कर्ज के माध्यम से चीनी साम्राज्य का विस्तार

Edited By Pardeep,Updated: 07 Sep, 2018 04:03 AM

expansion of the chinese empire through debt

चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना, न्यू सिल्क रोड ‘वन बैल्ट, वन रोड’ (ओ.बी.ओ.आर.) की वास्तविकता क्या है। इसका खुलासा हालिया मीडिया रिपोटर््स से हो जाता है। वर्ष 2013 से तीन महाद्वीपों-एशिया, पूर्वी अफ्रीका और यूरोप के एक भाग के लगभग 70 देशों में चीन...

चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना, न्यू सिल्क रोड ‘वन बैल्ट, वन रोड’ (ओ.बी.ओ.आर.) की वास्तविकता क्या है। इसका खुलासा हालिया मीडिया रिपोर्टस से हो जाता है। 

वर्ष 2013 से तीन महाद्वीपों-एशिया, पूर्वी अफ्रीका और यूरोप के एक भाग के लगभग 70 देशों में चीन अपनी इस योजना का विस्तार कर रहा है जिसमें पाकिस्तान से लेकर पोलैंड तक चीन ने ऊंची ब्याज दर पर लगभग 900 बिलियन डालर ऋण दिया है। अब इसे लेकर जो खुलासा हुआ है, उसने साम्यवादी चीन की कुटिल और साम्राज्यवादी मानसिकता को पुन: चरितार्थ कर दिया है। साम्यवादी चीन की इस पूरी कसरत के पीछे उसका साम्राज्यवादी चिंतन तो है ही, साथ ही वह दर्शन भी है, जिसमें वह स्वयं को प्राचीनकाल से ही एक विशाल सभ्यता मानता है, जिसे वह विश्व के लिए ईश्वरीय वरदान होने का दावा करता है। 

दुनिया में अमरीका, ऑस्ट्रेलिया और अन्य पश्चिमी देशों के अतिरिक्त कालांतर में एशियाई महाद्वीप में जापान और भारत वे देश हैं जो चीन के खोखले तिलिस्म को खुलकर चुनौती दे रहे हैं। यही कारण है कि अपने ‘विरोधी’ देशों को आर्थिक, व्यापारिक, राजनीतिक, सामरिक और भौगोलिक रूप से घेरने का प्रपंच बुन रहा है। उदाहरणस्वरूप भारत की घेराबंदी हेतु चीन पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका, नेपाल और रूस से अपने संबंधों को भारी निवेश के नाम पर और अकूत धनबल के माध्यम से मजबूत कर रहा है। इस पूरे घटनाक्रम में साम्राज्यवादी चीन की ‘कर्ज नीति’ ने शेष विश्व की चिंता को बढ़ा दिया है। 

5 वर्ष पूर्व चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने ‘न्यू सिल्क रोड’ के नाम से इस योजना की घोषणा की थी, जिसके अंतर्गत विश्वभर में रेल-सड़क मार्ग और बंदरगाह आदि तैयार किए जा रहे हैं। इसके लिए कुछ सहयोगी देशों ने इसमें भारी निवेश किया है, तो कई देशों को चीन ने अरबों डॉलर का कर्ज दे रखा है। ओ.बी.ओ.आर. के भागीदार देशों को अब इस बात का अनुभव होने लगा है कि वे चीन के ‘कर्ज चक्रव्यूह’ में बुरी तरह फंस चुके हैं। गत माह ही अपने हितों की रक्षा करते हुए मलेशिया ने चीन की मदद से चलने वाली 3 बड़ी परियोजनाओं को बंद करने की घोषणा कर दी। 

मालदीव का 80 प्रतिशत कर्ज चीन का ही है और गत वर्ष इसे चुकाने में असमर्थता के कारण मालदीव को अपनी एक महत्वपूर्ण रणनीतिक बंदरगाह 99 वर्ष के पट्टे पर चीन को देनी पड़ी। इसी तरह आठ अरब डालर के कर्ज में फंसे श्रीलंका की हंबनटोटा बंदरगाह भी दिसम्बर 2017 में चीन ने समान अवधि के लिए पट्टे पर ले ली। चीनी ऋण को चुकाने हेतु इसी वर्ष श्रीलंका ने एक समझौते के अंतर्गत हंबनटोटा की बंदरगाह के निकट बने हवाई अड्डे का परिचालन भारत को सौंपा है। बात चीन द्वारा किसी बड़ी परियोजना के नाम कर्ज देने तक सीमित नहीं है, वह कथित विकास और वैश्विक गरीबी उन्मूलन के नाम पर आर्थिक रूप से कमजोर देशों को भी अपने कर्ज के मकड़ जाल में जकड़ रहा है। हाल ही में चीन ने कुछ गरीब अफ्रीकी देशों को 60 बिलियन डॉलर की आर्थिक मदद देने की घोषणा की है, जिसके एक-चौथाई हिस्से के ब्याज मुक्त होने का दावा किया जा रहा है। 

एशिया महाद्वीप में जमीन के लिए साम्राज्यवादी चीन सर्वाधिक युद्धों में लिप्त रहा है जिसे वह सामरिक सुरक्षात्मक कदम का नाम देता रहा है। चीन ने 1950 में सुरक्षा के नाम पर तिब्बत पर कब्जा किया, इसके तुरंत बाद 1950-53 के कोरिया युद्ध में कूद पड़ा, जिसमें उसने सोवियत संघ के साथ मिलकर अमरीका के विरुद्ध उत्तर कोरिया का साथ दिया। भारत भी उसकी साम्राज्यवादी मानसिकता का शिकार रहा है और 1962 का युद्ध इसका मूर्त रूप है। यही नहीं चीन ने 1974 में बल प्रयोग से दक्षिण वियतनाम के पारासेल द्वीप पर भी कब्जा कर लिया। आज स्थिति यह है कि सभी पड़ोसियों सहित दो दर्जन देशों के साथ चीन का कोई न कोई विवाद चल रहा है। एशिया में केवल पाकिस्तान ही एक ऐसा देश है जो चीन का घनिष्ठ मित्र बना हुआ है जिसका आधार ही केवल और केवल भारत विरोधी एजैंडा है। 

