शीघ्र मुकम्मल हो दिल्ली ‘दंगों की जांच’

Edited By ,Updated: 05 Mar, 2020 03:02 AM

delhi to meet soon  investigation of riots

दिल्ली में हाल ही में हुए दंगे राष्ट्र पर एक धब्बे के तौर पर रहेंगे क्योंकि राष्ट्रीय राजधानी में हुए इन दंगों में लगभग 50 लोग मारे गए तथा कई  घायल हुए जबकि इस ङ्क्षहसा को रोका जा सकता था। शाहीन बाग में हो रहे प्रदर्शनों को 2 महीने तक जारी रहने दिया...

दिल्ली में हाल ही में हुए दंगे राष्ट्र पर एक धब्बे के तौर पर रहेंगे क्योंकि राष्ट्रीय राजधानी में हुए इन दंगों में लगभग 50 लोग मारे गए तथा कई  घायल हुए जबकि इस ङ्क्षहसा को रोका जा सकता था। शाहीन बाग में हो रहे प्रदर्शनों को 2 महीने तक जारी रहने दिया गया। इन प्रदर्शनों ने बारूद की तरह काम किया जिसमें उकसाने वाले भाषणों ने आग लगाने का काम किया। शाहीन बाग में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन पर बैठे लोगों की मांग यह थी कि कोई वरिष्ठ नेता आए और उनकी समस्याओं और शिकायतों को सुनें। उनकी बात सुनने के लिए वहां कोई नहीं गया और जब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल उस स्थल पर पहुंचे तब तक देर हो चुकी थी। अगला प्रश्र उन लोगों के राहत व पुनर्वास का है जिन्होंने दंगों के दौरान बहुत कुछ खोया है तथा दंगों को उकसाने वाले तथा हिंसा में भाग लेने वालों की जिम्मेदारी तय करने के लिए एक जांच आयोग बनना चाहिए। 

दुर्भाग्य से हमारे देश में इस तरह के दंगों और साम्प्रदायिक हमलों को उकसाने वालों से निपटने का हमारा ट्रैक रिकार्ड बहुत अच्छा नहीं है। इस तरह की घटनाओं के शिकार लोगों को दशकों तक न्याय नहीं मिल पाता है और दंगों के आरोपी कानून से खेलते हुए खुली हवा में घूमते रहते हैं। आजादी के बाद हुई इस तरह की प्रमुख घटनाओं का विवरण इस प्रकार है। 

18 फरवरी 1983 को असम में हुए नेली नरसंहार में 1,383 लोग मारे गए थे। यह हत्याकांड 8 घंटे तक चलता रहा तथा सुरक्षा बलों को एक नियोजित हमले की जानकारी कम से कम 3 दिन पहले से ही थी लेकिन इसके बावजूद उन्होंने कोई कार्रवाई नहीं की। इसकी जांच के लिए जुलाई 1983 में तिवारी आयोग गठित किया गया जिसने मई 1984 में अपनी रिपोर्ट सौंपी लेकिन यह रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नहीं हुई है। कुल 688 आपराधिक मामले दर्ज किए गए थे जिनमें से सबूतों के अभाव में 378 केस बंद कर दिए गए थे। हालांकि 1985 के समझौते के तहत ये सभी केस समाप्त कर दिए गए और इस प्रकार इस नरसंहार के लिए किसी को भी सजा नहीं मिली। 

1984 के सिख विरोधी दंगे
1984 के सिख विरोधी दंगों में लगभग 3,000 सिख मारे गए थे। इनकी जांच के लिए नानावती आयोग से लेकर अब तक कम से 11 आयोग गठित किए गए। इन दंगों के लिए शुरू में 587 एफ.आई.आर. दर्ज की गईं जिनमें से केवल 25 मामलों में दोष सिद्धि हुई। हालांकि इन दंगों के कारण कई कांग्रेस नेताओं पर उकसाने के आरोप लगे थे लेकिन केवल एक वरिष्ठ नेता सज्जन कुमार को दोषी साबित किया जा सका है और वह भी इन घटनाओं के लगभग 35 वर्ष बाद। 

