न्यूज चैनलों को ‘तमाशा’ न बनाइए

Edited By ,Updated: 16 Feb, 2019 04:10 AM

do not make news channels  spectacle

पिछले हफ्ते फिर एक खबरिया चैनल के एडिटर-एंकर को एक राजनीतिक दल के प्रवक्ता ने लाइव स्टूडियो डिस्कशन के दौरान भद्दी गालियां दीं। पूरा समाज भी इस समय न्यूज चैनलों को परोक्ष घृणा और प्रत्यक्ष तिरस्कार के भाव से देख रहा है। वैसे तो देश की हर औपचारिक या...

पिछले हफ्ते फिर एक खबरिया चैनल के एडिटर-एंकर को एक राजनीतिक दल के प्रवक्ता ने लाइव स्टूडियो डिस्कशन के दौरान भद्दी गालियां दीं। पूरा समाज भी इस समय न्यूज चैनलों को परोक्ष घृणा और प्रत्यक्ष तिरस्कार के भाव से देख रहा है। 

वैसे तो देश की हर औपचारिक या अनौपचारिक, संवैधानिक या सामाजिक, धार्मिक या वैयक्तिक संस्थाओं पर जनविश्वास घटा है लेकिन जितना अविश्वास मीडिया और खासकर न्यूज चैनलों को लेकर है, वह शायद पिछले तमाम दशकों में कभी नहीं रहा और हाल के कुछ वर्षों में जितना ही देश का मनस दो पक्षों में बंटा है, उतना ही यह अविश्वास जनाक्रोश में बदलता जा रहा है। अगर स्थिति यही रही तो टी.वी. रिपोर्टर को किसी घटना के कवरेज में (पीस-टू-कैमरा)(पी.टी.सी.) भी बंद गाड़ी में करना पड़ेगा। 

कौन जिम्मेदार है इस घटते जनविश्वास का? शायद सम्पादक, जिसकी नैतिक शक्ति मोटी पगार के कारण जाती रही। बाजार में बने रहने के लिए वह बेहतर और जनहित की खबरें देने की जगह चटखारे वाली खबरें देने का आदी हो गया। इसमें न ज्ञान की जरूरत थी, न ही खबर जुटाने में अपेक्षित मेहनत की और साथ ही विजुअल्स भी मुफ्त में मिल जाते हैं। धीरे-धीरे न्यूज रूम, जो एक जमाने में ज्ञान आधारित खबरों के महत्व पर चर्चा करके फैसला लेता था, आज एक मछली बाजार के शोर में बदल गया। दो सांडों के लडऩे का एक विजुअल सोशल मीडिया से उठा लिया और इसे एक घंटा तान दिया- यह न्यूजरूम की आम भाषा है। जितनी ही लम्बी तानने की क्षमता, उतनी ही ज्यादा उसके टी.वी. पत्रकार होने पर मुहर, लिहाजा उतनी ही अधिक मार्कीट वैल्यू और वेतन। 

बोलने में ड्रामेबाजी
कश्मीर में पुलिस-आतंकी मुठभेड़ में अमुक एंकर की आवाज तीखी है और ड्रामैटिक डिस्कशन (बोलने में ड्रामेबाजी) भी करता/करती है, उसे एंकरिंग करने को कहो, यह आदेश कोई और नहीं संपादक देता है और एंकर अगर स्वयं संपादक भी है तो उसे मुगालता होता है कि यह देश उसी के भरोसे बच पाएगा। लिहाजा राष्ट्र-प्रेम का एक हैवी डोज डिस्कशन के प्रारम्भ में दर्शकों को पिलाएगा और फिर खा जाने वाले भाव में विपक्ष के लोगों की ओर सवाल दागेगा। 

ऐसी आवाज और ड्रामा पैदा करना वर्तमान संपादक-एडिटर की बौद्धिक क्षमता का पर्याय बन गया है। एंकर को चूंकि एक घंटा इस विजुअल पर रहना है, लिहाजा रिपोर्टर को कहा जाता है कि दो सांडों की लड़ाई का विजुअल सोशल मीडिया से मिल गया है, तुम किसी गाय-भैंस वाले झुंड के पास खड़े हो जाओ और एंकर उससे सवाल करती है-यह बताइए कि दोनों सांडों का किस बात पर झगड़ा हुआ था। अब रिपोर्टर अपनी कल्पना की बुलंदपरवाजी को रफ्तार देता हुआ कारण बताता है -अपनी संस्कृति और ज्ञान के अनुसार। खैर, यहां तक होता तो दर्शकों को शायद कुछ मजा आता। कम से कम रिपोर्टर-एंकर संवाद के ओछेपन को लेकर या फिर अपने सामान्य ज्ञान और बचपने में मां-बाप से नजरें चुरा कर जो जानकारी हासिल की थी, को इस्तेमाल करते हुए स्वयं सांडों के लडऩे के ‘असली’ कारण बता कर कुछ मनोरंजन कर लेता है। 

