Edited By Pardeep,Updated: 27 Nov, 2018 04:13 AM
पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के चुनाव प्रचार के मद्देनजर कोटा और कतारें फिर से राजनीतिक थाल पर सज गए हैं। महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री फडऩवीस ने राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट को स्वीकार कर मराठा समुदाय को सरकारी नौकरियों और शैक्षिक संस्थानों...
पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के चुनाव प्रचार के मद्देनजर कोटा और कतारें फिर से राजनीतिक थाल पर सज गए हैं। महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री फडऩवीस ने राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट को स्वीकार कर मराठा समुदाय को सरकारी नौकरियों और शैक्षिक संस्थानों में 16 प्रतिशत आरक्षण का निर्णय कर एक विवेकहीन लोकप्रिय कदम उठाया है।
इसके लिए उन्होंने सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़ा वर्ग नामक एक नई श्रेणी बनाई है। दूसरी ओर भारत में जहां पर महिला लिंग अनुपात में निरंतर गिरावट आ रही है और यह 1000 पुरुषों पर 914 महिलाओं तक पहुंच गया है, देश में प्रतिदिन लगभग दो हजार बालिकाएं मारी जा रही हैं, बालिकाओं की उपेक्षा हो रही है, देश में पैदा होने वाली 12 मिलियन बालिकाओं में से 1 मिलियन बालिकाएं अपना पहला जन्मदिन नहीं देख पाती हैं। इस स्थिति में ओडिशा सरकार ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित कर विधानसभाओं और संसद में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग की है।
नि:संदेह सरकार का मूल उद्देश्य गरीबों का उत्थान करना, महिलाओं को शिक्षा प्रदान करना और उन्हें समान अवसर और बेहतर जीवन शैली प्रदान करना है, किंतु अनुभव बताते हैं कि केवल कानून बनाने से गरीबों का भला नहीं होता है। इससे केवल कुछ लोगों को नौकरी और प्रवेश मिल जाता है, परन्तु ङ्क्षलग के आधार पर भेदभाव समाप्त नहीं होता है। आरक्षण से ग्राम समाज में बदलाव नहीं आएगा क्योंकि उसका सामाजिक ढांचा अशिक्षा और अज्ञानता पर खड़ा है। साथ ही जाति प्रथा की जड़ें हमारे समाज में बहुत गहरी हो चुकी हैं। ऐसे में योग्यता और उत्कृष्टता का क्या होगा? क्या आरक्षण भारत के सामाजिक ताने-बाने और सौहार्द को बनाए रख पाएगा?
आरक्षण से कुछ लाभ हुआ या नहीं
क्या किसी ने इस बात का आकलन किया है कि जिन लोगों को आरक्षण मिला है उन्हें इससे लाभ मिला है या हानि हुई है? न ही महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने से 0.93 का पुरुष-महिला अनुपात बदलेगा जो विश्व में सबसे कम है, न ही बच्चे पैदा करने में हमारी लड़के की प्राथमिकता समाप्त होगी और शिक्षा आदि में ङ्क्षलग अंतर भी समाप्त नहीं होगा। तथापि हम फडऩवीस की मजबूरी समझ सकते हैं क्योंकि महाराष्ट्र में मराठा राजनीतिक दृष्टि से शक्तिशाली समुदाय है और राज्य की जनसंख्या में इसका हिस्सा 30 प्रतिशत है जबकि सरकारी और अर्ध-सरकारी सेवाओं में उसका प्रतिनिधित्व काफी कम है और मराठा समुदाय बहुत लम्बे समय से आरक्षण की मांग कर रहा है।
राज्य सरकार के इस निर्णय का दूरगामी प्रभाव पड़ेगा और इससे अन्य पिछड़े वर्ग प्रभावित होंगे क्योंकि राज्य की राजनीति में मराठाओं की पकड़ और मजबूत होगी। भाजपा के विरोधी इसे एक चुनावी दिखावा बताते हैं और कहते हैं कि यह कदम कृषि संकट, किसानों की मांगें, बेरोजगारी, जल संकट आदि समस्याओं को दूर करने में राज्य सरकार की विफलता से ध्यान हटाने के लिए उठाया गया है और इसलिए क्योंकि अब विधानसभा और लोकसभा के चुनाव नजदीक आ रहे हैं। किंतु मुख्यमंत्री फडऩवीस ने अपने निर्णय को असाधारण और आपवादिक बताते हुए बचाव किया। मराठा समुदाय को 16 प्रतिशत अतिरिक्त आरक्षण देने से यह 68 प्रतिशत तक पहुंच जाएगा।
