फिल्म ‘मंटो’ और भारतीय टी.वी. कार्यक्रमों का पाकिस्तान में विरोध क्यों

Edited By ,Updated: 18 Jan, 2019 04:06 AM

film  manto  and indian tv why the programs protest in pakistan

बीते दिनों पाकिस्तान में कुछ घटनाएं सामने आईं। पहली-भारतीय फिल्म ‘मंटो’ पर इमरान सरकार द्वारा लगाए प्रतिबंध के खिलाफ  समाज के एक वर्ग द्वारा सड़कों पर विरोध-प्रदर्शन करना। दूसरी-वहां के मुख्य न्यायाधीश का यह कहना कि टी.वी. पर भारतीय धारावाहिक और...

बीते दिनों पाकिस्तान में कुछ घटनाएं सामने आईं। पहली-भारतीय फिल्म ‘मंटो’ पर इमरान सरकार द्वारा लगाए प्रतिबंध के खिलाफ  समाज के एक वर्ग द्वारा सड़कों पर विरोध-प्रदर्शन करना। दूसरी-वहां के मुख्य न्यायाधीश का यह कहना कि टी.वी. पर भारतीय धारावाहिक और अन्य सामग्री पाकिस्तान की संस्कृति को बर्बाद कर रही है। इन हालिया मामलों से इस इस्लामी देश के संदर्भ में दो बातें स्पष्ट होती हैं। पहली-पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान का तथाकथित ‘‘नया पाकिस्तान’’ केवल छलावा है। दूसरी- पाकिस्तान के वैचारिक अधिष्ठान की इस्लाम पूर्व सभ्यता और संस्कृति के प्रति घृणा जारी है। 

बीते सोमवार (14 जनवरी) को लाहौर, कराची, पेशावर और मुल्तान में पत्रकारों, कलाकारों और लेखकों सहित कई लोग अपनी सरकार के उस निर्णय के विरुद्ध सड़कों पर उतर आए, जिसमें उर्दू लेखक सआदत हसन मंटो पर आधारित भारतीय फिल्म पर प्रतिबंध लगाया गया है। इसके खिलाफ पाकिस्तान में ऑनलाइन अभियान भी चल रहा है। आखिर मंटो कौन थे और उनसे जुड़ी भारतीय फिल्म पर पाकिस्तान द्वारा थोपे प्रतिबंध का कारण क्या है? 

पाकिस्तान जाने के निर्णय पर पछतावा
पंजाब के लुधियाना स्थित समराला में 11 मई 1912 को मंटो का जन्म हुआ था। मूल रूप से वह कश्मीरी थे। प्रारंभिक जीवन में वह अमृतसर में रहे और पिता की मृत्यु के बाद रोजगार की खोज में 1930 के दशक में बॉम्बे (मुम्बई) आ गए, जहां वह पत्रकारिता से जुड़े। जब मजहब के आधार पर देश का रक्तरंजित विभाजन हुआ, तब उन्होंने पाकिस्तान जाना पसंद किया, जहां जाकर उन्हें अपने निर्णय पर पछतावा हुआ। वह वापस भारत लौटना चाहते थे, जिसका प्रयास उन्होंने अपनी मृत्यु तक किया। शराब के अत्यधिक सेवन के कारण मंटो बीमार हो गए और 18 जनवरी 1955 को 42 वर्ष की आयु में पाकिस्तान के लाहौर में उनका निधन हो गया। मृत्यु के 50 वर्ष पश्चात 2005 में तत्कालीन पाकिस्तानी सरकार ने पहले उनके नाम पर पोस्टल स्टैंप जारी की, तो इसके सात साल बाद 2012 में मंटो को उनकी उपलब्धियों के लिए ‘‘निशान-ए-इम्तियाज’’ सम्मान दिया गया। यही नहीं, वर्ष 2015 में पाकिस्तान में भी ‘मंटो’ नामक फिल्म निर्मित हुई थी। 

उर्दू लेखक के रूप में मंटो जीवनभर विवादित रहे। उन्होंने ‘बू’, ‘खोल दो’, ‘ठंडा गोश्त’ और ‘टोबा टेक सिंह’ जैसी लघु कथाएं लिखीं। अपने छोटे से जीवनकाल में उन्होंने 22 लघु कथा संग्रह, एक उपन्यास, रेडियो नाटक के पांच संग्रह, रचनाओं के तीन संग्रह और व्यक्तिगत रेखाचित्र के दो संग्रह प्रकाशित किए। अपनी कहानियों में तथाकथित अश्लीलता के कारण मंटो को छह बार कानूनी कार्रवाई का सामना भी करना पड़ा था। 

