भारत में रोजगार और राजनीति अंधकारमय

Edited By ,Updated: 19 Apr, 2021 03:45 AM

employment and politics in india are bleak

भारत में वर्तमान पीढ़ी किस प्रकार बढ़ रही है और वह किस माध्यम से अपना जीवन यापन करेगी? मेरी उम्र 50 वर्ष से ज्यादा है और मेरा स्वास्थ्य भी ठीक है। अच्छी किस्मत के साथ मैं कुछ और दशक भी देख सकता हूं। मगर उत्पादकता के मामले

भारत में वर्तमान पीढ़ी किस प्रकार बढ़ रही है और वह किस माध्यम से अपना जीवन यापन करेगी? मेरी उम्र 50 वर्ष से ज्यादा है और मेरा स्वास्थ्य भी ठीक है। अच्छी किस्मत के साथ मैं कुछ और दशक भी देख सकता हूं। मगर उत्पादकता के मामले में मेरे अच्छे वर्ष पीछे की ओर रह गए हैं। भविष्य उन लोगों का है जो आज बच्चे और युवा वयस्क हैं। उनके लिए उनके पास क्या है? अपनी अगली किताब के लिए दिए जाने वाले विवरण हेतु पिछले 7 वर्षों के आंकड़े और तथ्यों पर अगर नजर दौड़ाएं तो मैं जान सकता हूं कि भविष्य में क्या हो सकता है? 

आर्थिक तौर पर भविष्य उस समय से थोड़ा भिन्न है जब मैं जॉब मार्कीट में आया था। भारत में अपनी अर्थव्यवस्था को उदारीकृत कर दिया जब मैं 21 वर्ष का हो गया था। उसके कुछ वर्षों के बाद शहरों में नौकरियों के बाजार में बड़े पैमाने पर सुधार हुए। यहां तक कि बिना किसी विशेषज्ञता वाले सामान्य कालेज की डिग्री लेने वाले लोगों को एक वातानुकूलित कार्यालय में एक ‘व्हाइट कालर जॉब’ मिल सकती थी। यदि उनके पास अंग्रेजी का बुनियादी ज्ञान था। 

इससे मध्यम वर्ग को बहुत फायदा हुआ जिनकी हमेशा गुणवत्ता वाले स्कूलों तक पहुंच थी लेकिन काम के मामले में कोई विकल्प न थे (यही कारण है कि माता-पिता शिक्षा में विशेषज्ञता पर जोर देते रहे और बच्चों को डाक्टर और इंजीनियर बनने के लिए कहते रहे)। अब बी.ए. या बी.काम करने वाले पुरुष या फिर महिला को उच्च श्रेणी वाली जीवन शैली तक अपनी पहुंच बनाना संभव था। मैं वही था जो इससे लाभान्वित हुआ जैसे कि लाखों लोग हुए। ज्यादातर भारतीयों को इससे कोई फायदा नहीं हुआ। बेशक क्योंकि उनकी पहुंच न तो बड़े शहरों तक और न ही अच्छी शिक्षा तक थी। मगर उन्हें उम्मीद थी और यह उन हजारों शिक्षा संस्थानों की व्याख्या करता है जो भारत के कस्बों में फैले हुए थे। शहरों में जो हो रहा था उसे दोहराने का प्रयास किया गया। 

अब यह अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत की शहरी बेरोजगारी अपने ऐतिहासिक उच्चतम स्तर पर है। विशेष तौर पर भारत के श्रम बल की भागीदारी दर जोकि रोजगार में लगी है या फिर कार्य ढूंढ रही है, भी अपने ऐतिहासिक न्यूनतम स्तर पर है। इसका अभिप्राय: यह हुआ कि कार्य करने वाले आयु के करोड़ों भारतीयों ने नौकरी पाने की उम्मीद बिल्कुल खो दी है। यही हालात महामारी से पहले थे और यह स्थिति अगले तीन वर्षों के लिए भी स्थिर बनी हुई है। इसका मतलब है कि ये चक्रीय समस्या नहीं है और यह अपने आप नहीं बदलेगी। काम की कमी के कारण उम्मीद में भी कमी हो जाएगी और इसके नतीजे भी होंगे। उम्मीद खोने वाले लोग अपराध और अराजकता में बढ़ते चले जाएंगे। 

