Edited By ,Updated: 10 Jan, 2020 03:47 AM
किसी के जीवन का अतिशय दारूण दुख बालीवुड के मसाले में लिपटकर जो पाखंडी चरित्र अपना लेता है वह उस अतिशय दुख से भी बढ़कर चुभने वाला सिद्ध होता है। फिल्म ‘छपाक’ एक ऐसी लड़की की कारूणिक और बहादुरी मिश्रित कथा है जो समाज के राक्षसों से लड़ते हुए जिंदगी से...
किसी के जीवन का अतिशय दारूण दुख बालीवुड के मसाले में लिपटकर जो पाखंडी चरित्र अपना लेता है वह उस अतिशय दुख से भी बढ़कर चुभने वाला सिद्ध होता है। फिल्म ‘छपाक’ एक ऐसी लड़की की कारूणिक और बहादुरी मिश्रित कथा है जो समाज के राक्षसों से लड़ते हुए जिंदगी से हारी नहीं, बल्कि जीत का प्रेरक परचम फहराया। दीपिका पादुकोण इस फिल्म की नायिका है जिसने तेजाब से चेहरा विकृत करा बैठी लक्ष्मी का चरित्र निभाया है।
लक्ष्मी अग्रवाल दिल्ली की है और जिस दरिंदे ने उस पर तेजाब फैंका था, उसका नाम था नदीम खान। यह एक ऐसी कथा है जिसको सामान्यत: हर संवेदनशील व्यक्ति देखता और कुछ सीखता भी। पर जो दीपिका पादुकोण माओ त्से तुंग और पोल पॉट की खूनी विरासत के नवीन उन रहनुमाओं के बीच सहानुभूति प्रकट करने जे.एन.यू. जा पहुंची जिन्होंने कभी कारगिल वीरों का अपमान किया था और आज तक नक्सली आतंक की भत्र्सना नहीं की, उसी दीपिका और उनके इर्द-गिर्द बसे बालीवुड संसार की नीयत पर यह देखते हुए अब शक किया जा रहा है कि ‘छपाक’ फिल्म में नदीम खान का नाम किस सैक्युलरवाद के अंतर्गत बदल दिया गया।
यह मौसम हिंदुओं के प्रतीकों पर तेजाब छिड़कने का है
वैसे यह मौसम भी खुलकर हिंदुओं के प्रतीकों और उनकी संवेदनाओं पर तेजाब छिड़कने का है और वह भी उन लोगों द्वारा जो अन्यथा खुद को देश से विदेश तक ‘डरे हुए लोग’ बताने से नहीं अघाते। भाई नागरिकता कानून का विरोध करो, कौन रोकता है, पर नागरिकता कानून के विरोध का हनुमान मंदिर तोडऩे, हिंदुओं द्वारा पूजित तथा बिहार राज्य सरकार के शासकीय प्रतीक चिन्ह में अंकित स्वस्तिक को हिटलरी सलाम देने या स्वस्तिका को तोड़कर उन पर अंग्रेजी में ‘फ...’ लिखने से क्या संबंध हो सकता है? नागरिकता कानून जिसने भी पढ़ा है वह जानता है कि उसका किसी भी भारतीय नागरिक से कोई संबंध नहीं है, भले ही वह किसी भी आस्था को मानने वाला क्यों न हो। इस कानून के विरोध में हिंदुओं को गाली देने की बात कहां से आ गई? जो वामपंथी छात्राएं प्रदर्शन में उतरीं उन्होंने अपने चेहरे पर ‘फ...’ हिंदू राष्ट्र लिखा तथा तिरंगे में चक्र हटाकर वहां ला इलाहा लिलाह लिख दिया।