पाकिस्तान में भारतीय फिल्म ‘मंटो’ पर प्रतिबंध के स्वाभाविक कारण हैं-पहला तो यह कि फिल्म भारत में बनी है और दूसरा, मंटो विभाजन, पाकिस्तान आंदोलन, जिन्ना, मुस्लिम लीग के घोर विरोधी थे। मंटो ने अपनी मृत्यु से पहले भविष्यवाणी की थी कि पाकिस्तान में एक दिन ऐसा भी आएगा जब संगीत, कला, साहित्य और कविता आदि को सैंसर किया जाएगा और इस्लामी कट्टरपंथियों का उदय होगा। सआदत ने तो पाकिस्तान और अमरीका की मित्रता पर भी टिप्पणी की थी। उन्होंने इस दोस्ती को रूस के साम्यवाद के खिलाफ अमरीका का हथियार बताते हुए कहा था, ‘हमारे मुल्ला रूसी साम्यवाद के अच्छे विरोधी साबित होंगे। इससे हमारे देश में मुल्लाओं के हाथ में हथियार भी आ जाएंगे।’ 

मजहबी उन्मादियों पर कटाक्ष
‘गारलैंड’ में मंटो ने एक सच्ची घटना का उल्लेख करते हुए मजहबी उन्माद से भरे उन लोगों पर कटाक्ष किया है जो 1947 में लाहौर से हिंदुओं-सिखों से जुड़ी प्रत्येक स्मृति को मिटाना चाहते थे। उस समय लाहौर में माल रोड पर राय बहादुर सर गंगाराम की संगमरमर की मूर्ति स्थापित थी, जो प्रसिद्ध वास्तुकार और सिविल इंजीनियर के साथ समाजसेवी भी थे। बकौल मंटो, लाहौर में एक आवासीय क्षेत्र पर हमला करने के बाद उन्मादी भीड़ नारे लगाते हुए सर गंगाराम की मूर्ति के पास पहुंच गई। पहले उन्होंने प्रतिमा पर पत्थर बरसाए, फिर उन लोगों ने उसके चेहरे पर तारकोल पोत दिया। बाद में एक व्यक्ति जूतों की माला पहनाने के लिए मूर्ति पर चढ़ गया, तभी पुलिस आ गई और उसने हवा में गोलियां चला दीं। 

घायलों में वह व्यक्ति भी शामिल था, जिसने सर गंगाराम की मूर्ति को जूतों की माला पहनाई थी। तभी भीड़ से आवाज आई, ‘‘इसे जल्दी से सर गंगाराम अस्पताल ले चलो।’’ मंटो ने विभाजन की विडंबना और अंतर्विरोध को कितने सरल शब्दों में रेखांकित किया कि जिस व्यक्ति (सर गंगाराम) की स्मृति को वे खत्म करना चाह रहे थे, वही लोग उस व्यक्ति द्वारा स्थापित अस्पताल में अपने घायल साथियों को उपचार के लिए ले जाने की बात भी कर रहे थे। 

लाहौर में सर गंगाराम के अतुलनीय योगदान के कारण उन्हें ‘आधुनिक लाहौर का पिता’ भी कहा जाता था। इस ऐतिहासिक शहर में आज भी उनके द्वारा रचित नैशनल कॉलेज ऑफ आर्ट्स, लाहौर संग्रहालय और डाक कार्यालय जैसे कई भवन हैं। विभाजन के समय लाहौर में 550 बिस्तर वाला सर गंगाराम अस्पताल था, जो बंटवारे के बाद दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया था। यही नहीं, लाहौर में वर्ष 1944 में सर गंगाराम के परिवार द्वारा स्थापित बालकराम अस्पताल को भी पाकिस्तान ने बंद कर दिया था, जो आज मोहम्मद अली जिन्ना की बहन फातिमा जिन्ना के नाम पर और चिकित्सीय विश्वविद्यालय के रूप में संचालित हो रहा है। 

