दिल्ली दंगे : यह सिर्फ ‘कोर्ट-कचहरी’ का सवाल नहीं

Edited By ,Updated: 06 Mar, 2020 03:55 AM

delhi riots it s not just a question of court

दिल्ली दंगों के गुनहगार कौन हैं? यह सिर्फ कोर्ट-कचहरी का सवाल नहीं है। यह सवाल उन सब लोगों को पूछना चाहिए जो दिल्ली और देश के लिए बेहतर भविष्य चाहते हैं, जो इस हिंसा से शर्मसार हैं। तीन दिन तक देश की राजधानी में जो तांडव हुआ वह किसी भी व्यक्ति का...

दिल्ली दंगों के गुनहगार कौन हैं? यह सिर्फ कोर्ट-कचहरी का सवाल नहीं है। यह सवाल उन सब लोगों को पूछना चाहिए जो दिल्ली और देश के लिए बेहतर भविष्य चाहते हैं, जो इस हिंसा से शर्मसार हैं। तीन दिन तक देश की राजधानी में जो तांडव हुआ वह किसी भी व्यक्ति का सिर झुका देने के लिए काफी है। देश के विभाजन के बाद से, 1984 के सिख नरसंहार को छोड़कर, यह दिल्ली में हुई सबसे बड़ी हिंसा थी। अब तक 47 घरों के चिराग बुझ गए हैं, सैंकड़ों लोग जख्मी हुए हैं, हजारों घर और दुकानें उजड़ गए हैं और लाखों दिलों पर ऐसे जख्म हुए हैं जो शायद कभी नहीं भरेंगे। करोड़ों लोगों ने इस हिंसा की दहशत को अपने मन पर महसूस किया है। नफरत से पैदा हुई इस हिंसा ने नफरत के एक और दौर को पैदा किया है, क्योंकि अब लाशों और जख्मों को भी धर्मों में बांटकर देखा जा रहा है। इस शहर में घूमते हुए लगता है कि यहां इंसान नहीं, सिर्फ हिंदू या मुसलमान बसते हैं। 

इस घटना के माध्यम से दुनिया भर में भारत की जो छवि गई है वह लज्जास्पद है
यही वे दिन थे जब अमरीका के राष्ट्रपति देश में थे और सारी दुनिया का ध्यान भारत पर था। इस घटना के माध्यम से दुनिया भर में भारत की जो छवि गई है वह लज्जास्पद है। दूर से देखने वाले को दिल्ली का मंजर पाकिस्तान में कराची और नाइजीरिया में लागोस में होने वाली हिंसा जैसा दिखाई दिया होगा। मैंने 1984 का खौफनाक मंजर दिल्ली में अपनी आंखों से देखा है और तीसरे दिन दिल्ली की हिंसा के वीडियो ठीक उसी नरसंहार की याद दिलाते हैं। 21वीं सदी के हसीन सपने इन तस्वीरों के सामने माखौल जैसे दिखाई देते हैं। इसलिए बेहद जरूरी है कि हम कड़ाई से, बिना किसी पार्टी या धर्म का चश्मा पहने, दिल्ली की हिंसा के 5 कड़वे सच का सामना करें। पहला सच यह है कि नागरिकता कानून विरोधी आंदोलनकारियों द्वारा जाफराबाद और अन्य 2-3 जगह अपने धरने से उठकर सड़क बंद करने का फैसला गैर जिम्मेदाराना था। यह सही है कि सड़क बंद करने के बाद इन प्रदर्शनकारियों ने कोई हिंसा नहीं की लेकिन इस कार्रवाई से दंगाइयों को वह बहाना मिला जिसका उन्हें इंतजार था। जानबूझकर सड़क जाम करना एक ऐसे आंदोलन को शोभा नहीं देता जो संविधान की रक्षा के लिए और गांधीजी के नाम पर चल रहा हो। 

यह हिंसा कोई आकस्मिक दुर्घटना नहीं थी
दूसरा सच यह है कि यह हिंसा कोई आकस्मिक दुर्घटना नहीं थी। इसकी तैयारी पिछले कई महीनों से चल रही थी। दिल्ली में चुनाव से पहले भाजपा के नेताओं ने जिस नफरत के बीज बोए थे उसकी फसल इस दंगे के रूप में दिखाई दे रही है। जब केन्द्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य भीड़ को गाली और गोली के लिए उकसाएं तो सड़क पर गोली चलते देखकर हमें हैरान नहीं होना चाहिए। इन्हीं नेताओं को देखकर कपिल मिश्रा सरीखे नेता की हिम्मत होती है कि वह सड़क पर  भड़काए और धमकाए, उसका वीडियो भी बनाए और उसे पूरे शहर में फैलाए। नफरत के सौदागर दूसरी ओर भी घूम रहे थे, लेकिन इतना जरूर कहना चाहिए कि नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन में शामिल सामान्य लोगों ने भड़काऊ तत्वों को मंच से दूर रखा और अगर वारिस पठान जैसे नेता ने उल-जलूल बात बोली तो उसकी तत्काल निंदा की गई। नफरत के अलावा हथियारों के जरिए भी इस हिंसा की तैयारी की गई थी। देश की राजधानी की सड़कों पर दोनों ओर से बंदूकों का प्रयोग यही दिखाता है कि इस दंगे की तैयारी दोनों समुदायों के गुंडों ने पहले से कर रखी थी। 

