क्या गरीबों को सपने नहीं देखने चाहिएं

Edited By Punjab Kesari,Updated: 22 Jul, 2017 11:05 PM

do not want to see dreams for the poor

सरकार के पास हर चीज के लिए एक नीति होती है जोकि अक्सर बहानेबाजी....

सरकार के पास हर चीज के लिए एक नीति होती है जोकि अक्सर बहानेबाजी और खानापूर्ति से बढ़कर कुछ नहीं होती- उदाहरण के लिए 1991-92 तक की आयात-निर्यात नीति। 

ऐसे में जब सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने दावा किया कि शिक्षा ऋण प्रदान करने के लिए उनके पास एक तय नीति है तो मुझे कोई हैरानी नहीं हुई। नीति तो सचमुच ही उनके पास है लेकिन व्यावहारिक रूप में बैंकों द्वारा दिए जाने वाले शिक्षा ऋणों की संख्या कोई उल्लेखनीय नहीं। बैंक नियमित रूप में गारंटी की मांग करते हैं। ऐसे में ऋण वही छात्र ले पाते हैं जो आम तौर पर भले-चंगे परिवारों से संबंध रखते हैं क्योंकि वे बैंक को ऋण के बदले में गारंटी या सिक्योरिटी दे सकते हैं। गरीब छात्रों को तो बिल्कुल ही ऋण नहीं दिए जाते और ऋण से उन्हें वंचित करने के लिए जोर-जबरदस्ती करने से भी परहेज नहीं किया जाता। 

गरीबों को बैंक ऋण के दायरे से बाहर धकेला गया 
2005 में मैंने कथित शिक्षा ऋण नीति के बारे में गहराई से छानबीन शुरू की तो मुझे पता चला कि सरल-सी सच्चाई यह थी कि गरीब छात्रों को ऋण दिए ही नहीं जा रहे। गरीबों में से बहुत थोड़े छात्र ही कालेज में दाखिला ले पाते हैं और ऐसा वे थोड़ी मात्रा में उपलब्ध छात्रवृत्तियों के बूते ही कर पाते हैं या फिर उनके अभिभावक अपनी थोड़ी-सी जमीन का एक टुकड़ा या अपने गहने बेचते हैं। बैंक प्रबंधनों ने शाखा प्रबंधकों को शिक्षा ऋण देने की शक्तियों से वंचित कर दिया है और इस बात पर आग्रह करते हैं कि शिक्षा ऋण हासिल करने के लिए आने वाले सारे आवेदन क्षेत्रीय कार्यालय या फिर मुख्यालय को आकलन अथवा निर्णय के लिए भेजे जाएं। 

बैंक मैनेजरों के लिए यह कहकर शिक्षा ऋण के प्रार्थियों को इन्कार करना आम-सी बात बन चुकी है कि उनका आवास या शिक्षण संस्थान जिस स्थान पर स्थित है वह बैंक शाखा की सेवा परिधि में नहीं आता। यदि कोई दृढ़ इरादे वाला प्रार्थी सभी बाधाओं को पार करने में सफल हो जाता है तो उसको इन्कार करने के लिए आखिरी हथियार के रूप में गारंटी (यानी कोलेटरल) की मांग की जाती है। यदि कोई छात्र गारंटी भी उपलब्ध करवा देता है तो किसी न किसी भूले-बिसरे नियम का बहाना बनाकर आवेदित राशि के केवल एक भाग के बराबर ही ऋण दिया जाता है। 

हम सत्ता में आए तो हमने यह स्थिति बदलने के लिए सोचे-समझे तरीके से और जबरदस्ती हस्तक्षेप करना शुरू किया। परिणाम यह हुआ कि न केवल शिक्षा ऋणों की संख्या बढऩे लगी बल्कि ऋण का औसत आकार भी बढ़ गया। हर साल शिक्षा ऋण के तौर पर दी गई राशि का आंकड़ा ऊंचा उठने लगा। बैंकों को यह आदेश दिया गया कि वे अपनी शाखाओं को शिक्षा ऋण देने के अधिकारों से लैस करें। बैंकों को केवल 7,50,000 रुपए से कम शिक्षा ऋण की स्थिति में गारंटी मांगने से मना कर दिया गया। ‘सर्विस एरिया’ यानी बैंक शाखा के कार्य क्षेत्र की परिकल्पना को रद्द कर दिया गया। कछुआ चाल से ही सही, लेकिन प्रगति होनी शुरू हो गई। 2007-8 से लेकर 2013-14 तक शिक्षा ऋण में 20 प्रतिशत की औसत वार्षिक दर से वृद्धि हुई थी। 

सामाजिक, आर्थिक प्रोफाइल में बदलाव
शिक्षा ऋणों के औसत आकार या संख्या से भी अधिक नाटकीय बदलाव विद्यार्थियों की सामाजिक और आर्थिक प्रोफाइल में देखने को मिला। हजारों ऐसे छात्रों को ऋण मिला जो अपने परिवारों में कालेज शिक्षा हासिल करने वाले पहले व्यक्ति थे। बैंकों द्वारा छोटे किसानों, कृषि मजदूरों, चौथा दर्जा सरकारी कर्मचारियों, दिहाड़ीदार मजदूरों, फेरीवालों इत्यादि के बच्चों के लिए ऋण मेलों का आयोजन किया गया। ऋण लेने वाले बहुत से छात्र अनुसूचित जातियों या पिछड़े वर्गों से संबंध रखते थे और इनमें लड़कियों की भी काफी संख्या थी। अभी भी मुझे एक मुनादी करने वाले शख्स का चेहरा नहीं भूला जिसने गर्व से यह घोषणा की थी कि उसके बेटे को इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के लिए शिक्षा ऋण मिला है। 