भारत को ‘हजार घाव देकर मौत के घाट उतारने’ की घोषित नीति, अपने वैचारिक उद्देश्य और मजहबी दायित्व की पूॢत के लिए पाकिस्तान आज इतना अंधा हो चुका है कि वह अपने हितों की बलि देने से भी संकोच नहीं कर रहा है। पाकिस्तान को जिस विषाक्त मजहबी चिंतन ने जन्म दिया, कालांतर में उसके पालन-पोषण हेतु आवश्यक जरूरतों ने उसे 21वीं शताब्दी में ‘औपनिवेशिक काल’ के चीनी संस्करण का शिकार बना दिया है। चीनी सरकार पाकिस्तान के ग्वादर में 5 लाख चीनी नागरिकों को बसाने के लिए एक अलग नगर बनाने जा रही है, जो चीनी उपनिवेश की तरह होगा और इसमें केवल चीनी नागरिक रहेंगे। ग्वादर में 15 करोड़ डालर की लागत से बनने वाला यह शहर चीन-पाकिस्तान आर्थिककॉरिडोर (सी.पी.ई.सी.) का हिस्सा होगा, जिसके लिए चाइना-पाक इन्वैस्टमैंट कॉर्पोरेशन ने ग्वादर में 36 लाख वर्ग फुट जमीन खरीद ली है। 

मीडिया रिपोटर््स के अनुसार, वर्ष 2022 तक यह उप-नगर बनकर तैयार भी हो जाएगा। इससे पहले, चीन अपने नागरिकों के लिए अफ्रीका और मध्य-एशिया में ऐसे परिसर या उप-नगर बना चुका है। इसी तरह चीन पूर्वी रूस और उत्तरी म्यांमार में भी जमीन खरीदने जा रहा है। पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री इमरान खान बढ़ते चीनी कर्ज पर अपनी चिंता व्यक्त कर चुके हैं। अरबों डॉलर के चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे को लेकर इमरान की चिंता है कि उनका देश चीन के इस भारी-भरकम कर्ज को चुका पाने में कभी सक्षम होगा या नहीं। 

अमरीकी सांसदों के एक समूह के अनुसार, पाकिस्तान का वित्तीय घाटा जिस तीव्रता से बढ़ रहा है, उसके बाद उसकी अर्थव्यवस्था का निकट भविष्य में पूरी तरह चरमराना निश्चित है। अमरीकी सीनेटर डेविड ए. पारड्यू, पैट्रिक लेहे सहित 14 अन्य सीनेटरों ने अमरीकी विदेश मंत्री और वित्त मंत्री से अपनी आशंका जताते हुए कहा है कि चीन के कर्ज को उतारने के लिए पाकिस्तान अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से मदद मांग रहा है। 

अपने भारत विरोधी एजैंडे के क्रियान्वयन हेतु जिस प्रकार चीन आतंकवाद पर दोहरा चरित्र अपनाते हुए पाकिस्तान और उसके आतंकवादियों को बचाने के लिए अपनी शक्तियों (वीटो सहित) का दुरुपयोग कर रहा है, वहीं चीन के परोक्ष समर्थन से भारत को अस्थिर करने में जुटे नक्सलियों को पाकिस्तान की ओर से हथियारों की आपूर्ति हो रही है। जब 1967 में नक्सलवाद की शुरूआत प. बंगाल के नक्सलबाड़ी क्षेत्र से हुई, तब नक्सली नेता चारू मजूमदार ने ‘चीन का चेयरमैन, माओ हमारा चेयरमैन’ का नारा दिया था। तब वैचारिक समानता के कारण भारतीय वामपंथियों ने 1962 के युद्ध में चीन का पक्ष लेने के बाद इस नारे का भी समर्थन किया। 

आज वही माओवाद देश के पिछड़े-आदिवासी क्षेत्रों से बाहर निकलकर अपना विस्तार कर रहा है, जिसे आज हम ‘शहरी नक्सलवाद’ के नाम से जानते हैं। हाल ही में भीमा-कोरेगांव हिंसा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश रच रहे शहरी नक्सलियों की जब गिरफ्तारियां हुईं, तब यही वामपंथी (स्वघोषित सैकुलरिस्ट और कथित उदारवादी-प्रगतिशीलवादी सहित)  सैकुलरवाद के नाम पर उन्हें बुद्धिजीवी या मानवाधिकार कार्यकत्र्ता के रूप में प्रस्तुत करने लगे। समय आ गया है कि भारतीय जनमानस इस विषाक्त संयोजन और देश-विरोधी शक्तियों का न केवल संज्ञान लें, अपितु उनकी पहचान भी करें। जिस साम्राज्यवादी चिंतन का दोहन करते हुए 1962 के प्रत्यक्ष युद्ध के बाद से चीन परोक्ष रूप से भारत को निरंतर अस्थिर करने का प्रयास कर रहा है, ठीक उसी प्रकार की रणनीति चीन ने ‘वन बैल्ट, वन रोड’ के माध्यम से परियोजना के कई सदस्य देशों के लिए भी निश्चित की है, जिसका दुष्परिणाम पाकिस्तान और श्रीलंका के रूप में सामने आने लगा है।-बलबीर पुंज

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