पर्वतीय राज्यों में आर्थिक विकास : भविष्य के लिए एक ‘रोडमैप’

Edited By Pardeep,Updated: 20 Nov, 2018 05:20 AM

economic development in mountain states a  roadmap  for the future

हजारों सालों से महान हिमालय पर्वत शृंखला विदेशी आक्रमणकारियों के रास्ते में बाधा बनकर खड़ी हुई है। इसी हिमालय पर्वत शृंखला से भारत की कई महत्वपूर्ण नदी प्रणालियां, जैसे पवित्र गंगा, ब्रह्मपुत्र और सतलुज आदि निकली हैं। यह जाना-पहचाना तथ्य है कि किस...

हजारों सालों से महान हिमालय पर्वत शृंखला विदेशी आक्रमणकारियों के रास्ते में बाधा बनकर खड़ी हुई है। इसी हिमालय पर्वत शृंखला से भारत की कई महत्वपूर्ण नदी प्रणालियां, जैसे पवित्र गंगा, ब्रह्मपुत्र और सतलुज आदि निकली हैं। यह जाना-पहचाना तथ्य है कि किस तरह से ये नदी प्रणालियां लाखों लोगों की जिंदगी को सहारा देती हैं। पर्वतों में रह रहे लोग हजारों सालों से इस नाजुक प्रणाली की हिफाजत कर रहे हैं। उन्होंने प्रकृति और हमारे देश के लिए इसे दृढ़ता,पवित्रता और भागीदारी के माध्यम से किया है। 

पहले के योजना आयोग ने पर्वतीय राज्यों की विकास संबंधी जरूरतों के मद्देनजर एक टास्क फोर्स का गठन किया था। पर्वतीय इलाकों में रह रहे लोगों के लिए टास्क फोर्स ने कुछ यूं कहा था, ‘‘पर्वतीय राज्यों के निवासी समाज को आवश्यक पारिस्थितिक तंत्र की सेवाएं देने के अवसर लागत का बड़ा हिस्सा वहन करते हैं। फिर भी अपने संरक्षण के प्रयासों के बदले उन्हें बहुत ही कम प्रोत्साहन मिलता है और अक्सर उन्हें अतिरिक्त बोझ उठाने के लिए कहा जाता है। मुश्किल इलाके और अपर्याप्त बुनियादी सुविधाएं, खासकर कनैक्टिविटी इन इलाकों में सेवा वितरण की लागत को तेजी से बढ़ाती हैं। यह पर्वतीय राज्यों के विकास में सामान्य से कम आॢथक और सामाजिक संकेतकों में दिखाई पड़ता है।’’ 

बुनियादी ढांचे बनाना अपेक्षाकृत मुश्किल
पर्वतीय राज्यों में सड़क, रेल, एयरपोर्ट या दूसरे बुनियादी ढांचे बनाना मैदानी इलाकों की अपेक्षा ज्यादा मुश्किल है। सिल्वीकल्चर जैसे कृषि के उभरते हुए क्षेत्र पर्वतीय राज्यों में भारी राजस्व और रोजगार पैदा कर सकते हैं। हिमाचल प्रदेश अकेले सिल्वीकल्चर से 60 हजार करोड़ रुपए तक का राजस्व बना सकता है। हालांकि कानूनों का जाल, जैसे कि वन संरक्षण अधिनियम 1980, वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972, भारतीय वन अधिनियम 1972, इस तरह के उद्यम के विकास को मुश्किल बनाते हैं। 

यह उल्लेखनीय है कि पहाड़ी राज्य, जिनमें हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और पूर्वोत्तर के राज्य विशेष दर्जा प्राप्त राज्यों की श्रेणी में आते हैं और केन्द्र से इन्हें विशेष अनुदान मिलता है। जहां तक जी.एस.टी. में केन्द्र के हिस्से का संबंध है, इन राज्यों को खास टैक्स प्रोत्साहन भी मिलता है। इतने समर्थन के बावजूद पर्वतीय राज्यों को सर्वोत्कृष्ट प्रदर्शन दिखाना बाकी है, जबकि वे अपना खुद का राजस्व पैदा करने में सक्षम हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस अनिवार्यता को पहचाना है और पर्वतीय राज्यों में बुनियादी ढांचे के विकास के मकसद से नीतियां बनाई हैं। 

पूर्वोत्तर राज्यों में यह खासकर ध्यान रखने योग्य तथ्य है कि इलाके को परिवहन के जरिए बदल दिया गया है। कई रेल मार्गों, सड़क मार्गों और हवाई मार्गों ने पर्वतीय राज्यों को अभूतपूर्व आर्थिक प्रोत्साहन दिया है। चाहे यह बिलासपुर को लेह से जोडऩे वाला रेल मार्ग हो या भूपेन हजारिका सेतु। सीमावर्ती इलाकों में सड़कों के विकास पर जोर न सिर्फ पहुंच से दूर इलाकों को बाकी देश से जोड़ेगा, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा को भी मजबूत करेगा। उड़ान कार्यक्रम के जरिए केन्द्र का लक्ष्य विमान यातायात के जरिए दूर-दराज के पर्वतीय राज्यों को देश के दूसरे हिस्सों से जोडऩा है। 

