फिल्मी गीतों में ‘नारी का समर्पणभाव’

Edited By Punjab Kesari,Updated: 01 Jul, 2018 03:50 AM

dedication of women in film songs

स्नेहमयी! सुंदरतामयी! तुम्हारे रोम-रोम से नारी, मुझे है स्नेह अपार। नारी पुरुष की सहधर्मिणी है। सनातन काल से उसमें पुरुष के प्रति समर्पण का भाव  है। वह भुजलता फंसाकर नर तरु से, झूले से झोंके खाती रही है। पुरुष ने चाहे उसे व्यक्तिगत सम्पत्ति समझा,...

स्नेहमयी! सुंदरतामयी! तुम्हारे रोम-रोम से नारी, मुझे है स्नेह अपार। नारी पुरुष की सहधर्मिणी है। सनातन काल से उसमें पुरुष के प्रति समर्पण का भाव  है। वह भुजलता फंसाकर नर तरु से, झूले से झोंके खाती रही है। पुरुष ने चाहे उसे व्यक्तिगत सम्पत्ति समझा, उसने नारी को सोने के भार से लाद दिया। सोने-चांदी के इसी भार से नारी दबती चली आई। कवियों, गीतकारों ने भिन्न-भिन्न उपमाओं- अलंकारों से उसे सजा दिया। संस्कृत साहित्य और हिंदी साहित्य से नारी वर्णन को निकाल दें तो दोनों साहित्य शुष्क व नीरस दिखाई देंगे। 

मैं आज नारी के नखशिख वर्णन पर नहीं जाऊंगा, बल्कि हिंदी फिल्मों के कुछेक आनंद-विभोर करने वाले गीतों को ही गुनगुनाऊंगा। हिंदी साहित्य में विद्यापति, सूर, मीरा और घनानंद जैसे गीतकारों की परम्परा को आधुनिक फिल्मी गीतकारों ने भी मरने नहीं दिया। कुछेक फिल्मी गीत आत्मिक हैं, रूह की खुराक हैं। उनका राजनीति, दर्शन या समाज से संबंध नहीं। सिर्फ एकांत के आनंद सागर में डूबने का भाव इन फिल्मी गीतों में है। ये फिल्मी गीत रस और भाव के उत्प्रेरित हैं। लता और आशा की बात करें तो आशा का गायन एक अलग विधा का साक्षी है परन्तु लता मंगेशकर कलियुग में सरस्वती का अवतार हैं। 

कभी तन्हाई में उनके गाए गीतों को आप सुनें तो चलते राही रुक जाएं। सभी फिल्मी गीत याद रखना तो मेरे लिए असंभव है परन्तु कुछेक गीत पाठकों की सेवा में अवश्य रखना चाहता हूं। इन गीतों में सिर्फ उन्हीं  को ले रहा हूं जिनमें नारी का समर्पण भाव और सौंदर्यबोध है। 1980 तक मैंने फिल्मों का खूब आनंद लिया। हां, 1980 के बाद शायद ‘कब्जा’, ‘दंगल’, ‘पी.के.’, ‘थ्री ईडियट्स’, ‘वीर जारा’ या ‘राजी’ जैसी फिल्में ही देख सका हूं। न वह फिल्में, न वह हमारे जमाने का गीत-संगीत। आज फिल्मों में तकनीक तो है पर कथ्य नहीं। संगीत तो बिल्कुल नहीं। फिल्म सुबह लगती है शाम को उतर जाती है। आज की फिल्मों में न तो दर्शक मिलेंगे, न स्टोरी, सिर्फ अद्र्धनग्र सुंदरियां नाचती मिलेंगी। 

गुलजार को छोड़ दें तो गीतकार भी आज की फिल्मों में कहां हैं। चलो, मैं आपको कुछेक फिल्मी गीतों की तरफ ले चलूं। इन गीतों में नारी-सुलभ गुणों की ही खोज करें। ज्ञान-विज्ञान पीछे छोड़ दें-1954-55 में फिल्म आई ‘देवदास’। प्रेम में मात खाए, मायूसी से लबरेज दिलीप कुमार का दिल बहलाने को वैजयंती माला गा रही है, ‘जिसे तू कबूल कर ले वो अदा कहां से लाऊं, तेरे दिल को जो लुभा ले, वो सदा कहां से लाऊं? तेरे दिल में गम ही गम हैं, मेरे दिल में तू ही तू है।’ साहिर ने नारी के सब कुछ लुटा देने के भाव को खूब संजोकर पेश किया है। 

एक बड़ी मीठी फिल्म आई ‘ममता’। गीत के बोल देखिए ‘छुपा लो यूं दिल में प्यार मेरा, जैसे मंदिर में लौ दीये की।’ फिल्म की नायिका सुचित्रा सेन अशोक कुमार के प्यार में जिंदगी की हर खुशी, हर मुसीबत को भूल जाना चाहती है। नायिका यही पुकारे जा रही है, ‘तुम्हारे चरणों की धूल हूं मैं’’। न कुछ मांगा  न  लिया, केवल नारी का समर्पणभाव। अब एक और हल्की-फुल्की फिल्म थी ‘शगुन’। वहीदा रहमान हीरो कमलजीत को ढांढस देते हुए गाए जा रही है, ‘मैं देखूं तो सही भला दुनिया तुम्हें क्यों कर सताती है, तुम अपने सभी रंजोगम, अपनी परेशानी मुझे दे दो’। गायिका जगजीत कौर ने मुर्दा हीरो में अपनी गायिकी से जान डाल दी है। 

