कर्नाटक के बारे में कोई भविष्यवाणी करना कठिन

Edited By Pardeep,Updated: 13 May, 2018 03:29 AM

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ऐसा लग रहा है कि कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस या भाजपा दोनों के ही पक्ष में या विरोध में कोई खास हवा नहीं। इस स्थिति के लिए तीन बातें ही जिम्मेदार हो सकती हैं: येद्दियुरप्पा की ‘घर वापसी’ से भाजपा को शायद उतना लाभ नहीं मिलेगा जिसकी इसने उम्मीद लगाई...

ऐसा लग रहा है कि कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस या भाजपा दोनों के ही पक्ष में या विरोध में कोई खास हवा नहीं। इस स्थिति के लिए तीन बातें ही जिम्मेदार हो सकती हैं: 

येद्दियुरप्पा की ‘घर वापसी’ से भाजपा को शायद उतना लाभ नहीं मिलेगा जिसकी इसने उम्मीद लगाई हुई थी। यदि भाजपा ने लिंगायत समुदाय के इस सशक्त नेता को पार्टी में फिर से शामिल न किया होता तो यह चुनाव कांग्रेस के लिए एक तरह से ‘बिना मुकाबला जीत’ ही सिद्ध होते। 

2013 में येद्दियुरप्पा ने भाजपा से अलग होकर कर्नाटक जनता पक्ष (के.जे.पी.) के नाम से अपनी अलग पार्टी बना ली थी जिसके चलते विधानसभा चुनाव में भाजपा को कम से कम 35 सीटों का नुक्सान हुआ था। अब बेशक के.जे.पी. का भाजपा में विलय हो गया है तो भी भाजपा के वोट प्रतिशत को इन दोनों पाॢटयों के जनसमर्थन का गणितीय जोड़ नहीं समझा जा सकता। वैसे दोनों के विलय से कांग्रेस की सीट संख्या घटकर फिर से 2013 के 99 वाले आंकड़े तक सिमट जाएगी। 

अधिकतर ङ्क्षलगायत अभी भी भाजपा के पक्ष में मतदान करेंगे। फिर भी स्थानीय उम्मीदवारों और लिंगायत समुदाय के प्रभावशाली मठों के साथ सरकार ने चुनाव से पहले लिंगायत समुदाय को एक अलग मजहब का दर्जा देकर जो सांठगांठ की है उससे मतदान का प्रभावित होना तय है। भाजपा के ङ्क्षलगायत वोट बैंक में छोटी-सी संख्या में भी यदि कांग्रेस के पक्ष में बदलाव होता है तो इसके बहुत गम्भीर परिणाम हो सकते हैं। खासतौर पर ‘अहिंदा’ (यानी अल्पसंख्यक, दलित और पिछड़ा वर्ग) का वोट कांग्रेस के पक्ष में एकजुट हो सकता है और सिद्धरमैया का लक्ष्य भी यही था। 

गैर वोक्कालिगा वोट का सम्भावी क्षरण: इस समुदाय में जद (एस) का मजबूत आधार है। गत दो विधानसभा चुनाव में जद (एस) लगभग 20 प्रतिशत वोट बटोरने में सफल हुआ था। जोकि वोक्कालिगा मतों की कुल संख्या से काफी अधिक था यानी कि काफी संख्या में उसे गैर वोक्कालिगा वोट मिला था लेकिन यदि अबकी बार इस वोट का क्षरण होता है तो इसके गम्भीर परिणाम हो सकते हैं। 2013 के चुनाव में कम से कम 45 सीटों पर जद (एस) ने चुनावी खेल बिगाड़ दिया था। इनमें से 41 सीटें इसके परम्परागत गढ़ यानी दक्षिण कर्नाटक से बाहर के इलाकों में थीं। 