जी.एस.डी.पी. के मुकाबले बहुत भारी कर्ज
ज्यादातर पर्वतीय राज्यों पर जी.एस.डी.पी. यानी सकल राज्य घरेलू उत्पाद के मुकाबले बहुत भारी कर्ज है। 2014 में राष्ट्रीय औसत 21 फीसदी की तुलना में सभी पर्वतीय राज्यों का औसत कर्ज जी.एस.डी.पी. का  39 फीसदी है। यह पहाड़ी राज्यों की अर्थव्यवस्थाओं की स्थिति दर्शाता है। इनके पास कराधान के पर्याप्त स्रोत नहीं हैं। इसमें से अधिकतर कर्ज सरकारी सबसिडी और पैंशन की वजह से है। बुनियादी ढांचे के लिए पूंजी या तो केन्द्र सरकार से या फिर वल्र्ड बैंक या एशिया डिवैल्पमैंट बैंक से कर्ज के तौर पर मिलती है। 

दूसरा अहम मुद्दा वन मंजूरी का है। सभी पहाड़ी राज्य बहुत अधिक वन आच्छादित हैं, ऐसे में बुनियादी ढांचे का कोई भी प्रोजैक्ट पेड़ों के बड़ी संख्या में कटान की कीमत पर ही होगा। एक पेड़ भी काटना बहुत ही पीड़ादायक होता है लेकिन कभी-कभी राज्य में जरूरी बुनियादी ढांचे को बनाने के लिए पेड़ों को काटना आवश्यक होता है। दिलचस्प बात यह है कि पहाड़ी राज्यों ने 1991 से 2011 तक अपना वन आच्छादन 4 फीसदी तक बढ़ा दिया। केन्द्र सरकार को पर्वतीय राज्यों के विकास के लिए बहुत ही जरूरी परियोजनाओं की वन मंजूरी को प्राथमिकता देनी चाहिए। वन मंजूरी में तेजी लाने के लिए केन्द्र और राज्य सरकार के स्तर पर ‘वन स्टॉप क्लीयरैंस सिस्टम’ बहुत ही सहायक होगा। सरकार को पर्वत आधारित विकास नीति लाने की दिशा में देखना होगा, जबकि बुनियादी ढांचे से जुड़े विभिन्न मंत्रालयों के नौकरशाहों को भी पर्वतीय राज्यों के सामने आने वाली चुनौतियों से अवगत करवाना होगा। 

राजकोषीय अनुशासन बनाए रखना जरूरी
दूसरी ओर राज्य सरकारें परिचालन राजस्व के स्थायी स्रोत को विकसित करने के लिए नीतियां बना सकती हैं। भौगोलिक स्थिति के मद्देनजर पर्वतीय राज्यों में राजकोषीय अनुशासन बनाए रखना निहायत जरूरी है। पर्वतीय राज्य दूसरों की तुलना में ज्यादा खतरों का सामना करते हैं, ऐसी आपात परिस्थितियों से निपटने के लिए उन्हें पूंजी की जरूरत होती है। बढ़े हुए राजस्व का इस्तेमाल पेयजल, खाद्य और स्वास्थ्य के क्षेत्र में फंड देने के लिए हो सकता है। पर्वतीय राज्यों में ऐसी सेवाओं को पहुंचाने में सामुदायिक भागीदारी चमत्कार कर सकती है। हाल ही में मैंने प्राथमिक स्वास्थ्य में एक पहल की है, जिसमें पहाड़ी इलाकों के दूर-दराज के गांवों में मोबाइल मैडीकल यूनिट्स बिना किसी शुल्क के स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता बढ़ाने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। सिर्फ 45 दिनों में हमारे मोबाइल अस्पतालों ने 10000 लोगों को स्वास्थ्य सुविधा मुहैया करवाई है। 

एक मजबूत सेवा क्षेत्र बनाने पर जोर पहाड़ी राज्यों को एक झटके से आर्थिक पावरहाऊस बना सकता है। पर्वतीय राज्यों को ईको टूरिज्म, मैडीकल टूरिज्म, बैंकिंग, अनुसंधान और विकास सुविधाओं जैसे सेवा क्षेत्र को विकसित करने के लिए व्यापार अनुकूल माहौल बनाना चाहिए। पर्वतीय राज्य अपने प्राकृतिक फायदों की वजह से सेवा क्षेत्र के इन उद्योगों को बढ़ाने और उनसे राजस्व स्रोत बनाने में समक्ष हैं। मजबूत पर्वतीय राज्य हमारे देश की अर्थव्यवस्था को अधिक समावेशी और लचीला बनाएंगे। अब सभी हितधारकों के लिए यह जरूरी है कि वे साथ आएं और हमारे देश के आर्थिक विकास के व्यापक हित में पर्वतीय राज्यों के लिए सतत् आर्थिक योजना बनाएं। क्या हम सभी इसके लिए तैयार हैं?-अनुराग ठाकुर

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