बेहतर तैयारी के साथ करें प्राकृतिक आपदाओं का सामना

Edited By Pardeep,Updated: 13 Sep, 2018 04:40 AM

facing natural disasters with better preparation

केरल की अनूठी भौगोलिक बनावट-उद्दाम अरब सागर और पश्चिमी घाट के बीच तटवर्ती मैदानों और बेलनाकार पहाडिय़ों से बना यह राज्य कई आसन्न प्राकृतिक खतरों से घिरा हुआ है, जिसमें भूस्खलन, बाढ़ और तटीय क्षरण सबसे आम हैं। खासकर इंसानी दखल के चलते बाढ़ की घटनाएं...

केरल की अनूठी भौगोलिक बनावट-उद्दाम अरब सागर और पश्चिमी घाट के बीच तटवर्ती मैदानों और बेलनाकार पहाडिय़ों से बना यह राज्य कई आसन्न प्राकृतिक खतरों से घिरा हुआ है, जिसमें भूस्खलन, बाढ़ और तटीय क्षरण सबसे आम हैं। खासकर इंसानी दखल के चलते बाढ़ की घटनाएं बढ़ी हैं। हालिया जल प्रलय से 10 लाख से ज्यादा लोग विस्थापित हुए हैं, जिन्हें 3,000 से ज्यादा राहत शिविरों में  रखा गया है। बाढ़ से 21,000 करोड़ रुपए का नुक्सान हुआ है। 

माधव गाडगिल की अगुवाई वाले पश्चिमी घाट विशेषज्ञ पारिस्थितिकी पैनल ने पश्चिमी घाट में करीब 14 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में तीन पारिस्थितिक संवेदनशील क्षेत्र बनाने की सिफारिश की थी और इनमें निर्माण व खनन गतिविधियों पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिए जाने को कहा था। राज्य सरकार ने रिपोर्ट को खारिज कर दिया। 

भारत प्राकृतिक आपदाओं की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र है। इसका लगभग 70 फीसदी भू-भाग सुनामी और चक्रवात की दृष्टि से संवेदनशील है, 60 फीसदी भूभाग भूकंप संभावित  है और 12 फीसदी बाढग़्रस्त है। शहरी भारत में हाल के वर्षों में बीम, खंभे और ईंट की दीवारों के फ्रेम वाली बहुमंजिला इमारतें बहुतायत में बनी हैं। पार्किंग स्पेस के मद्देनजर बुनियादी मजबूती से समझौता करके बनाई गईं इन इमारतों में भारी लागत के बावजूद फौरन रैट्रोफिटिंग किए जाने की जरूरत है।

अधिकांश भारतीय घर पत्थर या कच्ची-पक्की ईंटों की चिनाई करके तैयार दीवारों से बने होते हैं, फिर भी शायद ही किसी सिविल इंजीनियरिंग स्नातक पाठ्यक्रम में इन सामग्रियों पर विचार किया जाता है। इसकी बजाय सारा जोर रीइंफोस्र्ड सीमैंट और कंक्रीट पर है। रुड़की समेत चंद विश्वविद्यालयों में ही भूकंप इंजीनियरिंग को विशेषज्ञ कोर्स के रूप में पढ़ाया जाता है, जिससे रैट्रोफिटिंग के लिए प्रशिक्षित सिविल इंजीनियरिंग मैनपावर की भारी कमी बनी हुई है। फिर भी, रिस्क मैनेजमैंट अभी शुरूआती अवस्था में ही है। नेपाल के भूकंप को भारत की भूकंप चेतावनी प्रणाली एक्सेलेरोग्राफ  ने बमुश्किल ही दर्ज किया। बेकार हो जाने के बाद भी नैशनल सिस्मोलॉजी सैंटर को फंड में कटौती और लालफीताशाही की वजह से नए सैटअप में स्थानांतरित करने में देरी हुई। 

हालात का सामना करने के लिए विकसित राज्य भी कुछ नहीं कर रहे हैं। गृह मंत्रालय ने अप्रैल 2003 में आपदाओं से निपटने के लिए सी.आई.एस.एफ .और आई.टी.बी.पी. से चार बटालियनों को अलग करके विशेषज्ञ टीमें बनाने का प्रस्ताव दिया था, जिसके लिए केरल को एक राज्य  स्तरीय प्रशिक्षण संस्थान और पुलिस स्तर की बटालियनों की पहचान करनी थी। राज्य ने अभी तक इस अनुरोध का जवाब नहीं दिया है। यहां तक कि बीते साल के ओखी तूफान के बाद 600 से अधिक सदस्यों वाली एक विशेष टीम बनाने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा पहले चरण में 30 करोड़ रुपए की मंजूरी के साथ एक प्रस्ताव दिया गया था-यह प्रस्ताव भी राज्य सरकार की मंजूरी का इंतजार कर रहा है। 

