अर्थव्यवस्था ऐसी, जैसे ‘कोरोना वायरस’ से पीड़ित हो

Edited By ,Updated: 06 Feb, 2020 03:43 AM

economy as if suffering from corona virus

भारतीय अर्थव्यवस्था वर्तमान में डावांडोल स्थिति में है। सरकार इस संकट को पूरी तरह सोख नहीं पाई है। यह तो ऐसा ही है जैसे अर्थव्यवस्था कोरोना वायरस से पीड़ित हो, इसकी जांच हो गई हो तथा इसके उपचार की जगह जुकाम के लिए दवा दे दी गई हो। बजट में घोषित कोई...

भारतीय अर्थव्यवस्था वर्तमान में डावांडोल स्थिति में है। सरकार इस संकट को पूरी तरह सोख नहीं पाई है। यह तो ऐसा ही है जैसे अर्थव्यवस्था कोरोना वायरस से पीड़ित हो, इसकी जांच हो गई हो तथा इसके उपचार की जगह जुकाम के लिए दवा दे दी गई हो। बजट में घोषित कोई भी उपाय सकारात्मक तौर पर विनिर्माण, रियल एस्टेट, धुंधले पड़े बैंकिंग सैक्टर पर कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाया है। बेरोजगारी तेजी से बढ़ रही है। उपभोग, निवेश तथा बचत गिर रही है तथा मंदी का पालन-पोषण फिर से हो रहा है। इसके अतिरिक्त हमारा बैंकिंग सैक्टर बेतरतीब है। 

एक के बाद एक को-आप्रेटिव बैंक धड़ाम से गिर रहा है। हमने 1991 में नियो लिबरल इकोनॉमिक आर्डर को अपनाने के बाद तेजी से वृद्धि को सहारा दिया था। ऊंची वृद्धि दर के ट्रैक पर फिर से लौटने के लिए सरकार को चाहिए कि वह अनुमानित बोझ को कम करे। रियल एस्टेट सैक्टर में नकदी को सुधारना होगा। अर्थव्यवस्था के मांग वाले क्षेत्र को स्थिर करने से वृद्धि में कमी आई है। इन सभी मामलों पर बजट बुरी तरह से फेल हुआ है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की घोषणाएं मात्र आंखों को धुंधलाने वाली हैं। यह बजट भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए न तो तत्काल और न ही लम्बे समय के लाभों को उत्पन्न कर सकेगा। 

उदारीकरण के पूर्व वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था मात्र 3.5 प्रतिशत की वृद्धि ले पाई। जब धर्मनिरपेक्ष गठबंधन 1991 से लेकर 1998 तक सत्ता में रहे, तब यह 5.4 प्रतिशत रही। अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में यह 5.7 प्रतिशत रही तथा यू.पी.ए. शासन के दौरान 8.02 प्रतिशत रही। वहीं एन.डी.ए. सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान 2014 के शुरू में यह 5.5 प्रतिशत रही। युवा जनसंख्या, औद्योगिक आधार तथा साइंटिफिक शिक्षा जैसे वृद्धि के उन उदारवादी स्तरों के साथ आदेश अर्थव्यवस्था तथा उदारीकरण के बाद के युग ने यह दर्शाया कि दोनों आॢथक मॉडल भारत के लिए उपयुक्त नहीं हैं। वित्तीय वर्ष 2019-20 की दूसरी तिमाही के दौरान विकास दर 4.5 प्रतिशत पर लुढ़क गई। विश्व ने भी इसके और कम होने की आशा जताई है। हम यह कह सकते हैं कि अब हम लोग ढांचागत मंदी की मझधार में हैं। 

पूरा वित्तीय ईको सिस्टम जिसमें पब्लिक तथा प्राइवेट सैक्टर के बैंक, नॉन-बैंकिंग, फाइनैंशियल कम्पनीज (एन.बी.एफ.सी.), हाऊसिंग फाइनांस कम्पनीज (एच.एफ.सी.) तथा को-आप्रेटिव बैंक कमजोर, लडख़ड़ाने वाले तथा आपदा को झेलने वाले बन चुके हैं। वित्तीय अवगुण के मामले भी प्रकाश में आए हैं क्योंकि अपनी कम्पनियों की नाजुक वित्तीय हालत के बावजूद उद्योगपतियों ने ऋण लेना जारी रखा। आई.एल. एंड एफ.एस. ने अपने पतन के कारण धुंधले पड़े बैंकिंग सैक्टर को और आघात पहुंचाया। अपने भुगतानों की जिम्मेदारियों पर दोषी पाए गए दिवान हाऊसिंग फाइनांस लि. की बारी भी आई।