मैसूर राज्य में समुदाय पर आधारित केवल एक ही ध्रुवीकरण देखने में आता है वह है मुस्लिम समुदाय। अबकी बार यह ध्रुवीकरण साम्प्रदायिक दृष्टि से संवेदनशील सागरवर्ती इलाकों की सीमा से बाहर भी फैल गया है। यानी कि जिन मुस्लिमों ने पूर्व चुनावों में जद (एस) के पक्ष में मतदान किया था, अबकी बार स्पष्ट रूप में कांग्रेस के पक्ष में भुगते हैं। जद (एस) की समुचित कारगुजारी को लेकर आशंकाओं के साथ-साथ भाजपा के साथ इसकी संदिग्ध सांठगांठ को भी मुस्लिम वोट के बदलते रुझान का कारण माना जाता है। 

यदि जद (यू)के परम्परागत गढ़ दक्षिण कर्नाटक के जिलों में भी मुस्लिम वोटर कांग्रेस के पक्ष में जाते हैं तो इसका कांग्रेस को बहुत अधिक लाभ होगा। निश्चय से कहा जा सकता है कि मुस्लिम वोट का कांग्रेस के पक्ष में ध्रुवीकरण निश्चय ही भाजपा के पक्ष में इसी तरह के प्रतिक्रियात्मक ध्रुवीकरण को जन्म देगा। वैसे ‘अहिंदा’ ध्रुवीकरण के बारे में निश्चय से कुछ कह पाना अभी कठिन है। एक बात तो निश्चय से कही जा सकती है कि कर्नाटक में कोई भी पार्टी केवल एक ही समुदाय के बूते किसी सीट को जीतने की उम्मीद नहीं कर सकती। लिंगायत, वोक्कालिगा, मुस्लिम तीन प्रमुख मतदाता समूह हैं और कर्नाटक की आबादी में इनकी संयुक्त हिस्सेदारी एक तिहाई के बराबर है। सिद्धरमैया की जाति ‘कुरुबा’ को छोड़कर शायद किसी भी अन्य समुदाय के बारे में निश्चय से नहीं कहा जा सकता कि उसका वोट किस पार्टी के पक्ष में गया होगा? 

बेशक दलितों की अधिकतर संख्या कांग्रेस के साथ दिखाई देती है तो भी जिस प्रकार आक्रामक ढंग से भाजपा ने चुनावी अभियान चलाया है उसके मद्देनजर अछूत और गैर अछूत दलितों में विभेद पैदा होने से निश्चय ही इसे लाभ पहुंचेगा। सरकार के विकास और कल्याण कार्यों के कारण निश्चय ही इसे कुछ अतिरिक्त समर्थन प्राप्त होगा जिससे एंटी इनकम्बैंसी की धार कुछ हद तक कुंद होगी। ऐतिहासिक रूप में कांग्रेस के समर्थक चले आ रहे किसान समुदाय में से कुछ जातियां इसके विरुद्ध हो गई हैं और उनका मानना है कि गत 2 सरकारों के दौरान उनकी स्थिति वर्तमान की तुलना में बेहतर थी। कई इलाकों में लोगों ने जी.एस.टी. और नोटबंदी जैसे मुद्दों पर अपना गुस्सा व्यक्त करने के लिए संगठन बना रखे हैं लेकिन हिंदुत्व की भावना के समक्ष ये मुद्दे बिल्कुल गौण होकर रह जाएंगे। 

15 मई को जब चुनावी नतीजे आएंगे तो उपरोक्त में से प्रत्येक कारक अपना-अपना रंग दिखाएगा। एक बात तय है कि 2019 में होने जा रहे आम चुनावों के संबंध में कर्नाटक चुनाव बहुत दूरगामी सिद्ध होंगे। लेकिन जमीनी स्तर पर कई ऐसे रुझान भी देखने को मिले हैं जिनकी दिशा बिल्कुल विपरीत है। मुख्य रूप में यह चुनाव स्थानीय मुद्दों पर ही लड़ा गया है।-के. रोशन                    

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