बात यहां मंटो तक सीमित नहीं है। 71 वर्षों से लाहौर के शादमान चौक का नाम शहीद भगत सिंह चौक के रूप में मूर्तरूप नहीं ले पाया। 23 मार्च 1931 को लाहौर जेल में जिस स्थान पर भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गई थी, वह स्थान आज शादमान चौक के नाम से जाना जाता है। गत वर्ष सितम्बर में लाहौर उच्च न्यायालय ने जिला प्रशासन को एक स्वयंसेवी संगठन की याचिका पर चौक का नाम शहीद भगत सिंह पर रखने का आदेश पारित किया। इस निर्णय का आतंकवादी हाफिज सईद के संगठन जमात-उद-दावा की ओर से विरोध किया जा रहा है। 

कौन सी पाकिस्तानी ‘संस्कृति’
लाहौर उच्च न्यायालय द्वारा पारित एक और ‘उदार’ निर्णय का विरोध इस बार किसी आतंकी या इस्लामी कट्टरपंथी द्वारा नहीं अपितु पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश मियां साकिब निसार द्वारा किया जा रहा है। बकौल निसार, ‘सर्वोच्च अदालत पाकिस्तानी टी.वी. चैनलों पर भारतीय सामग्री के प्रसारण की स्वीकृति नहीं देगी, क्योंकि इससे हमारी संस्कृति बर्बाद होती है।’ निसार के नेतृत्व में तीन सदस्यीय खंडपीठ, पाकिस्तान इलैक्ट्रॉनिक मीडिया रैगुलेटरी अथॉरिटी (पेमरा) द्वारा उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध दाखिल याचिका पर सुनवाई कर रही है। पेमरा ने पाकिस्तान के टी.वी. और एफ.एम. चैनलों पर भारतीय सामग्री के प्रसारण पर पूरी तरह से रोक लगा दी थी, जिसे लाहौर उच्च न्यायालय ने पलट दिया था किंतु पाकिस्तानी सर्वोच्च न्यायालय ने फिर से इस प्रतिबंध को बहाल कर दिया। आखिर निसार किस पाकिस्तानी ‘संस्कृति’ की बात कर रहे हैं? 

जब भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के लोगों का डी.एन.ए. एक है, दोनों की मूल सभ्यता, संस्कृति, भोजन के साथ दोनों देशों में रहन-सहन का तरीका भी एक है तो क्या कारण है कि आज पाकिस्तान का एक बड़ा वर्ग भारत, गांधीजी, भगत सिंह जैसे स्वतंत्रता सेनानियों से घृणा करता है? क्या पाकिस्तान की 99 प्रतिशत जनसंख्या के पूर्वज हिंदू नहीं थे? क्या मतांतरित होने (इस्लाम अपनाने के बाद) से पहले की संस्कृति, सभ्यता, परंपराओं, बहुलतावाद और उदार चरित्र का कोई स्थान नहीं है? इसी मानसिकता के कारण मुस्लिम लीग ने अंग्रेजों और वामपंथियों की बौद्धिक सहायता से इस्लाम के नाम पर भारत में बंटवारे की नींव डाली, जिसमें 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान के रूप में विषबेल का जन्म हुआ। तब से लेकर अब तक अपनी मूल संस्कृति से अलग पहचान स्थापित करने के लिए कालांतर में यहां सनातन प्रतीक चिन्हों को जमींदोज किया गया और स्वतंत्रता के समय रही 24 प्रतिशत हिंदू-सिख आबादी को 2 प्रतिशत से भी नीचे पहुंचा दिया। 

इसी वैचारिक दर्शन के कारण पाकिस्तान ने मिसाइलों के नाम भी उन्हीं क्रूर इस्लामी आक्रांताओं- जैसे बाबर, गौरी, अब्दाली, गजनवी पर रखे हैं, जिन्होंने गजवा-ए-हिंद  और दार-उल-इस्लाम उद्देश्य की पूर्ति हेतु सदियों पहले भारतीय उपमहाद्वीप पर हमला किया था। इस पृष्ठभूमि में पाकिस्तानी अधिष्ठान द्वारा भारतीय फिल्म ‘मंटो’ और भारतीय टी.वी. धारावाहिकों का विरोध स्वाभाविक है। वास्तव में जिस चिंतन ने पाकिस्तान को जन्म दिया, उसने भारतीय उपमहाद्वीप में एक खाई पैदा कर दी है, जिसे पाटने का काम भारतीय कार्यक्रम कर रहे हैं।-बलबीर पुंज

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!