लोकतंत्र की सुरक्षा के लिए ‘प्रैस की स्वतंत्रता’ जरूरी

Edited By Punjab Kesari,Updated: 24 Mar, 2018 02:44 AM

freedom of press is essential for the protection of democracy

प्रैस की आजादी के लिए काम करने वाली जानी-मानी संस्था ‘रिपोर्टर्स विदाऊट बार्डर्स’ की साल 2017 की रिपोर्ट बताती है कि वल्र्ड फ्रीडम इंडैक्स में भारत तीन पायदान नीचे खिसक कर 136वें स्थान पर आ गया है। हम अपने जुझारू मीडिया को दक्षिण एशिया में सबसे...

प्रैस की आजादी के लिए काम करने वाली जानी-मानी संस्था ‘रिपोर्टर्स विदाऊट बार्डर्स’ की साल 2017 की रिपोर्ट बताती है कि वल्र्ड फ्रीडम इंडैक्स में भारत तीन पायदान नीचे खिसक कर 136वें स्थान पर आ गया है। हम अपने जुझारू मीडिया को दक्षिण एशिया में सबसे स्वतंत्र मानते हैं लेकिन फ्रीडम हाऊस की नजर में यह वास्तव में आंशिक रूप से ही स्वतंत्र है। बीते साल भारत में 11 पत्रकारों की हत्या कर दी गई, 46 पर हमले हुए और पत्रकारों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई के 27 मामले सामने आए। इंडिया फ्रीडम रिपोर्ट के ये आंकड़े जमीनी स्तर पर रिपोर्टिंग के जोखिम को उजागर करते हैं। 

5 सितम्बर, 2016 को गौरी लंकेश की हत्या ने सिर्फ बातें बनाने वालों को आराम की नींद से जगा दिया। दुर्भाग्य से कानून के रखवालों और कानून तोडऩे वालों, दोनों की तरफ से होने वाले हमले झेलते हुए ऐसी हत्याएं आम हैं। लंकेश की हत्या के 2 दिन बाद बिहार के अरवल जिले में 2 बाइक सवार हमलावरों ने राष्ट्रीय सहारा के पत्रकार पंकज मिश्रा की गोली मारकर हत्या कर दी। पत्रकारों की सुरक्षा के लिए काम करने वाले एक और एन.जी.ओ. ‘कमेटी फार प्रोटैक्शन आफ जर्नलिस्ट’ (सी.पी.जे.) की साल 2016 की वैश्विक रैंकिंग के अनुसार भारत में दंड-मुक्ति रैंकिंग (ऐसी घटनाएं जिनमें पत्रकार की हत्या हुई और उसके हत्यारे पकड़ से बाहर रहे) में बीते एक दशक में 100 फीसदी का इजाफा हुआ है। वर्तमान में भारत की दंड मुक्ति रैंकिंग 13वीं है। 

प्रैस की आजादी को खतरा इसकी शुरूआत से ही रहा है। 1857 की क्रांति के साथ ही लार्ड कैनिंग द्वारा बनाया गया गैगिंग एक्ट अस्तित्व में आया, जिसमें सरकार से लाइसैंस लेना जरूरी करते हुए प्रिंटिंग प्रैसों और उनमें छपने वाली सामग्री को विनियमित किया गया था। इसके तहत किसी भी छपने वाली सामग्री की इस बात के लिए जांच की जा सकती थी कि यह ब्रिटिश राज की नीतियों के खिलाफ तो नहीं है। क्षेत्रीय भाषा के अखबारों ने जब 1876-77 के अकाल से निपटने में औपनिवेशक सरकार की ढिलाई को लेकर खबरें प्रकाशित कीं तो सरकार स्थानीय आलोचनाओं को कुचलने के लिए वर्नैकुलर प्रैस एक्ट 1878 ले आई। इस कानून के तहत बंगाल के अमृत बाजार पत्रिका समेत 35 क्षेत्रीय भाषाओं के अखबारों पर शिकंजा कसा गया। इसके कई चर्चित किस्से हैं। 

‘द बंगाली’ अखबार के सम्पादक सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, जो अपने उपनाम ‘राष्ट्रगुरु’ के नाम से मशहूर थे, को अपने अखबार में अदालत की अवमानना की टिप्पणी प्रकाशित करने के लिए गिरफ्तार किया गया। यहां तक कि बाल गंगाधर तिलक भी दमनकारी ब्रिटिश राज के खिलाफ लिखने के लिए 2 बार जेल भेजे गए। आज के दौर में छोटे शहरों में जब-तब ऐसे हमले होते रहते हैंं, जिनमें पीड़ित किसी क्षेत्रीय अखबार या चैनल में फ्रीलांसर के तौर पर काम करने वाला शख्स होता है, जिसके जिम्मे स्टूडियो या दफ्तर में बैठने के बजाय ज्यादातर फील्ड का काम होता है। साल 2014 में हमलावरों ने पत्रकार तरुण कुमार आचार्य को चाकुओं से गोद कर मार डाला था। जाहिर तौर पर इसकी वजह ओडिशा में काजू प्रोसैसिंग प्लांट में बाल श्रमिकों से काम कराए जाने की खबरें छापना था। पंजाब में चुनाव से पहले सरकार के खिलाफ खबरें लिखने के लिए पत्रकार देविंद्र पाल के घर पर पैट्रोल बम फैंका गया। उत्तर प्रदेश में मार्च 2014 में एक असाइनमैंट पर काम कर रही एक पत्रकार से गैंगरेप किया गया। 

