विकास को हवाई यात्रियों में वृद्धि से न नापें

Edited By Punjab Kesari,Updated: 15 Oct, 2017 12:51 AM

do not measure development by increasing the air travel

हर साल की तरह इस साल का भी विश्व भूख सूचकांक गुरुवार को जारी हुआ है। पिछले 25 सालों में  देश के गरीबों और उनके बच्चों को भूख से निजात दिलाने में हम रवांडा, नेपाल और नाइजीरिया से भी पीछे हो गए हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मकबूल संस्था अंतर्राष्ट्रीय...

हर साल की तरह इस साल का भी विश्व भूख सूचकांक गुरुवार को जारी हुआ है। पिछले 25 सालों में  देश के गरीबों और उनके बच्चों को भूख से निजात दिलाने में हम रवांडा, नेपाल और नाइजीरिया से भी पीछे हो गए हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मकबूल संस्था अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान के मुताबिक दुनिया के 119 देशों में हमारा नंबर 100वां है, जबकि तमाम गरीब मुल्क इस दौरान अपने लोगों को भूख से उबारने में काफी सफल रहे हैं। 

इस भूख को नापने के चार आधार होते हैं-कुपोषण, बाल मृत्यु दर, बच्चों का कद छोटा होना और उनका वजन आयु के हिसाब से कम होना। इन चारों के आधार पर माना जाता है कि जिस समाज में भूख का स्तर खराब है उस समाज के बच्चे शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक रूप से भी कमजोर होंगे। शायद भारत में व्याप्त भ्रष्टाचार और सत्ता वर्ग की समाज के प्रति आपराधिक उदासीनता इस तथ्य के आधार पर समझी जा सकती है। 

इस बीच अक्सर खबरें आती हैं कि भारत में अरबपतियों की संख्या विश्व के अन्य देशों के मुकाबले बढ़ी है और हमारा अभिजात्य वर्ग इसी को ‘भारत महान’ या ‘उभरता भारत’ कह कर खुश हो जाता है और आश्वस्तता के साथ मॉल में बच्चों को घुमाने चला जाता है। ताजा खबरों के अनुसार देश के ऊपर के 1 प्रतिशत लोगों के पास सम्पत्ति बाकी 99 प्रतिशत के मुकाबले पिछले 25 सालों में 37 प्रतिशत से बढ़ कर आज 70 प्रतिशत हो गई है। फिर भी देश के हुक्मरान जनता को बता रहे हैं कि चूंकि, हवाई यात्रियों और कार खरीदने वालों की संख्या हर साल बढ़ रही है, लिहाजा देश में विकास हो रहा है। 

जरा गौर करें, भुखमरी की स्थिति पिछले 70 साल से है लेकिन कभी भी गरीबों को राशन फ्री करने की योजना अभियान के रूप में नहीं लाई गई। जब सन् 2014 में यू.पी.ए.-2 की मनमोहन सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों में बुरी तरह से घिर गई और उसे अपना अंत नजर आने लगा तो चुनाव के चंद दिनों पहले खाद्य सुरक्षा कानून बना कर हर गरीब; भूखे को मुफ्त में 35 किलोग्राम राशन देने का ऐलान किया। यह योजना आज भी जारी है। अगर यह योजना पहले आई होती और धरातल पर सही अमल में होती तो आज भूख में भारत की स्थिति रवांडा से भी पीछे न होती लेकिन शायद भ्रष्टाचार का दंश यहां भी गुल खिला रहा है। 

हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी ने अधिकारियों की एक बैठक में उन अधिकारियों की क्लास ली जिन्होंने आंकड़े पेश करते हुए बताया कि कार्यक्रमों पर अमल की स्थिति बेहतर है। ‘आप के आंकड़ों के अनुसार तो भारत में स्वॢणम युग आ गया है लेकिन फिर मीडिया में जो हकीकत है वह तो कुछ और बयां कर रही है। कृपया ये सब बदलें और परिणाम पर ध्यान दें।’ जाहिर है शायद मोदी को भी यह समझ में आ गया है कि आंकड़े और हकीकत में कितना बड़ा अंतर है। अगर खाद्य सुरक्षा के तहत हर गरीब परिवार को मुफ्त 35 किलो राशन मिल रहा है तो बच्चे कम वजन के क्यों हो रहे हैं और अगर जननी सुरक्षा योजना अपनी जगह पर दुरुस्त है तो बाल मृत्यु और मातृ मृत्यु दर में अपेक्षित बदलाव क्यों नहीं आ रहा है? 

