वन शक्ति और जल शक्ति से मिल सकता है जीने लायक पर्यावरण

Edited By ,Updated: 08 Jun, 2019 04:09 AM

forest power and hydro power can be achieved by living environment

हर साल की तरह इस बार भी 5 जून को पर्यावरण दिवस कुछ वायदों, भाषणों, आयोजनों के साथ गुजर गया, पहले की भांति बढ़ते ताप, घटते जल स्रोत, गहराते प्रदूषण और जिंदगी जीने के कम होते जा रहे प्राकृतिक संसाधनों को लेकर ङ्क्षचताएं और आशंकाएं व्यक्त की गईं और...

हर साल की तरह इस बार भी 5 जून को पर्यावरण दिवस कुछ वायदों, भाषणों, आयोजनों के साथ गुजर गया, पहले की भांति बढ़ते ताप, घटते जल स्रोत, गहराते प्रदूषण और जिंदगी जीने के कम होते जा रहे प्राकृतिक संसाधनों को लेकर ङ्क्षचताएं और आशंकाएं व्यक्त की गईं और पुराने आश्वासनों को दोहराने के साथ यह दिन भूतकाल में बदल गया। 

अब जरा हकीकत पर नजर डालें। हमारे जंगल जहां वातावरण से कार्बन सोखने में माहिर हैं और एक वृक्ष का तीन चौथाई हिस्सा जल से पूर्ण होता है, वहां उसे  अपना ही अस्तित्व खतरे में लगता है क्योंकि हर साल लाखों हैक्टेयर वन कट जाते हैं और वहां की जमीन बंजर होती जाती है। एक ओर देश के लगभग तीस करोड़ लोग रोजी-रोटी और रहने के लिए जंगलों पर निर्भर हैं, दूसरी ओर भयंकर आग उन्हें तेजी से भस्म करती जा रही है। ऐसा कोई साल नहीं बीतता जब अग्नि का प्रकोप जंगलों को नहीं लीलता। 

देश के एक चौथाई हिस्से को वनों से घिरा माना जाता है, विडम्बना यह है कि इसमें से आधे विनाश के कगार पर पहुंच चुके हैं और आधे ठीक-ठाक घने जंगल हैं। इसका क्या नतीजा देखने को मिल रहा है, उसे समझने के लिए यह जानना होगा कि आखिर पौधे करते क्या हैं, जिन्हें लगाने और बचाने के लिए दुनिया भर में इतनी हायतौबा मची रहती है। पेड़-पौधे पानी, कार्बन और दूसरे रसायन धरती और वायु को देते हैं तथा चारों ओर फैली वनस्पति दूर से मौसम पर नियंत्रण रखते हुए हम तक सांस लेने के लिए शुद्ध हवा और पीने के लिए विभिन्न स्रोतों से साफ पानी पहुंचाती रहती है। 

वनों का महत्व 
वनों की इस महत्ता को जिन लोगों ने समझा वे अपनी जान की बाजी लगाकर भी इनकी रक्षा और पालन पोषण करते हैं। चलिए आपको 19 जनवरी, 2019 को 96 वर्ष की आयु में मृत्यु को प्राप्त हुए एक ऐसे व्यक्ति के बारे में बताते हैं जिन्हें वृक्ष मानव के नाम से पुकारा जाता था। ये थे विश्वेश्वर दत्त सकलानी, जो टिहरी-गढ़वाल के एक गांव में पैदा हुए और आठ साल की उम्र से ही ऐसी धुन सवार हुई कि पेड़ लगाने शुरू कर दिए और जीवन में पचास लाख से ज्यादा पेड़ लगाए। 

कई बार गांव वालों से झगड़ा भी हुआ क्योंकि कुछ लोगों ने समझा कि वे इस तरह जमीन को कब्जाना चाहते हैं लेकिन अपनी धुन के पक्के होने से वह पेड़ लगाने और उनकी सेवा करने के काम में लगे रहे। ओक, देवदार, भीमल और चौड़े पत्तों वाले पेड़ लगाते थे जो आज इस प्रदेश की अनमोल वन सम्पदा है, लेकिन इसी उत्तराखंड में वनों को आग से बचाने के लिए न तो पर्याप्त साधन हैं और न ही इसके लिए कोई सार्थक और दूरगामी योजना है जिससे वन संरक्षण हो सके। 

यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि वन विभाग के लिए कुछ समय पहले फिल्म बनाते समय स्वयं वनों की दुर्दशा देखी है। जब कभी किसी पेड़ कटने का दृश्य सामने आता है तो सुंदर लाल बहुगुणा की याद आ जाती है जो पेड़ से लिपट जाते थे और बाद में चिपको आंदोलन के सूत्रधार बने। हमारे देश में वनों को बचाने के लिए अनेक तरह के परम्परागत उपाय किए जाते रहे हैं। एक उदाहरण है मेघालय में पवित्र वनस्थली के रूप में विशाल वनसंपदा जहां से कोई एक पत्ता या टहनी तक नहीं ले जा सकता। इसे आस्था और विश्वास से जोड़ दिया गया कि यदि कोई ऐसा करने की कोशिश भी करेगा तो वन देवता के दंड का भागी होना निश्चित है। 

जल संरक्षण के प्रति उदासीनता 
इसे हम इस तरह से समझें कि आज मरुस्थल से घिरे जैसलमेर में स्थानीय लोगों के जागरूक और हरियाली के प्रति संवेदनशील होने के कारण पानी की कमी नहीं है जबकि विश्व में सर्वाधिक वर्षा का रिकार्ड रखने वाला चिरापूंजी पानी की कमी होने के खतरे से जूझ रहा है और वहां जाने पर अब वैसे मनमोहक दृश्य नहीं दिखाई देते जैसे अब से तीस-चालीस साल पहले दिखाई देते थे। इसका कारण केवल यही है कि एक जगह जल संरक्षण के सभी उपाय किए गए क्योंकि वहां के लोगों को पानी की कीमत मालूम थी और दूसरी जगह पर पानी भरपूर था इसलिए जल संरक्षण के प्रति उदासीनता और लापरवाही से काम लिया गया। 

पेड़ पानी सोखते हैं और उसे वातावरण में छोड़ते हैं। एक औसत पेड़ एक दिन में अढ़ाई सौ से चार सौ गैलन पानी सोखने और छोडऩे का काम करता है। कह सकते हैं कि धरती को तीन चौथाई पानी वनों से वर्षा के जरिए मिलता है। यही नहीं, एक पेड़ पानी को बाढ़ का रूप लेने से भी रोकता है। वृक्ष और जल एक-दूसरे के पर्याय हैं और एक के बिना दूसरे का न तो महत्व है और न ही उनका स्वतंत्र अस्तित्व बना रह सकता है।

क्या आपने किसी पेड़ से बात करने का लुत्फ  उठाया है? उसके किसी रखवाले से पूछिए तो पता चलेगा कि पेड़ को भी खुशी और आनंद से झूमना आता है और वह अपने कटने या सूखा ठूंठ बन जाने पर रुदन और चीत्कार भी करता है। इसीलिए पेड़ों में जीवन की कल्पना की जाती है। इसी तरह किसी नदी, झरने या ताल के आस-पास उनकी ध्वनि सुनी जा सकती है। कुदरत की व्यवस्था देखिए कि पानी की नमी को पेड़ आत्मसात कर लेते हैं और फिर पूरे वातावरण को शीतल कर देते हैं। इसी आधार पर आज उमस से पीने के लिए पानी इकट्ठा करने की विधि पर सफलतापूर्वक काम हो रहा है और हम हैं कि वन और जल दोनों ही संसाधनों को बर्बाद करने पर तुले हुए हैं और केवल बातों से इनका संरक्षण करना चाहते हैं। 