सीमित कानूनी संरक्षण के साथ प्रैस की आजादी का ज्यादा मतलब नहीं रह जाता। ऐसी आजादी आनलाइन धमकियों और मुकद्दमों के सामने आसानी से कमजोर पड़ सकती है। इसके साथ ही आई.पी.सी. की धारा  24 (ए) (राष्ट्रद्रोह का प्रावधान) तो है ही। अक्सर राजनेताओं और नामचीन हस्तियों द्वारा मानहानि के प्रावधान का इस्तेमाल प्रैस को अपने खिलाफ टिप्पणी करने से रोकने के लिए किया जाता है। खासकर तमिलनाडु में, ऐसे तरीके बहुत ज्यादा अपनाए जाते हैं-1991-96 के बीच जयललिता की सेहत और राज्य सरकार की कार्रवाइयों को लेकर खबरें छापने पर उनकी सरकार द्वारा प्रकाशनों के खिलाफ मानहानि के तकरीबन 120 मुकद्दमे दर्ज कराए गए। यहां तक कि टी.वी. एंकर साइरस भरूचा को अपने मजाकिया शो में उनके जैसे कपड़े पहनने के लिए भी मुकद्दमे का सामना करना पड़ा। 

बड़े मीडिया हाऊस तो ऐसे मानहानि के मुकद्दमों का खर्च उठा सकते हैं लेकिन छोटे और मंझोले प्रकाशन के लिए इससे अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाता है। इसका नतीजा होता है कि सम्पादक ज्यादातर ऐसी स्टोरी छापने से परहेज करते हैं और संरक्षणविहीन पत्रकार हतोत्साहित होता है। हमें आपराधिक मानहानि के प्रावधान को खत्म करने या कम से कम हर्जाने की राशि सीमित करने के लिए कदम उठाने होंगे जिससे क्षेत्रीय और स्थानीय अखबारों के पत्रकार मानहानि के मुकद्दमे से भय मुक्त होकर काम कर सकें। कायदे से बोलने की आजादी और इसका विस्तार कहे जाने वाले प्रैस की आजादी निर्बाध होनी चाहिए लेकिन अनुच्छेद 19 की उपधारा 2 का मौजूदा संवैधानिक प्रावधान प्रैस पर प्रभावी नियंत्रण लगाता है। सरकारी गोपनीयता कानून पत्रकारों को देश की रक्षा से जुड़े मामलों की खबरें छापने से रोकता है। 

हालांकि इस प्रावधान के दुरुपयोग की भी पूरी सम्भावना है। संसद इस मामले में कम से कम इतना जरूर कर सकती है कि पत्रकारों को आपराधिक कार्रवाई से बचाने के लिए एक कानून बनाए और उन्हें राष्ट्रद्रोह कानून के दायरे से बचाए। राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में एक अध्याय जोड़कर सरकारी गोपनीयता कानून के सरकारी गोपनीयता वाले प्रावधानों का विवरण दिया जाना चाहिए। ग्रीस की संसद द्वारा दिसम्बर 2015 में देश के प्रैस कानून में दूरगामी असर वाला बदलाव बाकी देशों के लिए भी तैयारशुदा खाका पेश करता है। इसमें अदालत को दोनों पक्षों की सामाजिक-अार्थिक स्थिति के साथ ही मानहानि के प्रभाव, प्रकृति और नुक्सान की गम्भीरता के अनुपात में हर्जाने की राशि का निर्धारण करने की बात कही गई है। यह एक अनिवार्य प्राथमिक प्रक्रिया द्वारा पत्रकार को अपने पहले ड्राफ्ट में की गई चूक या गलतबयानी को दुरुस्त करने का मौका भी देता है। 

पत्रकारों के लिए खतरा बढ़ता जा रहा है तो इससे गम्भीर मामलों में रिपोॄटग की गुणवत्ता और संख्या भी प्रभावित होगी। महत्वपूर्ण मसलों की पड़ताल में कमी आएगी। कई मामलों में पूरी पड़ताल नहीं की जाएगी, मीडिया का नजरिया अति-राष्ट्रवादी हो जाएगा और आत्म आलोचना की प्रवृत्ति घट जाएगी। इस खुद पर लगाई सैंसरशिप को रोकने के लिए महत्वपूर्ण सुधार किए जाने की जरूरत होगी। प्रैस कौंसिल आफ इंडिया को एक अलग कानून (एडवोकेट्स एक्ट जैसा) बनाकर बार कौंसिल आफ इंडिया की तरह अधिकार सम्पन्न बनाए जाने की जरूरत है, जिससे पत्रकारों का दर्जा ऊंचा होगा। साथ ही इससे उन्हें अनैतिक और अव्यावसायिक तौर-तरीकों से सुरक्षा भी मिलेगी। 

प्रैस कौंसिल का दायरा बढ़ाकर इसके तहत इलैक्ट्रानिक, ब्रॉडकास्ट और न्यू मीडिया समेत सभी तरह का मीडिया लाया जाना चाहिए। हमें इस सैक्टर को व्यापक स्तर पर संरक्षण देना होगा। ऐसा नहीं करने पर हम अपने लोकतंत्र के सुरक्षा उपायों को कमजोर ही करेंगे। हमारा लोकतंत्र सुरक्षित रहे, इसके लिए जरूरी है कि हम अपने पत्रकारों की भी पूरी सुरक्षा करें।-वरुण गांधी

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