हिंसा इस स्तर पर पहुंचने के पीछे दिल्ली पुलिस की घोर असफलता
तीसरा कड़वा सच यह है कि हिंसा इस स्तर पर पहुंचने के पीछे दिल्ली पुलिस की घोर असफलता है। पुलिस चाहती तो इन दंगों को रोका जा सकता था। और कुछ नहीं तो मौजपुर में पहली एक-दो मौत के बाद सशस्त्र बलों या फौज को बुलाकर बाकी सब की जान बचाई जा सकती थी। दिल्ली पुलिस चाहे तो कितनी मुस्तैद हो सकती है, इसका नमूना हमने 1 मार्च को पश्चिम दिल्ली में देखा जब दंगा-फसाद की अफवाह फैलते ही पुलिस ने अफवाह का खंडन किया, फ्लैग मार्च किया और शरारती तत्वों को तुरंत हिरासत में लिया। कुछ ही घंटों में मामला एकदम शांत हो गया। सवाल यह है कि दिल्ली पुलिस ने यह मुस्तैदी उन तीन दिनों में क्यों नहीं दिखाई जब पूर्वोत्तर दिल्ली जल रहा था? सब इलाकों से आई खबरों से यह साफ  है कि इन तीन दिनों तक दिल्ली पुलिस या तो मूकदर्शक बनकर खड़ी थी या कुछ जगह खुल्लमखुल्ला बहुसंख्यक समुदाय के साथ खड़ी थी। 

चौथा कड़वा सच यह है कि इस हिंसा के तार ऊपर तक जुड़े हुए थे। प्रदर्शनकारियों को सड़क पर आने के लिए क्या दोष दिया जाए जब दो महीने तक कोई उनकी बात सुनने भी नहीं आया। छुटभैये नेताओं को नफरत फैलाने के लिए कैसे जिम्मेदार ठहराया जाए जब बड़े-बड़े नेता खुले तौर पर घृणा का प्रचार करते हैं। दिल्ली पुलिस के सिपाही या उनके प्रमुख को कैसे दोष दिया जाए जबकि जामिया और जे.एन.यू. की घटनाओं में उसे आंख मूंदने और पक्षपात करने के निर्देश दिए गए हैं। यह मानना तो कठिन होगा कि कोई भी सरकार इतने महत्वपूर्ण विदेशी मेहमान के रहते हुए देश की राजधानी में उन्हीं दिनों दंगों का षड्यंत्र रचेगी। लेकिन इस सच से इंकार करना भी कठिन होगा कि इस सरकार ने कितने दिनों से एक ऐसा माहौल बनाया है जिसमें इस तरह की हिंसा का फूटना स्वाभाविक था। ऐसे में जाहिर है कि उंगली गृहमंत्री अमित शाह की ओर उठेगी। या तो इस हिंसा के पीछे उनकी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष शह थी। अगर ऐसा था तो उन्हें गृह मंत्री के पद से हटाया जाना चाहिए। या फिर देश के गृहमंत्री का अपनी नाक के नीचे दिल्ली पुलिस पर बस नहीं चलता। अगर ऐसा है तो उन्हें स्वयं त्यागपत्र देना चाहिए। 

हम सब जिम्मेदार हैं
5वां और सबसे कड़वा सच है कि इस हिंसा के लिए आप, मैं, हम सब जिम्मेदार हैं। अगर नेता लोग नफरत का बाजार चलाते हैं तो इसलिए कि उन्हें हम जैसे ग्राहक मिलते हैं। अगर नेता और टी.वी. एंकर दिन-रात झूठ बोलते हैं तो इसलिए क्योंकि हम सब उस झूठ को सच मानने के लिए तैयार हैं। जब तक हम खड़े होकर मांग नहीं करते कि हर नफरत के व्यापारी को जेल में बंद किया जाए, दंगे में जिस भी धर्म, जिस भी पार्टी के जिस भी व्यक्ति के विरुद्ध प्रमाण है उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई हो, तब तक नफरत का यह धंधा फलता-फूलता रहेगा। तब तक फैज के शब्दों में हम पूछते रहेंगे: ‘खून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद’।-योगेन्द्र यादव
 

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