Edited By Pardeep,Updated: 05 Aug, 2018 04:40 AM
असम में नैशनल रजिस्टर आफ सिटीजन के अद्यतनीकरण ने हमें अत्यंत गड़बड़ में डाल दिया है और यह तथ्य कि ऐसा सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो रहा है, कोई अंतर नहीं पैदा करता, न केवल 40.07 लाख लोगों का भविष्य अत्यंत दुविधा में डाल दिया गया बल्कि...
असम में नैशनल रजिस्टर आफ सिटीजन के अद्यतनीकरण ने हमें अत्यंत गड़बड़ में डाल दिया है और यह तथ्य कि ऐसा सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो रहा है, कोई अंतर नहीं पैदा करता, न केवल 40.07 लाख लोगों का भविष्य अत्यंत दुविधा में डाल दिया गया बल्कि अंतर्राष्ट्रीय मीडिया एक सम्भावित परिणाम के तौर पर रोहिंग्या मुसलमानों की स्थिति की गूंज सुन रहा है। हम हर तरह से हार गए हैं।
प्रारम्भ में यह एक गलत समझा गया तथा मूर्खतापूर्ण कार्य था। पहला, हम जानते थे कि लाखों की संख्या में गरीब ग्रामीणों के लिए अपनी नागरिकता साबित करना आसान नहीं होगा। कितने लोगों के पास विश्वसनीय दस्तावेज होंगे जो 50 वर्ष पुराने होंगे? स्पष्ट तौर पर आधार कार्ड तथा पासपोर्ट्स काफी नहीं हैं। परिणामस्वरूप आज आपके सामने एक ऐसी स्थिति है जहां 8 भाइयों में से 3, जिन्होंने वैसे ही दस्तावेज प्रस्तुत किए, रजिस्टर पर नहीं हैं। पत्नियों तथा बच्चों का नाम दर्ज कर लिया गया मगर पतियों का नहीं। यहां तक कि विधायकों को भी बाहर रखा गया है। निश्चित तौर पर मुसलमानों की एक बड़ी संख्या मगर हिंदुओं की एक छोटी-सी संख्या ने अपने नाम गायब पाए। ये प्रभावशाली लोग नहीं हैं, वे सबसे गरीब तथा वंचित लोगों में से हैं। अब हमने विवशता की हानियों को भी शामिल कर लिया है।
वे यह साबित करने के लिए संघर्ष कर रहे थे कि वे भारतीय नागरिक हैं मगर ऐसा करने में असफल रहे और उनके लिए सम्भावनाएं बहुत कम हैं। क्या अब भी वे काम करने, स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा तथा आवास के अधिकार का लाभ उठा पाएंगे? या इसमें कोई संदेह है? और 2019 में उनके मताधिकार बारे क्या कहेंगे? यदि अगले 9 महीनों के दौरान उनके दर्जे का संतोषजनक ढंग से समाधान नहीं किया गया तो इसका अंत उनकी बेदखली से होगा। यह जानते हुए भी एक ऐसी प्रक्रिया शुरू करना जिससे लाखों लोग अनिश्चय की स्थिति में पहुंच जाएंगे, न केवल नासमझी है बल्कि घटिया मानसिकता भी है। यह भारत सरकार द्वारा लिए गए सबसे खराब निर्णयों में से एक है। अब सरकार को कठिन प्रश्रों के उत्तर देने होंगे। इस प्रक्रिया की समाप्ति के बाद यह उन लोगों के साथ क्या करेगी जो अपनी नागरिकता साबित नहीं कर सके। उस समय वे किसी देश के नागरिक नहीं रहेंगे। क्या उन्हें कारागार में डाल दिया जाएगा? यह एक ऐसा मामला होगा जब अचानक लोगों को अनचाहे एलियन्स मान लिया जाएगा।
मगर तब क्या? भारत उन्हें निर्वासित करना चाहेगा मगर क्या बंगलादेश इस पर सहमत होगा? लगभग निश्चित तौर पर नहीं। ढाका यह स्वीकार नहीं करता कि 1971 के बाद से वहां गैर कानूनी प्रवासी आए हैं। इसलिए इन लोगों को अपना जीवन हिरासत गृहों में बिताने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। इस बीच, उन बच्चों का क्या होगा जिनका जन्म भारत में हुआ है? क्या उनका भारत की नागरिकता पर कोई दावा नहीं है? क्या इसे नजरअंदाज कर दिया जाना चाहिए? या इसका परिणाम परिवारों के विभाजन के रूप में निकलेगा?
दुनिया का यह मानना है कि इस प्रक्रिया का निशाना बंगाली मुसलमान हैं। आखिर मिस्टर मोदी उन्हें ‘घुसपैठिए’ कहते हैं। जब पश्चिमी लोकतंत्रों को यह एहसास होता है कि इस सरकार का नागरिकता संशोधन विधेयक अफगानिस्तान, पाकिस्तान तथा बंगलादेश के अवैध प्रवासियों को नागरिकता की गारंटी देता है, जिनमें हिंदू, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन तथा पारसी शामिल हैं मगर उन लोगों को बाहर रखा गया जो मुसलमान हैं, यह न केवल उनके संदेह को मजबूत, बल्कि साबित भी करता है। एक बार पारित होने पर विधेयक यह गारंटी देता है कि असम में जिन लोगों को ‘स्टेटलैस’ घोषित कर दिया जाता है, जो हिंदू हैं वे पूर्ण नागिरक के तौर पर रहने के लिए स्वतंत्र हैं, जबकि दूसरी ओर मुसलमानों को बाहर का दरवाजा देखना पड़ेगा।
विकट सच यह है कि हम खुली आंखों से इस स्थिति में फंस गए हैं। राजीव गांधी द्वारा किए गए वायदे के अनुसार मनमोहन सिंह सरकार ने रजिस्टर की शुरूआत की, सुप्रीम कोर्ट ने इस पर निगरानी रखी और ऐसा दिखाई देता है कि वर्तमान सरकार केवल अपना विकृत तर्क लागू करना चाहती है। उनमें से किसी को भी परवाह नहीं कि यह निर्दयी प्रक्रिया भारत के विचार को ही कमजोर बनाती है। जहां मैंने जन्म लिया और प्यार से पला-बढ़ा, हम उससे एक बहुत भिन्न देश बन रहे हैं।-करण थापर