) में लिखा था कि न्यायाधीश को सभी साक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए ही अपने विवेक का उचित प्रयोग करते हुए फैसला देना चाहिए मगर इस रिपोर्ट को प्रभावी नहीं बनाया गया तथा पुरानी प्रथा के आधार पर ही फैसला किया जाता आ रहा है।

उपरोक्त सभी तथ्यों के अतिरिक्त आम लोगों में कानून के प्रति जागरूकता नहीं है तथा उनकी अनभिज्ञता का फायदा मुलजिम अपने वकीलों के माध्यम से पूरी तरह उठाता है तथा पीड़ित के पास पूरे क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को कोसने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बचता।

किसी कानूनविद् ने ठीक लिखा है -
बल के बिना दिया हुआ इंसाफ, नपुंसक की तरह होता है।
तथा बिना न्याय से लगाया बल अत्याचार होता है।-राजेन्द्र मोहन शर्मा  डी.आई.जी. (रिटायर्ड) (हि.प्र.)
 

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