आज हम जो सांस लेने के लिए शुद्ध हवा के संकट से जूझ रहे हैं, उसका सबसे बड़ा कारण पेड़ और पानी की कद्र न करना है। वन क्षेत्र कम होते जाने से वायु प्रदूषण बढ़ रहा है। खबरों के मुताबिक उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, बंगाल, राजस्थान में होने वाली पचास प्रतिशत से ज्यादा मौतों के लिए वायु प्रदूषण जिम्मेदार है। मरने वालों में से आधे सत्तर साल से कम उम्र के हैं मतलब युवा पीढ़ी और समाज के विकास में सार्थक और कर्मठ होकर योगदान कर सकने वाली जनसंख्या असामयिक मौत का शिकार हो रही है। इसके विपरीत यदि वायु प्रदूषण न हो तो इंसान की उम्र सत्रह साल बढ़ सकती है। जहां तक जल शक्ति की बात है, हमारी सभी नदियां प्रदूषित होने के भयंकर दौर से गुजर रही हैं। दूषित पानी से होने वाली बीमारियों के कारण मौतों के आंकड़े परेशान कर सकते हैं। 

रुकावट कहां है 
इसका कारण असल में हमारी सोच और कथनी व करनी में कोई तालमेल न होना और विज्ञान तथा टैक्नोलॉजी के प्रति उदासीनता है। मिसाल के तौर पर हमारे शहरों, कस्बों और देहाती इलाकों में एक बड़ी समस्या नालों और नालियों की है। वहां कोई तालाब, नहर या झील है तो उनमें गंदगी को बेरोकटोक डालने और जमा होते जाने का अंतहीन सिलसिला चल रहा है। वर्षों तक इनकी सफाई न होने से यहां रहने वालों को नई-नई बीमारियों का शिकार होना पड़ता है और कई जगह तो इस कदर गंदगी रहती है कि वहां रहना तो क्या, उस जगह से गुजरना भी किसी खतरे से कम नहीं है। 

अब हमारे यहां हमारी ही स्वदेशी लैब जो नागपुर में है और नीरी के नाम से दुनिया भर में प्रतिष्ठा पा चुकी है, उसने एक ऐसी टैक्नॉलोजी का विकास किया है जिसे इन नाले, नालियों, झीलों और तालाबों में इस्तेमाल कर उस जगह को अच्छे-खासे घूमने के स्थान में बदला जा सकता है। इसी तरह शहर हो या देहात, कई जगह तो कूड़े के पहाड़ बन गए हैं, जिन्हें हमारे ही लैब में बनी टैक्नोलॉजी के इस्तेमाल से सस्ते ईंधन और जैविक खाद में बदला जा सकता है। ऐसा नहीं है कि इनका इस्तेमाल नहीं हो रहा है। मैंने स्वयं अपनी फिल्मों के निर्माण के दौरान ऐसे बहुत से कस्बे और जिले देखे हैं जहां इनका सही इस्तेमाल हुआ और आज वहां भरपूर खुशहाली है। 

जब ऐसा है तो उदाहरण के लिए दिल्ली में कूड़े के पहाड़ का कुतुब मीनार के आकार का हो जाना क्या कहानी कहता है, यह समझना कोई मुश्किल नहीं है। इसी तरह दिल्ली और नोएडा में नाला आफत का कारण बन चुका है और मुंबई में बीचों बीच बहता विशाल नाला और इसी तरह के दूसरे महानगरों में बदबू और गंदगी से भरे नाले इन शहरों के माथे पर कलंक की तरह लगे दिखाई देते हैं, तो उसके बारे में कुछ न कहा जाए, वही बेहतर होगा। यह हालत इसलिए है क्योंकि प्रादेशिक सरकारों से लेकर केन्द्र सरकार तक इस मामले में कुम्भकर्ण की तरह नींद में सोई हुई हैं। यह हमारे नीति-निर्धारकों और शासन की बागडोर पकड़े सत्ताधारी दलों की मानसिकता पर निर्भर है कि वे जनमानस को प्रदूषण से मुक्ति दिलाने का काम करें, वरना पर्यावरण दिवस की खानापूर्ति तो हर साल होती ही रहती है।-पूरन चंद सरीन 

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