31 मार्च, 2014 को जब यू.पी.ए. की सरकार का कार्यकाल पूरा हुआ तो शिक्षा ऋणों की संख्या 7,66,314 के उल्लेखनीय आंकड़े तक पहुंच चुकी थी जबकि इतने छात्रों को 58,551 करोड़ रुपए ऋण दिया गया था। यहां मैं खास तौर पर यह उल्लेख करना चाहूंगा कि हमारे 10 वर्ष के कार्यकाल दौरान न केवल शिक्षा ऋण ही दिए गए थे बल्कि बहुत से छात्रों ने इसका भुगतान भी कर दिया था। इस कार्यक्रम ने लाखों परिवारों के सपनों को पंख लगा दिए थे। खेद की बात है कि हमारी सरकार जाने के साथ ही यह अध्याय समाप्त हो गया लगता है। मैं जहां भी जाता हूं, यही सुनने को मिलता है कि राजग सरकार के दौरान शिक्षा ऋण जैसा स्रोत सूख गया है। 

राजग सरकार के गत 3 वर्षों दौरान शिक्षा ऋण की औसत वृद्धि दर केवल 5.3 प्रतिशत वार्षिक ही दर्ज की गई है। जब भी कोई कार्यक्रम बंद कर दिया जाता है तो सबसे अधिक प्रभावित वे लोग होते हैं जिनकी न तो कोई ऊंची पहुंच होती है और न ही बड़े लोगों से उनके संबंध होते हैं। अब तो लोगों में ऐसा संदेश जा रहा है जैसे सरकार के लिए शिक्षा ऋण कोई प्राथमिकता का विषय नहीं रह गया। वैसे बहाना यह गढ़ा जा रहा है कि शिक्षा ऋण के मामले में एन.पी.ए. (बट्टा खाता) का अनुपात बहुत ऊंचा होता है लेकिन सत्ता में बैठे हुए लोग इस तथ्य के प्रति आंखें मूंदे हुए हैं कि लगातार बढ़ती हुई बेरोजगारी के दौर में ग्रैजुएट छात्र अपना ऋण भुगतान करने की स्थिति में ही नहीं होते। 

बैंकों को थोड़ा-सा संकेत मिलने की ही देर थी कि वे निर्दयी सूदखोरों की तरह कर्जदार छात्रों के पीछे पड़ गए। उनसे वसूली करने के लिए ‘रिकवरी एजैंट’ (जोकि वास्तव में बाहुबली गुंडे होते हैं) भेजे गए जिन्होंने उनसे गारंटियां लीं और इन्हें भुना लिया। कई मामलों में मुकद्दमे तक ठोंके गए। फैसले केवल अमीरों के लिए ऋण दिए जाने के संबंध में बहानेबाजियां सुनकर मुझे गुस्सा आता है। यह मान भी लिया जाए कि सभी के सभी एन.पी.ए. खाते सम्पूर्णत: घाटे में चले जाते तो भी 31 दिसम्बर, 2016 के दिन तक इनकी कुल राशि 6,336 करोड़ रुपए बनती। 

अब इस राशि की तुलना जरा 12 कार्पोरेट घरानों के खातों से करें जिन्हें ‘इन्सालवैंसी एंड बैंकरप्ट्सी कोड’ के सुपुर्द किया गया है। इन कार्पोरेट घरानों के एन.पी.ए. का आकार 2,50,000 करोड़ रुपए है जिसमें से 60 प्रतिशत की वसूली किसी भी तरह नहीं हो सकेगी। बेशक समाधान कुछ भी निकले, एक बात तय है कि बैंकों को अपने द्वारा इन कार्पोरेट घरानों को दिए गए ऋण के मामले में 30 से 50 प्रतिशत की चपत अवश्य ही लगेगी। 12 प्रमोटर समूह बैंकों को 75 हजार करोड़ से लेकर 1.25 हजार करोड़ रुपए तक की भारी-भरकम राशि का नुक्सान पहुंचाएंगे और सरकारी भाषा में इसे ‘वित्तीय निपटान’ की संज्ञा दी जाएगी। यानी कि प्रमोटर अपनी कम्पनी की इक्विटी को खो देंगे लेकिन इसके बावजूद इन कम्पनियों को ऋण पोषण जारी रहेगा। 

दूसरी ओर शिक्षा के लिए ऋण लेने वाले परिवारों के यदि बुरे से बुरे दिन भी आ जाएं तो भी बैंकों को मात्र 6336 करोड़ रुपए का ही घाटा वहन करना पड़ेगा। अधिक से अधिक भी इसे खींच लें तो यह राशि 10 हजार करोड़ से पार बिल्कुल भी नहीं जा सकती। फिर भी इस प्रकार के ऋणों के लिए कोई ‘वित्तीय निपटान योजना’ उपलब्ध नहीं होती बल्कि इन्हें तो ‘वित्तीय कयामत’ का नाम ही दिया जाएगा और सभी शिक्षा ऋण रोक दिए जाएंगे। क्या विकासोन्मुखी तथा कल्याणकारी सरकार का चेहरा सचमुच ऐसा होता है?

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