‘बेटियां’ घर के लिए बोझ : कब बदलेगी सोच

Edited By ,Updated: 19 Dec, 2019 01:49 AM

daughters a burden for the house when will the thinking change

जिस समाज में बेटियों को दुनिया में आने का हक न मिले वहां उनके दूसरे अधिकारों की बात करना बेईमानी है। आज बेटा-बेटी में फर्क की बदौलत लोगों के मन में बहुत गलत मानसिकता ने घर बना लिया है। तभी तो लिंग परीक्षण और भ्रूण हत्या जैसी कुरीतियां न केवल अपनी...

घर में होती हैं बेटियां जहां,
रोशनी हर पल रहती है वहां।
हरदम सुख की बरसे उस घर,
मुस्कान बिखेरे बेटियां जहां। 

जिस समाज में बेटियों को दुनिया में आने का हक न मिले वहां उनके दूसरे अधिकारों की बात करना बेईमानी है। आज बेटा-बेटी में फर्क की बदौलत लोगों के मन में बहुत गलत मानसिकता ने घर बना लिया है। तभी तो लिंग परीक्षण और भ्रूण हत्या जैसी कुरीतियां न केवल अपनी जड़़ें जमाए हुए हैं बल्कि देश में बने सख्त कानूनों के चलते इन्हें अंजाम देने के लिए नए रास्ते भी खोजे जा रहे हैं, जिससे देश में बने कानूनों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। प्राचीन समय से ही कन्याओं को समाज में अपने परिवार और समाज के लिए एक अभिशाप के रूप में देखा जाता है।

जिस कारण भारत में बहुत वर्षों से कन्या भ्रूण हत्या की प्रथा चल रही है। माता-पिता और दादा-दादी समझते हैं कि भविष्य में पुत्र ही परिवार का नाम आगे बढ़ाएगा और पुत्र होने में ही सम्मान मिलता है जबकि लड़कियां पति के घर के नाम को आगे बढ़ाती हैं। विवाह होने पर लड़़का वधू लाकर घर की लक्ष्मी में वृद्धि करता है जो घर के कामों में भी सहायता देती है और दहेज के रूप में आर्थिक लाभ पहुंचाती है जबकि बेटियां विवाह करवा कर चली जाती हैं तथा दहेज के रूप में आर्थिक बोझ देती हैं। अब यह हमारे देश की विडम्बना नहीं तो और क्या है। हमारे देश में ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ जैसे कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं क्योंकि बेटियों की स्थिति से हमारे देश की सरकार भी अंजान नहीं है। पिछले एक दशक में लगभग 1 करोड़ 33 लाख बालिकाओं के भ्रूण नष्ट किए गए हैं। यह केवल सरकारी आंकड़े हैं, असल आंकड़े तो इससे भी अधिक होंगे।

आज भी कई अस्पताल यह अनैतिक कार्य कर रहे हैं। दरअसल बेटी हो या बेटा, माता-पिता अपने हर बच्चे से बराबर प्रेम करते हैं। मगर बेटी पैदा होते ही माता-पिता को अनेक ङ्क्षचताएं सताने लगती हैं जैसे कि उसकी सुरक्षा की चिंता होने लगती है। अगर अच्छा पढ़ा-लिखा दिया जाए और अच्छी नौकरी भी लग जाए तो उससे कोई उम्मीद नहीं कर सकते क्योंकि वह दूसरे घर चली जाएगी। ऐसी बातें लोगों के मन में घर कर गई हैं, इसी कारण वे लोग बेटी को जन्म देना नहीं चाहते।

जैसे-जैसे बेटी बड़ी होती है माता-पिता की नींद उड़ जाती है। उसके घर से बाहर निकलते ही उसके घर आने तक वह चिंतित रहते हैं कि कहीं कोई ऊंच-नीच न हो जाए। अगर किसी की बेटी ने अपनी मर्जी से दूसरी जाति में विवाह कर लिया तब भी लोग माता-पिता और उनके द्वारा दिए गए संस्कारों पर ही उंगलियां उठाते हैं। अगर माता-पिता के पास पर्याप्त पैसा नहीं है तो दहेज का डर सताने लगता है। पहले पालन-पोषण, फिर दहेज, यहीं पर उन्हें  संतुष्टि नहीं मिलती। एक बात और गौर करने वाली है कि लड़की वालों को ही हमेशा झुकना पड़ता है। यह समाज की रीत है। और तो और एक बार बेटी को विदा करने के बाद अपने ही घर बुलाने के लिए पति के घर वालों से निवेदन करना पड़ता है। आखिर लड़की है क्या? लड़की बेटे की मां, पिता की पत्नी, भाई की बहन लेकिन आज हम उसका महत्व भूल गए हैं। 

आज के समय में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में लड़कियों का लड़कों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने के बावजूद भी उनको बराबरी की नजर से नहीं देखा जा रहा है। सरकार देश में नारे लगाती है ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ।’ क्या वास्तव में ऐसा हो रहा है? सामाजिक सोच में एक क्रांतिकारी परिवर्तन के बिना कन्या भ्रूण हत्या को रोकना बहुत ही मुश्किल है। इस विषय में सजा या जुर्माना करने से अधिक सामाजिक जागरूकता की आवश्यकता है।

वह कन्या है और वही जन्मदाता है,
तू कौन होता है जो तू उसे मिटाता है। 

सरकार द्वारा भी इस तरफ खासतौर पर ध्यान दिया जा रहा है। लोगों को आॢथक लाभ पहुंचाने हेतु बेटियों के लिए नई-नई योजनाएं प्रस्तुत की जा रही हैं जिनमें मोदी सरकार की पूरे भारतवर्ष में ‘सुकन्या समृद्धि योजना’ तथा योगी सरकार की ‘कन्या सुमंगल योजना’ महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। आॢथक रूप से जागरूक करने के साथ-साथ लोगों को सामाजिक रूप से भी जागरूक किया जा रहा है। इसी का परिणाम है कि बेटियों के जन्म के आंकड़े बदल गए हैं। ये आंकड़े लोगों की नई सोच की कहानी लिख रहे हैं। जनवरी से अक्तूबर 2015 के लिंग अनुपात के आंकड़े अच्छी सोच को दर्शा रहे हैं। 0-6 साल तक का लिंग अनुपात 848 से बढ़कर 941 पहुंच गया है जबकि साल 2011 की जनगणना के अनुसार यह आंकड़ा 847 था। 

पी.सी.पी.एन.डी.टी. जिला समन्वयक नंदलाल पूनिया जी के अनुसार जनवरी 2015 में तो बेटियों का आंकड़ा बेटों की संख्या से भी ज्यादा 1011 तक पहुंच गया है। ये सब बातें केवल मानसिक संतुष्टि देती हैं। क्या हमारी मानसिकता बदली है या केवल हम सरकार के डर से और सरकार द्वारा दिए जा रहे प्रलोभनों में उलझ कर ऐसा कर रहे हैं। केवल हमें अपनी मानसिकता बदलनी है। जब तक हम बेटा और बेटी में अंतर करना बंद नहीं कर देंगे, तब तक देश तरक्की नहीं कर पाएगा।

बिन बिटिया के कैसे बचेगा घर परिवार।
कैसे आएंगी खुशियां, कैसे बढ़ेगा संसार।
गर्भ से लेकर यौवन तक उस पर,
लटक रही है बस तलवार।-प्रि. डा. मोहन लाल शर्मा
 

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