वर्तमान में अनुसूचित जाति/ जनजाति, घुमंतू जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों को 52 प्रतिशत कोटा प्राप्त है। फडऩवीस ने इस आधार पर अपने निर्णय को उचित बताया कि तमिलनाडु में भी आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से अधिक पहुंच गई है और इस संबंध में याचिका उच्चतम न्यायालय में लंबित है। हालांकि पूर्ववर्ती कांग्रेस-राकांपा सरकार द्वारा मराठाओं को 16 प्रतिशत और मुसलमानों को 5 प्रतिशत आरक्षण देने के निर्णय पर बंबई उच्च न्यायालय ने रोक लगा रखी है। पिछले वर्ष तेलंगाना सरकार ने अल्पसंख्यकों को सरकारी नौकरियों और शैक्षिक संस्थानों में 12 प्रतिशत आरक्षण देने का वायदा किया। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और बसपा की मायावती एक कदम आगे बढ़कर प्राइवेट सैक्टर में दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की मांग कर रहे हैं। इससे पूर्व हरियाणा की भाजपा सरकार ने जाटों और 4 अन्य जातियों के लिए 6 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया था। इसके अलावा 5 अन्य जातियों को श्रेणी 3 और 4 में 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया था, जबकि राजस्थान उच्च न्यायालय ने राज्य सरकर के ऐसे ही एक निर्णय को रद्द कर दिया था।
सामाजिक न्याय औसत दर्जे को बढ़ावा देने की कीमत पर नहीं
सामाजिक न्याय वांछनीय लक्ष्य है किंतु यह औसत दर्जे को बढ़ावा देने की कीमत पर नहीं किया जा सकता है। मराठाओं की राजनीतिक आकांक्षाओं का संज्ञान न लेना आत्मघाती होगा किंतु साथ ही जातीय आधार पर राजनीतिक खेल खेलना भी खतरनाक है। दोगले मानदंडों या अन्य लोगों से अधिक सम्मान की ओरेविल की अवधारणा के लिए लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं है। मूल अधिकारों में जाति, धर्म, पंथ और लिंग को ध्यान में रखे बिना सबको समान अवसरों का अधिकार दिया गया है।
ओडिशा के मुख्यमंत्री के अनुसार वह लिंग भेदभाव को समाप्त करना चाहते हैं और इस दिशा में महिला आरक्षण विधेयक पहला कदम है। इस विधेयक को पारित कराने के लिए पहले भी कई बार प्रयास किए गए हैं। मार्च 2010 में राज्यसभा में संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने के लिए महिला आरक्षण विधेयक पारित किया गया था किंतु लोकसभा में वह पारित नहीं हो पाया। आज संसद के दोनों सदनों में महिला सदस्यों की संख्या 10 प्रतिशत से कम है।
वास्तव में प्रत्येक लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या कमोबेश समान रही है। यह 19 से 47 सांसदों तक सीमित रही है। 12वीं लोकसभा में 7.6 प्रतिशत अर्थात 43 महिला सांसद थीं तो 11वीं में 7.3 अर्थात 40, नौवीं में 5 प्रतिशत अर्थात 28, आठवीं में 8 प्रतिशत और छठी में सबसे कम 19 महिला सांसद थीं। संसद में महिलाएं भेजने के मामले में 135 देशों में भारत का स्थान 105वां है। मधुर विडम्बना देखिए। अन्य पिछड़े वर्गों, अल्पसंख्यकों आदि के लिए और आरक्षण की मांग करने वाले मेड इन इंडिया मुलायम, लालू और मायावती ने महिला आरक्षण विरोध का नेतृत्व किया।
उनकी मांग थी कि इस कोटे में अन्य पिछड़े वर्गों और अल्पसंख्यकों को कोटा दिया जाए। जबकि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के आरक्षण में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का उनका रिकार्ड अच्छा नहीं है और उनके राज्य बिहार और उत्तर प्रदेश मातृ मृत्यु दर, महिला साक्षरता आदि के मामलों में सबसे निचले पायदान पर हैं। हमारा देश लिंग विषमता के मामले में 134 देशों में 114वें स्थान पर है, इसलिए हमारे नेताओं को यह स्वीकार करना होगा कि असमानता है और उसे दूर किया जाना चाहिए। हमारे नेताओं को सभी के लिए समान अवसर देने होंगे क्योंकि सुशासन जाति या लिंग आधारित नहीं होता।
स्त्री शक्ति को गंभीरता से लेना होगा
यदि हम अपने संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग करना चाहते हैं तो हमें अपनी स्त्री शक्ति को गंभीरता से लेना होगा और उसमें निवेश करना होगा। अब सबसे बड़ी चुनौती ओडिशा के कदम को आगे बढ़ाने की है ताकि महिला सशक्तिकरण वास्तविकता बन सके। प्रतिनिधि संस्थाओं में महिलाओं की संख्या अधिक होना अच्छी बात है किंतु खतरा यह है कि कई बार लिंग आधारित राजनीति पुरातनपंथी राजनीति बन जाती है। आवश्यकता बदलाव की है। भारत इस बात का साक्षी रहा है कि विशेषाधिकार के माध्यम से मिली शक्ति से संख्या खेल में चुनावी प्रतिस्पर्धा बढ़ी है। आशा की जाती है कि दोनों विधेयक प्रतिस्पर्धी विवेकहीन लोकप्रियता में कहीं खो न जाएं। हमारे नेताओं को स्वीकार करना होगा कि असमानता है और उसे दूर किया जाना चाहिए। कुल मिलाकर सभी के लिए समान अवसर उपलब्ध कराए जाने चाहिएं और हमारे स्त्री धन को खुश रखने के लिए गर्भ से कब्र तक की नीति अपनाई जानी चाहिए।-पूनम आई. कौशिश