हम हर साल आने वाली आपदाओं की भविष्यवाणी कर पाने में भी बहुत पीछे हैं। केदारनाथ त्रासदी के सालों बाद, आज भी उत्तराखंड में शायद ही चंद डॉपलर राडार होंगे जो बादल फटने और भारी बारिश पर अलर्ट (तीन से छह घंटे पहले) देते हैं। पर्याप्त संख्या में हैलीपैड की बात तो जाने दीजिए, सुरक्षित क्षेत्रों के नक्शे या बाढ़ संभावित क्षेत्रों में निर्माण के बारे में दिशा-निर्देश भी मुश्किल से मिलते हैं। पहाड़ों में बड़े बांध मंजूर किए जाते हैं और नैशनल डिजास्टर मैनेजमैंट अथॉरिटी (एन.डी.एम.ए.) खामोश रहता है। भारत के 5000 बांधों में से अभी तक केवल 200 बांधों के लिए ही कुछ राज्यों ने आपातकालीन कार्ययोजना तैयार की है, बाकी 4,800 यूं ही छोड़ दिए गए हैं। मौजूदा समय में सिर्फ  30 के करीब जलाशयों और बैराजों के लिए इनफ्लो पूर्वानुमान उपलब्ध है। वेधशाला नैटवर्क के अपग्रेडेशन के लिए शायद ही कभी परियोजना शुरू हुई। 

केरल में अच्छा काम करने के बावजूद यह हकीकत है कि नैशनल डिजास्टर रिस्पांस फोर्स  (एन.डी.आर.एफ.) की क्षमता प्रशिक्षित मैनपावर, प्रशिक्षण,  बुनियादी ढांचे और उपकरणों की कमी से बाधित है। जैसा कि सी.ए.जी. (कैग) ने कहा है, प्रमुख शहरों के लिए खतरे का मूल्यांकन और समाधान जैसी परियोजनाओं में एन.डी.एम.ए. का प्रदर्शन ‘‘बुरे हाल’’ में है। हमें भारत में आपदा राहत के मानदंडों में भी बदलाव करने की जरूरत है- हर राज्य और जिले में श्रम और निर्माण की अलग-अलग लागत होती है, जिससे राहत की एक समान राशि का वितरण सही नहीं है। जॉर्ज पॉल ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि केरल में, हालिया बाढ़ में सबसे पहले प्रभावित कुट्टानाद क्षेत्र में, पूरी तरह से नष्ट हो गए घर के लिए 92,000 रुपए मुआवजा दिया गया-यह रकम अन्य राज्यों के लिए प्रासंगिक नहीं हो सकती है। 

मौजूदा आपदा मानदंड राज्यों के बीच अंतर नहीं करते हैं - बुंदेलखंड में भी आपदा राहत के लिए प्रति इकाई वही राशि दी जाती है जो गोवा में है, इस तरह की व्यवस्था से प्रभावित क्षेत्रों का पर्याप्त पुनर्वास नहीं होगा। राहत का लक्ष्य गांवों की तरफ  अधिक होता है और इसमें खेती, मछलीपालन, पशुधन और हस्तशिल्प पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। आमतौर पर आपदा के बाद राजस्व अधिकारी प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करने और राहत के लिए लोगों की पहचान करने हेतु जिम्मेदार होते हैं। यह राहत का दुरुपयोग होने और भ्रष्टाचार के लिए मौका देता है। इसके अलावा कोई भी आपदा राहत आमतौर पर अनधिकृत क्षेत्र में रहने वाले किसी भी शख्स को वंचित रखेगी। 

इस तरह के मापदंड केवल छोटे और बड़े किसानों पर केंद्रित होने से बंटाईदारों और खेतिहर मजदूरों की भी उपेक्षा कर देते हैं। खेती में अनिश्चितता के चलते भारी जोखिम को देखते  हुए पूर्व में आमतौर पर किसानों को ग्रामीण क्रैडिट  बाजार से बाहर रखा गया है। अंत में कोई भी ऐसी असूचीबद्ध आपदा, जिसका आपदा राहत कोष के निर्देशों में ठीक से जिक्र नहीं हैं, फंड के वाॢषक आबंटन के 10 फीसदी तक सीमित है। नियोजित तरीके से बसाए गए शहर आपदाओं का सामना कर सकते हैं। जापान को देखें तो वह हमेशा आसानी से भूकंप का सामना कर लेता है। द इंडिया डिजास्टर रिसोर्स नैटवर्क को सूचना और उपकरण जुटाने के लिए संस्थागत रूप से काम करने का जिम्मा दिया जाना चाहिए। देश को एक मजबूत आपदा प्रबंधन एजैंसी की जरूरत है। 

आपदा से निपटने की तैयारी में तात्कालिक आकस्मिकता को पूरा करने के साथ ही इंसानी स्वभाव को समझते हुए सुविचारित दीर्घकालिक पुनर्वास रणनीति को लागू करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए। यह दूरदृष्टि से लैस अध्ययनों पर जोर देते हुए प्रत्याशित प्रबंधन पर केंद्रित होनी चाहिए, जिसमें नागरिकों में जागरूकता को बढ़ावा देने पर भी जोर हो। एन.डी.आर.एफ . में विशेषज्ञों के खाली पदों को भरना होगा, साथ ही उसे अपने कर्मचारियों के तबादले और तैनाती पर बेहतर नियंत्रण देना होगा। ऐसे सुधारों के अभाव में, आपदा की स्थिति में सिर्फ  सेना और अद्र्ध सैनिक बल ही सबसे पहले प्रतिक्रिया करने वाले बने रहेंगे और राज्य राहत का रोना रोते रहेंगे। शायद, प्राकृतिक आपदा से आपात स्थिति पैदा होने पर उसका सामना करने की बजाय पहले से बेहतर तैयारी रखने का यही सही समय है।-वरुण गांधी

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