1987 के मेरठ दंगों के दौरान स्थानीय पुलिस ने हाशिमपुरा गांव से 50 मुसलमानों को उठा लिया जोकि एक अन्य शर्मनाक घटना है। इन पीड़ितों को बाद में गोली मार दी गई तथा उनके शव एक नहर में फैंक दिए गए। बाद में 42 शव बरामद किए गए। कोर्ट को आरोप तय करने में 19 वर्ष लगे। 11 वर्ष की लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद दिल्ली की एक अदालत ने फैसला दिया कि हत्याएं हुई थीं लेकिन आरोपियों को अपराध का दोषी साबित नहीं किया जा सका इसलिए कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया।  इस फैसले को दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी गई, जहां हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को पलटते हुए इस अपराध में 16 पूर्व पुलिस वालों को दोषी पाया। भागलपुर में 1989 में हुए दंगों में 1070 लोग मारे गए थे तथा लगभग 200 गांवों को नुक्सान पहुंचाया गया था। इसकी जांच के लिए एक जांच आयोग गठित किया गया जिसकी रिपोर्ट लगभग 25 वर्ष बाद आई। इस रिपोर्ट में 125 अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश की गई। इसके बावजूद अभी तक इनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई है। 

1992-93 में हुए बाम्बे दंगों में 900 से अधिक लोग मारे गए थे। इनकी जांच के लिए जस्टिस बी.एन. श्रीकृष्णा आयोग का गठन किया गया जिसने 1998 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट में कहा गया कि मुसलमानों द्वारा किया गया दंगा स्वत: स्फूर्त प्रतिक्रिया थी जिसमें नेता विहीन मुस्लिम भीड़ ने दंगे किए तथा दूसरे चरण में हिन्दू साम्प्रदायिक संगठनों द्वारा भड़काए जाने पर हिन्दुओं ने उग्रता दिखाई। इसके परिणामस्वरूप सरकार ने हालांकि आयोग की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए पुलिस व्यवस्था में सुधार की बात कही लेकिन साथ ही यह भी कहा, ‘‘वह आयोग के निष्कर्ष से सहमत नहीं हो सकती।’’ 

2002 के गुजरात दंगे 
2002 के गुजरात दंगे गोधरा में  एक ट्रेन पर किए गए हमले से भड़के  जिसमें कार सेवक जा रहे थे। इस हमले में 25 महिलाओं तथा 14 बच्चों सहित 58 हिन्दू मारे गए थे। इसकी प्रतिक्रिया के तौर पर हुए दंगों में सरकारी आंकड़ों के अनुसार 850 लोग मारे गए। लगभग 1200 गांवों को निशाना बनाया गया तथा 527 मस्जिदें, मदरसे, दरगाहें तथा कब्रगाहें नष्ट की गईं। 

शाह-नानावती आयोग की स्थापना मार्च 2002 में की गई जिसे 24 बार एक्सटैंशन दी गई तथा इसने 2019 में अपनी फाइनल रिपोर्ट सौंपी। आयोग ने अपनी जांच में पाया कि दंगों के पीछे कोई सुनियोजित षड्यंत्र नहीं था तथा ये दंगे गोधरा ट्रेन के जलने की घटना से लोगों के गुस्से के तौर पर भड़के थे। रिपोर्ट के निष्कर्ष में कहा गया, ‘‘कोई भी घटना यह साबित नहीं करती है कि भाजपा, विहिप या कोई अन्य राजनीतिक पार्टी या नेता अथवा कोई धार्मिक संगठन या उनके नेताओं ने मुसलमानों के खिलाफ हमलों को उकसाया था।’’ आयोग ने मुख्य तौर पर राज्य सरकार को बरी कर दिया तथा केवल दो मामलों में यह पाया कि विहिप के सदस्यों ने ङ्क्षहसक घटनाओं में भाग लिया था। 

हालांकि फरवरी 2011 में एक विशेष अदालत ने गोधरा केस में 31 लोगों को दोषी पाया और उनमें से 11 को फांसी की सजा तथा 20 को उम्र कैद की सजा सुनाई। बाद की घटनाओं से संबंधित संभवत: पहले सफल ट्रायल में एक विशेष अदालत ने गांव सरदारपुरा में 33 लोगों की हत्या के लिए 31 लोगों को उम्रकैद की सजा सुनाई। विभिन्न दंगों और नरसंहारों के बाद गठित किए गए विभिन्न आयोगों  की जटिल प्रक्रिया को देखते हुए इस बात की ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती कि दिल्ली के दंगे भड़काने वालों और हिंसा में भाग लेने वालों की शीघ्र जिम्मेदारी तय की जाएगी और उन्हें सजा दी जाएगी। इसके बावजूद हमें इतिहास से सबक लेना चाहिए और एक मिसाल कायम करने के लिए इस दिशा में तेजी से काम करना चाहिए।-बिपिन पब्बी
 

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