देश के अन्नदाता की गरीबी, सहनशीलता का मजाक न उड़ाओ

Edited By Punjab Kesari,Updated: 08 Jun, 2017 11:16 PM

do not make fun of the poverty tolerance of the food adder of the country

भारत का किसान महीने का मात्र 1600 रुपए कमाता है। इसी हफ्ते दिल्ली आए कृषि वैज्ञानिकों.....

भारत का किसान महीने का मात्र 1600 रुपए कमाता है। इसी हफ्ते दिल्ली आए कृषि वैज्ञानिकों के बीच भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने यह जानकारी दी है। 7 जून को बेंगलूर में नीति आयोग के सदस्य प्रो. रमेश चंद ने बताया कि सिर्फ खेती पर निर्भर रहने वाले 53 फीसदी किसान गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं। इन दोनों आंकड़ों की नजर से देश के खेत-खलिहानों को देखिए तो किसानों की बर्बादी की भयावह तस्वीर सामने आती है। 

हमारा किसान भूखा है और हम उसे उपदेश दे रहे हैं। कभी अन्नदाता तो कभी अन्नदेवता बोलते हैं। क्या आपने किसी धर्मग्रंथ में पढ़ा है कि जो अन्नदाता है या अन्नदेवता है वह आत्महत्या करता है? अन्नदाता तो दूसरों की भूख मिटाता है, भारत में ही हो रहा है कि अन्नदाता अपनी भूख नहीं मिटा पा रहा है। खुद को ही मिटा रहा है। इसी वक्त जब मध्य प्रदेश में 6 किसान पुलिस की गोलियों से मार दिए गए, उसी वक्त महाराष्ट्र में सिर्फ 2 दिन के भीतर 4 किसानों ने खुद ही अपनी जिंदगी खत्म कर ली। हम किसानों की आत्महत्या की खबरों के प्रति सामान्य होते जा रहे हैं। महाराष्ट्र के विदर्भ में आत्महत्या करने वाले 3 किसानों में से एक किसान मात्र 10 हजार के कर्जे के लिए अपनी जान दे देता है। 

अक्तूबर 2016 में लुधियाना के एक किसान ने अपने 5 साल के बेटे को सीने से लगाकर नहर में कूद कर जान दे दी। उन पर 10 लाख का कर्ज था। यह इसी दौर में हो सकता है कि कोई किसान अपने 5 साल के बेटे को सीने से लगाकर नहर में कूद जाए और समाज को फर्क न पड़े, यह बताता है कि हमारा किसानों से भावनात्मक रिश्ता समाप्त हो गया है। इस नजर से देखिए तो महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के किसान आपको भूख और कर्ज से तड़पते नजर आएंगे। वे उगा रहे हैं मगर दाम नहीं मिल रहा है। हर साल आप पढ़ते हैं कि कहीं किसान आलू फैंक रहे हैं, कहीं टमाटर फैंक रहे हैं। किसी भी सरकार के पास उनकी किसी मांग का ठोस और स्थायी समाधान नहीं है। आश्वासन ही एकमात्र समाधान है। 

आश्वासन दो, आंदोलन खत्म करो। गर तमाम सरकारें किसानों की इतनी ही ङ्क्षचता करती हैं तो वे क्यों नहीं केन्द्र और राज्य के स्तर पर नियमित सर्वे कराती हैं कि किसानों की वास्तविक आय कितनी है। सब अंधेरे में तीर चला रहे हैं और किसानों को मूर्ख बना रहे हैं। भारत के आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने जो सच बोला है उसे सुनिए और देखिए अपने किसानों की तरफ कि वह कैसे 1600 रुपए महीने में अपना गुजारा करता होगा। 

अर्थशास्त्रियों ने अलग-अलग आंकड़ों को लेकर जो अनुमान लगाए हैं उसके अनुसार 2011-12 से लेकर 2015 तक किसानों की वास्तविक आय कम हुई है। सरकार कहती है कि वह 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी कर देगी। वह यह भी नहीं बताती कि आज किसानों की आमदनी कितनी है और 5 साल बाद कितनी होगी। बस एक स्लोगन गढ़ दिया गया है और उसी को बार-बार दोहराया जा रहा है। अभी आमदनी अगर 1600 रुपए है तो यह भारत के राजनेता ही कर सकते हैं जो किसानों के बीच जाकर बोल दें कि आप 5 साल रुकिए हम 3200 रुपए मासिक कर देंगे। 