हम अपने को दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातांत्रिक देश होने का दावा करते हैं। यानी तंत्र प्रजा के अनुरूप और उसकी इच्छा से चलता है, तो कौन है जो इन 22 करोड़ गरीबों के मुंह में निवाला न पहुंचाने का सबब बन रहा है? क्या बाकी 100 करोड़ उदासीन हैं इस समस्या को लेकर क्योंकि उन्होंने रोटी जीत ली है? इस देश में हर साल 1.40 करोड़ नए युवा रोजगार के बाजार में खड़े हो जाते हैं जबकि जॉब में केवल 1.25 लाख ही सृजित हो पाते हैं। यानी कि 120 रोजी चाहने वालों के मुकाबले मात्र एक को नौकरी। लिहाजा भूख के इलाज के लिए इनमें से कुछ तो अपराध की कभी न वापस होने वाली दुनिया में दाखिल हो जाते हैं या कुछ छोटे -छोटे, कभी-कभार मिलने वाले काम के जरिए आधा पेट खाने वालों के हुजूम में शामिल हो जाते हैं। 

कुछ आंकड़े देखें-सन् 1992 में भूख की समस्या को लेकर घाना, वियतनाम, म्यांमार, मलावी, बंगलादेश, नेपाल, नाइजीरिया, लाओ, पी.डी.आर., कैमरून,  माली और रवांडा भारत के समकक्ष खड़े थे लेकिन 25 सालों में घाना ने इस सूचकांक को 41.9 से घटाकर 16.2 किया, वियतनाम ने 40.2 से 16, बगल के अपेक्षाकृत कमजोर माने जाने वाले म्यांमार ने 55.6 से 22.6, मलावी ने 58.2 से 22.6, बंगलादेश ने, जिसकी पैदाइश ही 45 साल पुरानी है, 53.6 से 26.5, पड़ोसी नेपाल ने (जो एक संविधान नहीं बना पा रहा है) 42.5 से 22, अफ्रीकी देश (जो गरीबी और भुखमरी के लिए बदनाम माने जाते थे) नाइजीरिया, कैमरून और रवांडा ने क्रमश: 48.5 से 25.5, 40 से 20.1 और 53.3 से 31.4 किया। इसके ठीक उलट भारत की प्रजातान्त्रिक रूप से चुनी हुई सत्ता में बैठे लोगों की आपराधिक उदासीनता का यह आलम है कि इन 25 वर्षों में देश अपनी भूख के इस सूचकांक को 46.2 से मात्र 31.4 तक ही ला पाया। फिर भी हम भारत महान की बांग देकर 22 करोड़ भूखों को रात में सोने को मजबूर करते रहे हैं। 

आखिर क्यों नहीं हमें अपने पर कोफ्त होती है इन रिपोर्टों को देख कर? भूख पर हर साल रिपोर्ट देने वाली यह संस्था तो किसी विपक्षी पार्टी की नहीं है। न ही उन लोगों की, जो मोदी की ङ्क्षनदा करके रात में आराम से सोते हैं। हां, सत्ता वर्ग यह सूचना दे कर नींद को और गहरा कर सकता है कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान हमसे पीछे हैं लेकिन हम यह नहीं बताते कि चीन ने इस भुखमरी पर काबू पाते हुए अपने को 29वें स्थान पर पहुंचाया है।

विरोधाभास यह कि 2.53 ट्रिलियन डॉलर के सकल घरेलू उत्पाद के साथ हम आज दुनिया के सात बड़ी अर्थव्यवस्था वाले समूह में होकर अपनी मूंछें ऐंठ रहे हैं और शायद इसीलिए हम इसी बात को दुनिया की 117 ट्रिलियन डॉलर की कुल अर्थव्यवस्था का इंजन समझने लगे हैं। समझ में नहीं आता कि विश्व अर्थव्यवस्था में मात्र 2 प्रतिशत का योगदान देकर इंजन कैसे बन सकते हैं? ऐसा तो 16वीं और 17वीं सदी में जब हम विश्व अर्थव्यवस्था में 32 प्रतिशत योगदान करते थे, तब भी किसी बादशाह अकबर ने नहीं कहा था। न ही किसी सम्राट अशोक ने 300 ईसा पूर्व ऐसा दावा किया था। 

अभिजात्य वर्ग और अक्सर मध्यम वर्ग को बुलेट ट्रेन अच्छी लगती है। दुकानों की जगह मॉल विकास के संवाहक के रूप में दिखते हैं और हमारे प्रधानमंत्री का दुनिया के बड़े देशों में स्वागत और गले मिलना उन्हें समृद्ध भारत का एहसास देता है, पर तब एक दंत कथा की याद आती है कि मोर अपने खूबसूरत पंखों को फैला कर झूम उठता है लेकिन जब अपनी पतली टांगों पर उसकी नजर जाती है तो सिर जमीन पर पटक देता है। शायद हम अपने विकास की वरीयता को भूल गए हैं। बेहतर होगा कि बुलेट ट्रेन भी आए, मॉल भी बनें, पर वरीयता इस भूख को मिटाने की हो।
 

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