फिर मैंने देखी आशा पारिख और स्व. गुरुदत्त की फिल्म ‘भरोसा’। गीत देखिए, ‘तेरी याद जो भुला दे, वो दिल कहां से लाऊं? रहने दो मुझको कदमों की खाक बन कर जो यह नहीं गवारा मुझे खाक में मिला दे। वो दिल कहां से लाऊं?’ संगीतकार रवि ने इस गीत से रूला दिया था। लता की आवाज श्रोताओं की रूह में उतर गई थी। मेरी आयु के सिने दर्शकों ने एक फिल्म देखी होगी ‘शबाब’। नूतन पर फिल्माए गए गीत ‘जो मैं जानती विछरत हैं सईयां, घूंघट में मैं आग लगा देती।’ लता जी ने प्रेमी के बिछुडऩे पर समाज की सारी मान-मर्यादाओं को तोडऩे का प्रण कर लिया। पता नहीं तब घूंघट कितना मूल्यवान होगा? अब मैं नारी के सम्पूर्ण समर्पण का एक गीत फिल्म ‘आपकी परछाइयां’ का आपकी सेवा में रख रहा हूं। 

नायक धर्मेन्द्र और नायिका सुप्रिया चौधरी पर फिल्माए इस गीत को गुनगुना कर तो देखें, ‘अगर मुझसे मोहब्बत है तो मुझे अपने सभी गम दे दो। इन आंखों का हर आंसू तुम मेरे सनम दे दो।’ कमाल है औरत का अपने प्रेमी पर मर-मिटने का जज्बा। निराश से निराश प्रेमी भी इस गीत को सुनकर उठ खड़ा होगा। चलो एक हल्का-फुल्का गीत देव आनंद और मधुबाला का देख लेते हैं। फिल्म थी ‘कालापानी’ ‘अच्छा जी मैं हारी चलो मान जाओ न। देखी सबकी यारी मेरा दिल जलाओ न।’ नायिका नाज भी दिखाती है और प्रेमी को मनाने के लिए उसके आगे गिड़गिड़ाती भी है। देव आनंद और मधुबाला की शोख अदाओं पर तब सिने दर्शक मर मिटे थे। 

दुनियादारी के झंझटों से छुटकारा पाने के लिए फिल्म ‘पाकीजा’ की नायिका अपने प्रेमी राजकुमार से प्रार्थना कर रही है, ‘चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो’ दोनों पहले से ही तैयार बैठे हैं ‘हम हैं तैयार चलो’। फिल्म ‘हीर रांझा’ में नायिका की बेकरारी का आलम देखें, ‘मिलो न तुम तो हम घबराएं, मिलो तो आंख चुराएं हमें क्या हो गया है?’ प्रेम में ऐसा ही होता है। मिलना भी है, शरमाना भी है। गीत में प्रिया राजवंश और राजकुमार खूब जंचे थे। फिल्म ‘खानदान’ में नूतन पुन: अपने प्रियतम से प्रेम निवेदन कर रही है, ‘तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं देवता हो। बहुत रात बीती चलो मैं सुला दूं। पवन छेड़े सरगम मैं लोरी सुना दूं।’ है न नायिका का सेवा भाव! 

कुछ साल पहले एक धार्मिक फिल्म आई थी ‘सती-सावित्री’। भरत व्यास ने नारी के समर्पण भाव का खूब चित्रण किया। ‘तुम गगन के चंद्रमा हो मैं धरा की धूल हूं।’ लता ने पुरुष और नारी के पारस्परिक संबंधों को खूब मान्यता दी थी। फिल्म ‘गुमराह’ में नायक भी नायिका से प्रतिवेदन कर रहा है। नायिका किसी और की पत्नी है, पर सुनील दत्त अपने पुराने प्यार को पुन: नायिका को याद करवा रहे हैं ‘चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों।’ नायिका भी सभी बंधन तोड़ नायक की बांहों में आ जाना चाहती है। प्यार के अनूठे रंग। 

देव आनंद की फिल्म ‘सजा’ में नायिका खोज रही है, ‘तुम न जाने किस जहां में खो गए, हम भरी दुनिया में तन्हा हो गए।’ फिल्म ‘भरोसा’ में नायिका को घर की भी पड़ी है, तभी तो कह रही है, ‘आज की मुलाकात बस इतनी, कर लेना बातें कल चाहे जितनी?’ आज जाने की जल्दी और कल ढेर सारी बातें करने की प्रतिज्ञा। महान संगीतकार रविशंकर की फिल्म ‘अनुराधा’ का एक गीत गहरी टीस छोड़ता है, जब नायिका लीला नायडू अपने प्रियतम की याद में गाए जा रही है, ‘हाय रे वो दिन क्यों न आए, जा-जा के ऋतु लौट आए।’ इंतजार की कसक नायिका के दिलो-दिमाग पर छाई हुई है। 

प्यार में प्रियतम गम दे, खुशी दे नायिका सब स्वीकार करती है। नहीं तो फिल्म ‘अनपढ़’ का गीत मदन मोहन के संगीत से संवरा देख लें, ‘है इसी में प्यार की आबरू, मैं वफा करूं वो जफा करें। जो वफा भी काम न आ सके तो वो ही कहें कि मैं क्या करूं?’ इस गीत में प्यार की तड़प है। देव आनंद की एक और फिल्म ‘माया’ का प्यारा-प्यारा गीत मुझे याद, ‘मैं वीना उठा न सकी, तेरे संग गा न सकी। ढले मेरे गीत आहों में’। देव आनंद की फिल्म ‘पेइंग गैस्ट’ भी रूला देती है जब नायिका विरह में कराह उठती है, ‘चांद फिर निकला, मगर तुम न आए। जला मेरा दिल करूं क्या मैं हाय।’-मा. मोहन लाल पूर्व ट्रांसपोर्ट मंत्री, पंजाब

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