मान लीजिए अभी भी किसानों की मासिक आमदनी 3200 रुपए होती तो क्या यह काफी है? इसके बाद भी किसान गरीबी रेखा से नीचे ही रहेगा। अगर सरकार को यह मालूम है कि खेती की जी.डी.पी. 4.3 प्रतिशत है तो उसे क्यों नहीं मालूम है कि किसानो की आमदनी कितनी बढ़ी है। नीति आयोग के एक अध्ययन में दावा किया गया है कि किसानों की आय तब दोगुनी होगी, जब खेती की विकास दर 10 प्रतिशत से ज्यादा होगी। मध्य प्रदेश में तो कई साल कृषि विकास दर 9 प्रतिशत के आसपास रही है, क्या उसी एक राज्य के बारे में कोई अर्थशास्त्री दावा कर सकता है कि वहां उच्च विकास दर के वर्षों में किसानों की आमदनी दोगुनी हुई है? क्या कोई दावा कर सकता है कि मध्य प्रदेश के किसान गरीबी रेखा से ऊपर आ गए हैं? इसलिए हमें इन आंकड़ों की बाजीगरी से कोई जवाब नहीं मिलता है। 

भारत का किसान जितना अपनी गरीबी से परेशान नहीं है उतना सरकारों के झूठे आश्वासनों से परेशान है। 2-2 राज्यों में किसान आंदोलन पर हैं, लेकिन क्या आपने देश के कृषि मंत्री का कोई बयान सुना है? क्या आप ऐसे आंदोलनों के वक्त कृषि मंत्री को किसानों के बीच जाते देखते हैं? किसान वही मांग रहे हैं जो उनसे 2006 के स्वामीनाथन फार्मूले के आधार पर देने की बात हो रही है। 2014 में भाजपा ने घोषणापत्र में कहा था कि खेती में जो लागत आएगी, उसका 50 फीसदी मुनाफा देकर दाम देंगे। अब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष कहते हैं कि कोई भी सरकार स्वामीनाथन फार्मूले के हिसाब से दाम नहीं दे सकती है। सरकार ने सुप्रीमकोर्ट में कहा भी है कि नहीं दे सकते हैं। फिर किसानों से झूठा वायदा क्यों किया गया? उसकी जगह 5 साल बाद आमदनी दोगुनी करने का नया सपना दिखाया जाने लगा है। 

पिछले महीने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने दावा किया कि लागत का 43 फीसदी अधिक जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया गया है, मगर इसमें स्वामीनाथन फार्मूले के अनुसार जमीन के किराए का मूल्य नहीं जोड़ा गया है। जब किसी फार्मूले का मूल आधार ही निकाल दिया तो फिर कैसे दावा किया जा सकता है कि 43 फीसदी अधिक जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया गया। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि सभी किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ नहीं मिलता है। 
भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार का ही बयान है कि केन्द्र ने दलहन का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया मगर इसके बाद भी 60 फीसदी किसानों को अपनी दालें न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर बेचनी पड़ी हैं। जब दलहन जैसी नकदी फसल में न्यूनतम समर्थन मूल्य सभी किसानों को नहीं मिल पाता है तो फिर किसान अपनी आमदनी कैसे बढ़ा लेगा। 

भारत का किसान अपनी गरीबी से लड़ नहीं पा रहा है। उसे खेती करनी होती है इसलिए वह बीच-बीच में उग्रता के साथ आंदोलन करता है। बेहतर है कि हम उसकी गरीबी या सहनशीलता का मजाक न उड़ाएं। आप नीति आयोग के शोधपत्रों को पढि़ए, किसी न किसी बहाने इस बात पर जोर मिलेगा कि किसानों को खेती से अलग किया जाए। लेकिन चुनाव आता है तो आप पोस्टर पर पलायन रोकने का वायदा देखने लगते हैं जबकि नीति और नीयत ठीक इसके उलट होती है। कोई अपनी जमीन से अलग नहीं हो पाता है। जमीन की याद आती रहती है। उसे खेती से अलग करेंगे तो बेचैन आत्मा की तरह शहरों में भटका करेगा। 

किसान आंदोलनों को भी अहिंसक तरीके से लंबे संघर्ष का रास्ता खोजना होगा। उन्हें हिंसा बंद करनी होगी लेकिन आप भी सोचिए, जो 1600 रुपए महीने का कमाता हो क्या वह सब छोड़कर लंबा आंदोलन कर सकता है? हो सकता है कि वे इसीलिए हिंसा का सहारा लेते हों जो नहीं लेना चाहिए ताकि सरकार जल्दी सुन ले और आंदोलन खत्म हो। हिंसा के कारण मीडिया को मौका मिल जाता है, वह तुरंत किसानों को उपद्रवी बताने लगता है। हम एक समाज के तौर पर किसानों को उपद्रवी मान लेते हैं। उसकी भूख, उसकी बेबसी और उसके त्याग को भूल जाते हैं। अन्नदाता या तो उपद्रवी हो जाता है या आत्महत्या कर लेता है। यही त्रासदी है किसानों की।

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