वैवाहिक दुष्कर्म और दुष्कर्म के झूठे मामले

Edited By ,Updated: 29 May, 2022 05:30 AM

false cases of marital rape and rape

पिछले दिनों वैवाहिक दुष्कर्म के कानून के बारे में न्यायालय का खंडित फैसला आया। एक न्यायाधीश यह कानून बनाने के पक्ष में थे, दूसरे ने इससे असहमति जताई। इस कानून  के समर्थकों ने इसका बुरा माना। इस कानून के पक्षधरों का स्त्री की सहमति

पिछले दिनों वैवाहिक दुष्कर्म के कानून के बारे में न्यायालय का खंडित फैसला आया। एक न्यायाधीश यह कानून बनाने के पक्ष में थे, दूसरे ने इससे असहमति जताई। इस कानून  के समर्थकों ने इसका बुरा माना। इस कानून के पक्षधरों का स्त्री की सहमति पर जोर है। पति अगर पत्नी से संबंध बनाना चाहता है, तो जोर-जबरदस्ती करने के बजाय उसे पत्नी की सहमति लेनी चाहिए। हालांकि जोर-जबरदस्ती हुई कि नहीं, उसे बताने वाला कौन होगा, पत्नी ही न। किसी भी रिश्ते में जोर-जबरदस्ती पति या पत्नी, किसी की भी तरफ  से नहीं होनी चाहिए। 

फिर सवाल यह भी है कि अगर स्त्री की सहमति चाहिए, तो पुरुष की क्यों नहीं? क्या पुरुष की सहमति का कोई अर्थ नहीं? या यह मान लिया गया है कि जितने भी पुरुष हैं, वे सबके सब अत्याचारी हैं, इसलिए भला उनकी सहमति के क्या मायने। सबके सब अत्याचारी कहने में स्त्री को किसी बेचारी की तरह पेश किया जाता है। एक हाथ में सशक्तिकरण और दूसरे हाथ में विक्टिम कार्ड। इसके अलावा स्त्री को देवी बनाने का चलन भी खूब है कि वह तो किसी पर झूठे आरोप लगा ही नहीं सकती, कि कौन स्त्री अपनी इज्जत को सरेआम उधड़वाती है? 

यदि जांच एजैंसियों की मानें तो दुष्कर्म के आधे से अधिक मामले झूठे होते हैं। वे किसी और बात के लिए लगाए जाते हैं, जैसे कि पति के घर वालों के साथ न रहने की जिद, पति के अलावा प्रेमी के साथ रहने की भावना, जमीन-जायदाद, पति से छुटकारा चाहना, वसूली आदि के मसले। अफसोस की बात यह है कि दहेज की धारा 498-ए, दुष्कर्म कानून, यौन प्रताडऩा कानून, इन दिनों बहुत से मामलों में पैसा वसूली कानून भी बन गए हैं। इसका बड़ा कारण है, अपने यहां कानूनों का जैंडर न्यूट्रल न होना। जब कहा जाता है कि कानून सबके लिए बराबर होता है, सभी को न्याय देना, उसकी जिम्मेदारी है, तो ऐसे एक पक्षीय कानून क्यों बनाए जाते हैं, जिनसे बहुत से अपराधियों की बन आती है। वे उसका मनमाना इस्तेमाल करते हैं। 

लगातार आती खबरें बता रही हैं कि दुष्कर्म संबंधी कानून का दुरुपयोग बढ़ता जा रहा है। बहुत-से मामलों में, जिस पर आरोप लगाया गया, उससे पैसे वसूल करने के बाद आरोप वापस ले लिए जाते हैं। अदालतें इस तरह के मामलों में स्त्रियों को लताड़ चुकी हैं। उन पर केस दर्ज करने की सिफारिश भी कर चुकी हैं। ऐसे में कोई कह सकता है कि दुष्कर्म और दहेज कानून की तरह ही मामूली बातों पर भी इस कानून का दुरुपयोग नहीं किया जाएगा? या कि हर घर में पति दुष्कर्म कर रहा है या नहीं, इसकी जानकारी लेने के लिए कैमरे लगा दिए जाएंगे। कानून और सरकारें दूसरों के शयनकक्ष में भी बेरोक-टोक आ घुसेंगी? क्या तब परिवारों की निजता का हनन नहीं होगा? दरअसल हम यह मान बैठे हैं कि कानून से सब मुसीबतों पर विजय पाई जा सकती है। अगर ऐसा होता तो अब तक दुष्कर्म समाप्त हो गए होते, दहेज का नामो-निशान मिट चुका होता। इसके अलावा परिवार में हर वक्त त्राहि-त्राहि मची रहे, हम ऐसा क्यों चाहते हैं। 

जब लड़कियां नौकरी करने निकलती हैं, तो घर वालों से लेकर तमाम तरह के काऊंसलर्स तक उन्हें सलाह देते हैं कि नौकरी में अगर आगे बढऩा है, तो हर बात को इश्यू न बनाएं। जहां तक हो सके मिल-जुलकर रहें। लेकिन घरों में यदि सामंजस्य की बात तक कोई कह भर दे, तो उसे औरत विरोधी तक कह दिया जाता है। दफ्तर में सामंजस्य, समझौते और परिवारों में हर वक्त के मोर्चे। परिवार नहीं चाहिए, तो विवाह करने की भी भला क्या जरूरत? ऐसा क्यों है कि घर की तकरार को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने की हिदायतें दी जा रही हैं। कम से कम हर परिवार को दुष्कर्मियों का अड्डा न समझें, न ही हर पुरुष को राक्षस के सांचे में फिट कर अपने-अपने निहित स्वार्थों की आग लगाएं। औरतों को उनके भरोसे छोड़ दीजिए। 

स्त्रीवाद की इसी एक पक्षीयता से ऊब कर इन दिनों अमरीका तक में बहुत-सी स्त्रियां और युवा लड़कियां कहने लगी हैं कि मैं अपने घर को कैसे चलाऊं, अपने पति और बच्चों की देखभाल कैसे करूं, नौकरी करूं या घर में रहूं, यह मेरी च्वायस का मामला है। इन कारणों से आप मुझे नीची नजर से मत देखिए और अपने ज्ञान को अपने पास ही रखिए। हमारे घरों में दखल देना बंद कीजिए।-क्षमा शर्मा
 

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