यह अच्छा सैक्युलरवाद परोसा जा रहा है। हिंदू तो सभी पार्टियों में हैं। हिंदू धर्म किसी एक पार्टी या संगठन का प्राइवेट लिमिटेड कारोबार नहीं है। दस उंगलियों में बारह अंगूठियां, तांत्रिकों से हवन और बलि, पूजा-पाठ, माथा टेकना, छठ और दीवाली, यह सिर्फ एक दल और संगठन का त्यौहार कर्म थोड़े ही है। उन हिंदुओं के सीने पर हिंदुओं को गाली देकर नागरिकता कानून का विरोध करने वाली आवाजें सुनकर कोई तड़प नहीं पैदा होती। मुम्बई में गेट वे आफ इंडिया पर नागरिकता कानून और जे.एन.यू. वगैरह-वगैरह के बारे में गुस्सा व्यक्त करने जो लोग आए उनमें फ्री कश्मीर के पोस्टर का क्या मतलब था? पर हिंदू शिरोमणि सत्ता के कारोबारी उस पर भी खामोश रह गए और लड़की को बचाने के बयान देने लगे।
गेट वे आफ इंडिया की भीड़ और यह पोस्टर पाकिस्तान की आई.एस.आई. तथा वहां की फौज के डायरैक्टर जनरल ने ईद मनाते हुए खूब ट्वीट किया और वाशिंगटन पोस्ट तक यह देखकर चमक गए कि भारत के छात्र विद्रोह पर उतर आए हैं। उन्हें लगा कि यहां भी अरब देशों जैसा कुछ ‘सिप्रिंग’ जैसा विद्रोह हो रहा है, जबकि पैंतीस लाख से ज्यादा भारतीय छात्रों में से कुछ सौ छात्रों का सड़क पर उतरना क्या अर्थ रखता है, यह केवल भारतीय भाषाओं के अखबार ही समझ सकते हैं।
इस कोलाहल में दीपिका पादुकोण की फिल्म बालीवुड छाप घटिया और बाजारू सैक्युलरवाद की जो नुमाइश एक तेजाब पीड़ित लड़की की कारूणिक कथा को भुनाते हुए कर रही है, वह स्तब्धदायक है। कल्पना करिए यदि तेजाब फैंकने वाला राजेश होता तो क्या फिल्म में उसका नाम सैक्युलरवाद की खातिर बदलकर नदीम कर दिया जाता? तो फिर नदीम का नाम कौन सी नैतिकता के अंतर्गत बदलकर हिंदू नाम दे दिया गया। जो है सो है। जैसा होता है वैसा दिखना चाहिए। यह बेईमानी क्यों की जाती है कि खुलेआम हिंदुओं पर हो रहे शाब्दिक एवं प्रतीकात्मक हमलों पर मीडिया और बालीवुड खामोश रहे। यदि भीड़ द्वारा कुचलने की कोई घटना हो या किसी के बाल तक भर को ‘टच’ करने का मामला हो तो अपने ही मादरे वतन के खिलाफ देश-विदेश में जहर उगलने से परहेज नहीं किया जाता। यह एकतरफापन ‘सॉफ्ट टैरेरिज्म’ और शब्द हिंसा का बेहद मारक आक्रमण है जो उतना ही मारक होता है जितना लोहे की खड्ग का प्रहार।
बालीवुड की यह नदीम से राजेश तक की बेईमानी भरी यात्रा
किसी अच्छी कलात्मक और संवेदनशील प्रस्तुति में यदि बेईमानी और पाखंड का छींटा लग जाए तो पूरी सफेद चादर खराब हो जाती है। बालीवुड की यह नदीम से राजेश तक की बेईमानी भरी यात्रा हमारे इस समय पर एक बड़ा धब्बा और टिप्पणी है जो धूर्तता, संवेदनहीनता एवं हिंदुओं के प्रति घनीभूत घृणा का आश्चर्यजनक उदाहरण है। घनीभूत घृणा शब्द का इसलिए इस्तेमाल किया क्योंकि ननकाना साहिब से लेकर पेशावर तक जो हिंदू और सिख हर दिन भयानक त्रासदियों के शिकार हो रहे हैं, जे.एन.यू. से गेट वे आफ इंडिया तक गुस्से में तनी मुट्ठियां उनको शरण देने के खिलाफ ही नहीं हैं बल्कि अपने आंदोलन में हिंदू विरोध और भारत तोडऩे के नारे शामिल करके देशभक्त मुसलमानों को भी जलील तथा अपमानित कर रही हैं। जे.एन.यू. से जे.एन.यू. तक दीपिका पादुकोण के बालीवुड की फिल्मी बेईमानी ने इस घाव पर नमक ही छिड़का है।-तरुण विजय