वैश्विक स्तर पर दीर्घकालिक रुझान भी व्यापार और रोजगार दोनों के लिहाज से नकारात्मक है। अतीत के विपरीत जब हम में से कुछ लोग लाभान्वित हुए तो भविष्य उन लोगों के लिए आशा नहीं रखता जो आज युवा हैं जिस भारत में मैं पला बढ़ा हूं वह सामाजिक रूप से बदल गया है। भारत को हमेशा अपनी सैद्धांतिक धर्म निरपेक्ष स्थिति को उस वास्तविकता के साथ समेटने की समस्या नहीं है जो साम्प्रदायिक तनाव में थी। 80 और 90 के दशक हमें इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत देते हैं। हालांकि इस साम्प्रदायिक आवेग को सरकार के प्रयासों द्वारा कम किया गया है। मोदी सरकार ने 2014 के बाद से आवेग को सक्रिय रूप से नहीं बढ़ाया। इसके परिणाम आंतरिक और बाहरी रूप से कम महत्वपूर्ण हैं। 

भारत के भीतर हमारी राजनीति अंधकारमय हो गई है। चुनाव अभियान प्रमुख राजनीतिक दल द्वारा सक्रिय रूप से भारतीय मुसलमानों को लक्षित करके चलाए जाते हैं क्योंकि चुनावी तौर पर यह पुरस्कार देने वाले हैं और ऐसी बातें हम आगे भविष्य में भी देखेंगे। परिणाम यह है कि इसने भारतीय समाज को नुक्सान पहुंचाया है और पड़ोस में ङ्क्षहसा को उत्पन्न किया है। एक स्पष्ट उदाहरण देने के लिए 2015 से पहले हमारे पास जीरो बीफ लिङ्क्षचग मामले थे। हमने अब ङ्क्षहसा की एक नई मिसाल पेश की है। 

इसका नकारात्मक परिणाम भी होगा जो अर्थव्यवस्था और व्यापक आबादी को प्रभावित करेगा लेकिन आज के बारे में बात करने का कोई मतलब नहीं। बाहरी तौर पर नफरत के लिए हमारे प्यार ने विश्व का ध्यान हमारी ओर खींचा है। इस सप्ताह एक उदाहरण को देखते हुए यूरोपियन पार्लियामैंट ने 14 अप्रैल को कुछ ऐसा कहा, ‘‘भारत में मानवाधिकार की बिगड़ती हुई स्थिति को लेकर सदस्यों ने ङ्क्षचता जताई। इसके लिए मानवाधिकारों और अनेकों संयुक्त राष्ट्र विशेष दूत के लिए यू.एन. हाई कमिशनर द्वारा टिप्पणियां की गई हैं। इसमें ऐसी रिपोर्टें भी शामिल हैं कि मानवाधिकार रक्षकों और पत्रकारों के पास सुरक्षित कामकाजी माहौल की कमी है। रिपोर्ट भारत के नागरिकता संशोधन अधिनियम के बारे में भी अलार्म बजाता है।’’ 

इसके पक्ष में 61 मत और इसके विरोध में 6 मत पड़े। भारतीय इसे रोकने या आलोचना को नर्म करने के प्रयास में विफल रहे। भारत सरकार इस रिपोर्ट को बंद कर देगी क्योंकि इस साल कई अन्य रिपोर्टें भी आनी हैं। आप संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कोई पद दिए जाने की उम्मीद नहीं कर सकते जैसा कि भारत करता है जबकि दुनिया देखती है कि आप क्या कर रहे हैं।-आकार पटेल

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