उसके बाद अंतिम तौर पर चुनिंदा हाऊस डिवैल्पमैंट इंफ्रास्ट्रक्चर लि. (एच.डी.आई.एल.) जोकि पहले से ही एन.पी.ए. (नॉन परफार्मिंग एसैट्स) था, को 73 प्रतिशत लोन देने के बाद पंजाब एंड महाराष्ट्र कोआप्रेटिव बैंक ने भी धूल चाटी। हमारी अर्थव्यवस्था की हालत पर ताजा आघात श्री गुरु राघवेन्द्र साहाकार बैंक जोकि कर्नाटक आधारित सहकारी बैंक है, ने किया जब आर.बी.आई. ने इससे निकासी पर प्रतिबंध लगा दिए। हमारे वित्तीय संस्थानों का गिरना कोई आश्चर्य वाली बात नहीं क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था के मूलभूत ढांचे पर हमले जारी हैं। मूलभूत ढांचों से हमारा मतलब रोजगार, उपभोग, निवेश तथा बचत से है, जिन्होंने विपत्ति वाले संकेत दिए हैं। हाल ही में थिंकटैंक सी.एम.आई.ए. ने बेरोजगारी दर को दिसम्बर 2019 में 7.7 प्रतिशत आंका है, जो नवम्बर में 7.48 प्रतिशत तथा दिसम्बर 2018 में 7.02 प्रतिशत बढ़ी। 

आर्थिक मंदी का असर निर्यात और आयात पर 
आर्थिक मंदी का प्रमाण निर्यात क्षेत्र में दिखा। दिसम्बर 2019 में लगातार 5वें माह के लिए भारत का निर्यात 1.8 प्रतिशत की दर से 27.36 बिलियन डालर रहा है। आयात भी 8.83 प्रतिशत की दर से 36.61 बिलियन डालर रहा। दिसम्बर 2018 से लेकर पिछले माह तक तेल आयात जिसका इस्तेमाल आर्थिक गतिविधि को नापने के लिए किया जाता है, भी गिर कर 0.83 प्रतिशत रह गया। 

लीक हुआ एक एन.एस.एस.ओ. सर्वे कहता है कि भारत का पूरा उपभोग 2011-12 से लेकर 2017-18 तक 3.7 प्रतिशत की दर से गिरा। सरकार ने रिपोर्ट को जारी करने से यह कह कर मना कर दिया कि इसमें कुछ डाटा दिक्कतें हैं। लोग केवल उपभोग ही कम नहीं कर रहे बल्कि निवेश भी कम कर रहे हैं।  2011-12 में जी.डी.पी. के 23.6 प्रतिशत तथा 2017-18 में जी.डी.पी. के 17.2 प्रतिशत होने के कारण घरेलू बचत में गिरावट दर्ज की गई। इसका अभिप्राय: यह है कि लोग कम कमा रहे हैं। 

कमाई में कमी तथा न्यूनतम बचत इसलिए है क्योंकि लोग अब कम निवेश कर रहे हैं। सितम्बर 2019 की तिमाही खत्म होते हुए प्राइवेट सैक्टर का निवेश 59 प्रतिशत कम हुआ। जी.डी.पी. के प्रतिशत के तौर पर विनिवेश गिर कर 1.55 प्रतिशत रह गया जोकि 2008 में 3.62 प्रतिशत की अच्छी हालत में था। एक और दिक्कत वाली बात यह है कि भारत में आने वाले नए विदेशी निवेश प्रकृति में काल्पनिक ही दिखे। विनिर्माण या फिर ग्रीन फील्ड इंफ्रास्ट्रक्चर में शायद ही कोई नया निवेश हो रहा हो। इसका मुख्य कारण निवेशक पर अनुपालक बोझ है। लोगों के हाथों में और पैसा रखने के लक्ष्य की अपनी सेवा में इस सरकार ने नाममात्र ध्यान दिया है। मगनरेगा जोकि सरकार का अहम ग्रामीण खर्चे वाला कार्यक्रम है, ने भी व्यय में कोई समझ वाली वृद्धि नहीं देखी। खर्च में कोई बढ़ौतरी के बावजूद सरकार के वित्तीय दावे डावांडोल दिखाई पड़ रहे हैं। 

हमारी गिरती अर्थव्यवस्था के लिए बजट ने कुछ भी नहीं किया। हमारी अर्थव्यवस्था के मूलभूत कभी भी इतने कमजोर नहीं रहे। बैंकिंग सिस्टम बेहद संकट से गुजर रहा है। भाजपा के साम्प्रदायिक विचारों के चलते पूरे देश में अशांति व्याप्त है। सामाजिक कलह फैल रही है। भारत से ज्यादा से ज्यादा पैसा बाहर जा रहा है, जिससे हम वित्तीय तौर पर और कमजोर हो रहे हैं। गम्भीर चोट सहने के लिए हम ऊंची उड़ान भर रहे हैं।-मनीष तिवारी

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