शालीनता की हदें पार 
लेकिन हाल के दौर में पत्रकारिता के मानदंडों और व्यावहारिक शालीनता की सभी हदें पार कर एक नए चैनल के संपादक-एंकर ने शाम की स्टूडियो डिस्कशन में बताया-हमारे दाहिने हाथ की तरफ जो चार लोग बैठे हैं, वे आज के मुद्दे पर हमारे साथ हैं तथा जो बाईं ओर हैं, वे हमारे खिलाफ। थोड़ी देर में स्क्रीन पर भी यह लिख कर आने लगा जो पूरे आधे घंटे की चर्चा में लगातार दिखाया जाता रहा। विश्वास नहीं होता कि पतन की कौन-सी सीमा है जहां ये सब कुछ जा कर रुकेगा-अगर रुका तो। पूरी दुनिया में पत्रकारिता को किसी प्रजातंत्र का अपरिहार्य तत्व माना जाता है लेकिन अगर एक एंकर-एडिटर यह बता कर मुद्दा शुरू करे कि वह किस पक्ष का है तो वह चैनल भी जनविश्वास खोने लगता है। 

संभव है आज जिस तरह पूरा भारतीय समाज दो पक्षों में बंटा है, इस चैनल को ऊंची टी.आर.पी. मिल जाए और उसकी मार्कीट वैल्यू भी बढ़ जाए लेकिन आज से कुछ महीने या कुछ सालों बाद शायद लोग न्यूज-चैनलों को देखना बंद कर देंगे क्योंकि उनकी विश्वसनीयता स्वत: ही खत्म हो जाएगी और दर्शकों को मनोरंजन के चैनल में ज्यादा मजा आएगा तथा बौद्धिक खुराक के लिए वह किसी और विधा की ओर जाने लगेगा-शायद वापस समाचारपत्रों की ओर जहां उसे कम से कम विस्तार से जनहित विषय-वस्तु बारे जानकारी मिल सकेगी। उसे न्यूज चैनल की नीम-भांडगिरी से ज्यादा अच्छा लगेगा असली मनोरंजन चैनलों के कार्यक्रम देखना। 

हाल के दौर में चैनल के कुछ सम्पादकों ने अपने कार्यक्रम में यह भी शुरू किया है कि दिल्ली के संभ्रान्तीय चरित्र वाले अन्य संपादक कैसे ड्राइंग रूम से पत्रकारिता करते हैं, इस बारे अपने चैनल के जरिए दर्शकों को बताना। इनका यह भी दावा होता है कि केवल वही फील्ड में जा कर जनता के दुख-दर्द जानकर तथ्यों को दर्शकों के सामने परोसते हैं। कभी सब्जी बाजार में जाएं और सामान-सब्जी बेचते हुए ठेलों के पास से गुजरें। वे अपने माल को दुनिया का सबसे बेहतरीन बताने के साथ ही पड़ोसी ठेले के माल को बुरा भी बताते हैं और ऐसा करने में उनकी आवाज बुलंद हो जाती है। एंकर भी कुछ ऐसे ही अपनी सामान्य आवाज को हाफ-टोन ऊपर ले जाकर कार्यक्रम की शुरूआत करता है-महिला एंकर को भी यही आदेश होता है कि वह सफल होने के लिए चीखे-चिल्लाए। 

अधकचरी जानकारी 
इसकी एक बानगी देखें। यह सभी जानते हैं कि राफेल डील 91 करोड़ मतदाता वाले देश के आम चुनाव में एक बड़ा मुद्दा बनेगी। पत्रकारिता के मौलिक तकाजे के तहत यह जरूरी है कि खबरों की दुनिया का हर व्यक्ति खासकर सम्पादक सर्वोच्च न्यायालय के फैसले, कैग की रिपोर्ट ही नहीं, रक्षा सौदे के हर पहलू को आत्मसात करे लेकिन जिस दिन कैग की रिपोर्ट संसद के सदनों में रखी जा रही थी, शायद ही किसी टी.वी. सम्पादक ने इसे पढ़ा। इसकी जगह उसने नेताओं द्वारा अधकचरी और कुतर्क पर आधारित जानकारी पर चर्चा की और एडिटर अगर राष्ट्रवादी था तो उसने विपक्ष को राष्ट्रद्रोही करार दे दिया और अगर वह दूसरे खेमे का था तो उसने भी इसे भ्रष्टाचार का पर्याय बताया और देश की सुरक्षा के साथ वर्तमान सरकार का खिलवाड़ करार दिया। 

एक ऐसे दौर में, जहां हर संस्था जन- दायित्व के मामले में नीचे गिरी है, एक ऐसे समय में जब देश दो पारस्परिक विरोधी विचारधाराओं में इस कदर बंटा है कि स्पष्ट सोच के लोगों के लिए कोई जगह ही नहीं बची है, घर-घर तक जाने वाले खबरिया चैनलों पर एक गुरुतर भार था समाज को निरपेक्ष भाव से सत्य बताने का या कम से कम दो पक्षों के तथ्यों को बेबाकी से रखने का लेकिन सम्पादकों को अध्ययन से ज्यादा आसान ड्रामा या किसी पक्ष के साथ पूरी तरह बहना फायदेमंद लगता है।-एन.के. सिंह

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