न्यायपालिका से उम्मीद बरकरार

Edited By Pardeep,Updated: 03 Sep, 2018 04:07 AM

expected from the judiciary

न्याय व्यवस्था अर्थात् देश की अदालतें, भीड़-भाड़ से भरा वातावरण, प्रतिदिन 50 से 100 फाइलों के मानसिक तनाव में डूबे हुए न्यायाधीश, मानवतावादी दृष्टिकोण और यहां तक कि कानूनी मान्यताओं को भी ताक पर रखकर बहस करते हुए वकील देखकर एक बार तो यह भय लगने लगता...

न्याय व्यवस्था अर्थात् देश की अदालतें, भीड़-भाड़ से भरा वातावरण, प्रतिदिन 50 से 100 फाइलों के मानसिक तनाव में डूबे हुए न्यायाधीश, मानवतावादी दृष्टिकोण और यहां तक कि कानूनी मान्यताओं को भी ताक पर रखकर बहस करते हुए वकील देखकर एक बार तो यह भय लगने लगता है कि ‘सत्यमेव जयते’ का नारा तो केवल भारत सरकार का चिन्ह मात्र ही बनकर रह जाएगा। 

रोजमर्रा के इस भयावह वातावरण के बावजूद भी भारत की न्याय व्यवस्था कमोबेश अच्छी ही चल रही है। मुकद्दमों के निपटारे में सालों-साल होने वाला विलम्ब ही एक मुख्य कलंक बना हुआ है अन्यथा अनेकों न्यायाधीश अपने व्यवहार आचरण से भारत की न्याय व्यवस्था की सर्वोच्चता को सिद्ध करते हुए आशा की किरण बन जाते हैं। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश श्री संजय करोल तथा श्री संदीप शर्मा की खंडपीठ ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया है कि भारतीय न्याय व्यवस्था में न्याय को सम्मान देने की पूरी क्षमताएं विद्यमान हैं। कभी-कभी तो ये क्षमताएं न्यायिक प्रक्रियाओं की सीमाओं को भी महत्व नहीं देतीं।

हिमाचल प्रदेश के एक दिवंगत स्वतंत्रता सेनानी स्व. श्री हेतराम शर्मा की दो पुत्रियों रेखा और गीता शर्मा ने मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिखकर उनका ध्यान राज्य सरकार द्वारा स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारों को मिलने वाली सुविधाओं में स्त्री-पुरुष भेदभाव की ओर आकृष्ट करने का प्रयास किया। पत्र में कहा गया कि स्वतंत्रता सेनानियों के परिजनों को राज्य सरकार की नौकरियों में 2 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है। यह सुविधा  स्वतंत्रता सेनानी के पुत्रों, पौत्र-पौत्रियों, बेटियों, दोहते-दोहतियों को प्राप्त होगी। इसी प्रावधान में यह स्पष्ट किया गया कि रोजगार में लगे बच्चों और विवाहित पुत्रियों तथा उनके बच्चों को यह सुविधा प्राप्त नहीं होगी। रोजगार में लगे बच्चों को आरक्षण की सुविधा न देने का प्रावधान तो समझ में आता है परन्तु विवाहित पुत्री और उसके बच्चे इस सुविधा से वंचित क्यों कर दिए गए जबकि विवाहित पुत्र और उनके बच्चे सुविधा के अधिकारी ही बने रहेंगे। 

न्यायालयों में विधिवत प्रस्तुत याचिकाओं के निपटारे में ही इतना लम्बा समय लग जाता है कि कोई आशा भी नहीं कर सकता कि उच्च न्यायालयों या सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश प्रतिदिन मिलने वाले पत्रों पर एक निगाह भी डालेंगे या नहीं परन्तु प्रत्येक उच्च न्यायालय और यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को लिखे गए पत्रों की विधिवत विशेषज्ञों के द्वारा जांच की जाती है। इस अनौपचारिक प्रक्रिया का यह लाभ नहीं उठाया जाना चाहिए कि आम जनता अपने व्यक्तिगत वाद-विवाद को भी पत्रों के माध्यम से ही हल करवाने का प्रयास करे। 

हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के मुुख्य न्यायाधीश ने रेखा और गीता शर्मा के इन पत्रों पर विधिवत संज्ञान लेते हुए उच्च न्यायालय के एक अधिवक्ता श्री देवेन खन्ना को न्यायालय का मित्रवत एडवोकेट नियुक्त करके राज्य सरकार को नोटिस जारी किया और सुनवाई प्रारंभ की। राज्य सरकार ने स्वतंत्रता सेनानी की विवाहित पुत्रियों को आरक्षण सुविधा से वंचित करने के पीछे यह तर्क दिया कि विवाह के उपरान्त महिलाएं अपने मायके परिवार से संबंध तोड़कर पति के परिवार में स्थापित हो जाती हैं इसलिए वे मायके परिवार में स्वतंत्रता सेनानी पिता की पारिवारिक सदस्य होने का दावा नहीं कर सकते। 

राज्य सरकार ने यह स्पष्ट किया कि विवाहित महिलाएं बेशक पिता की सम्पत्ति में कानूनी हकदार बनी रहती हैं परन्तु पिता के परिवार की सदस्य नहीं मानी जातीं परन्तु कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश श्री संजय करोल की पीठ ने इस भेदभाव को पूरी तरह निराशाजनक बताते हुए कहा कि बदलते हुए समय के दृष्टिगत यह तर्क मेल नहीं खाता। ऐसे तर्क संवैधानिक मूल्यों और सिद्धांतों के साथ भी मेल नहीं खाते। ऐसे प्रावधान यह सिद्ध कर रहे हैं कि समाज में आज भी पुरुष प्रधानता जारी है। राज्य सरकार की नीति का लक्ष्य यह नहीं है कि स्वतंत्रता सेनानी परिवारों के केवल पुरुष सदस्यों को ही आरक्षण सुविधा का लाभ मिले। वास्तव में सरकार की नीति का लक्ष्य यह है कि स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदानों को सम्मान प्रदान करते हुए उनके परिजनों को रोजगार देना। 

हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय तथा अन्य उच्च न्यायालयों के कुछ पूर्व निर्णयों का संदर्भ प्रस्तुत करते हुए कहा कि विवाह से महिला की पहचान समाप्त नहीं हो जाती। मायके परिवार के सदस्य के रूप में यह पहचान चलती ही रहती है। इसलिए उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार द्वारा स्वतंत्रता सेनानी के परिजनों को मिलने वाली आरक्षण सुविधा से विवाहित पुत्रियों को वंचित करने वाले प्रावधान को भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 और 15 में व्यक्त समानता के मूल अधिकार का उल्लंघन बताते हुए रद्द कर दिया। 

आज की न्याय व्यवस्था से निराश रहने वाले लोगों को ऐसे मामलों को देखकर आशा की किरण जगानी चाहिए जिसमें न्यायालय ने पत्र लिखने वाली महिलाओं की सुनवाई किए बिना अपने आप और न्यायालय के मित्रवत अधिवक्ता देवेन खन्ना की सहायता से ही न्याय की स्थापना का प्रयास किया। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि उच्च न्यायालय ने स्वतंत्रता सेनानियों को विशेष सम्मान प्रदान करते हुए यह निर्णय स्वतंत्रता दिवस से एक दिन पूर्व ही सुनाया। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश श्री संजय करोल तथा श्री संदीप शर्मा की खंडपीठ ऐसे प्रयासों के लिए साधुवाद की पात्र है और सारे देश की न्याय व्यवस्था के लिए विशेष प्रेरणा की वाहक है।-विमल वधावन(एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट)

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